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Divine Theories of the Origin of the State राज्य की उत्पत्ति संबंधी दैवीय सिद्धांत


राज्य की उत्पत्ति संबंधी दैवीय सिद्धांत यह दर्शाता है कि शासकों की सत्ता किसी सामाजिक समझौते या जनसहमति से नहीं, बल्कि किसी उच्च आध्यात्मिक शक्ति से प्राप्त होती है। यह विचार प्राचीन सभ्यताओं जैसे मिस्र, मेसोपोटामिया, चीन और भारत में गहराई से समाहित था, जहाँ राजाओं को देवताओं के प्रतिनिधि या उनके अवतार के रूप में देखा जाता था। मध्यकालीन यूरोप में, यह विश्वास "राजाओं के दैवीय अधिकार" (Divine Right of Kings) के रूप में विकसित हुआ, जिसमें यह कहा गया कि शासक ईश्वर की इच्छा से शासन करते हैं और केवल उन्हीं के प्रति उत्तरदायी होते हैं। धार्मिक ग्रंथों, पुजारियों के समर्थन और सांस्कृतिक परंपराओं ने इस विचारधारा को मजबूती दी, जिससे यह धारणा बनी कि शासक का विरोध करना ईश्वरीय आदेश की अवहेलना करने के समान है। इस सिद्धांत ने राजतंत्र को सुदृढ़ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, क्योंकि इसने विद्रोह को हतोत्साहित किया और राजनीतिक स्थिरता सुनिश्चित की। यह विश्वास कि शासक ईश्वरीय रूप से चुने गए हैं, प्रजा में अटूट निष्ठा और आज्ञाकारिता की भावना विकसित करता था। विभिन्न समाजों में इस अवधारणा को विस्तृत अनुष्ठानों और धार्मिक विधियों के माध्यम से सशक्त किया गया, जैसे प्राचीन भारत और चीन में शासकों का अभिषेक या यूरोपीय राजाओं का धार्मिक समारोहों में राज्याभिषेक। धार्मिक संस्थाओं और राजनीतिक सत्ता के बीच गहरे संबंध ने शासकों को वैधता प्रदान की, जिससे वे धर्म के समर्थन से अपनी सत्ता को और अधिक सुदृढ़ कर सके। समय के साथ, दैवीय सिद्धांत को पुनर्जागरण, सुधार आंदोलन और प्रबोधनकाल (Enlightenment) के दौरान आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। जॉन लॉक और जीन-जैक्स रूसो जैसे दार्शनिकों ने इस धारणा को चुनौती दी कि शासन का अधिकार ईश्वर से प्राप्त होता है, और इसके स्थान पर उन्होंने यह तर्क दिया कि किसी सरकार की वैधता जनता की इच्छा से निर्धारित होनी चाहिए, कि दैवीय चयन से। संवैधानिक शासन, धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक सिद्धांतों के उदय ने इस विचारधारा के प्रभाव को और कमजोर कर दिया, जिससे जनसत्ता पर आधारित आधुनिक राजनीतिक प्रणालियों का मार्ग प्रशस्त हुआ। हालांकि, आज भी कुछ संस्कृतियों और राजनीतिक विचारधाराओं में इस विश्वास के अवशेष देखे जा सकते हैं, जहाँ शासक अपने शासन को वैध ठहराने के लिए आध्यात्मिक अधिकार का सहारा लेते हैं। यह सिद्धांत इस बात को रेखांकित करता है कि प्राचीन काल की यह अवधारणा अब भी शासन प्रणाली और राजनीतिक दर्शन पर अपनी गहरी छाप बनाए हुए है।

Concept of the Divine Theory "दिव्य सिद्धांत का अवधारणा"

राज्य की उत्पत्ति संबंधी दैवीय सिद्धांत यह मानता है कि राज्य मानव निर्मित नहीं है, बल्कि यह ईश्वरीय इच्छा द्वारा स्थापित एक संस्था है। इस सिद्धांत के अनुसार, शासकों की सत्ता ईश्वर से प्राप्त होती है, और उनकी प्रजा को उन्हें ईश्वरीय आदेश के रूप में पालन करना होता है। यह विचार दर्शाता है कि राजा और सम्राट ईश्वर द्वारा नियुक्त किए गए हैं और वे पृथ्वी पर उनके प्रतिनिधि के रूप में शासन करते हैं। इतिहास के विभिन्न कालखंडों में, इस विश्वास ने कई सभ्यताओं की राजनीतिक व्यवस्थाओं को आकार दिया है। प्राचीन मिस्र में, फिरौन को देवता का मानव रूप माना जाता था, जबकि मेसोपोटामिया में शासक अपनी वैधता को मारदुक और एनलिल जैसे देवताओं से प्राप्त करते थे। इसी प्रकार, चीन में "स्वर्गीय आदेश" (Mandate of Heaven) की अवधारणा थी, जिसके अनुसार सम्राट को तब तक शासन करने का अधिकार था जब तक वह न्यायपूर्ण शासन करता था। यदि सम्राट अपने कर्तव्यों में असफल होता, तो यह माना जाता था कि वह इस दैवीय आदेश को खो देगा। मध्यकालीन यूरोप में "राजाओं के दैवीय अधिकार" (Divine Right of Kings) की अवधारणा ने इस विचार को और अधिक सशक्त किया कि सम्राट केवल ईश्वर के प्रति उत्तरदायी हैं, और उनके शासन का विरोध करना केवल राजनीतिक, बल्कि आध्यात्मिक अपराध भी माना जाता था। धार्मिक संस्थाओं ने इस सिद्धांत को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे शासकों के लिए धार्मिक अनुष्ठान करते थे, उनका अभिषेक करते थे, और उनकी सत्ता के लिए ईश्वरीय आधार प्रदान करते थे। पुरोहित और आध्यात्मिक नेता अक्सर दैवीय सत्ता और राजसत्ता के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाते थे, जिससे शासकों की शक्ति और अधिक वैध बनती थी। धर्म और राजनीति के इस गहरे संबंध ने राजनीतिक स्थिरता बनाए रखने में मदद की, क्योंकि लोगों को यह विश्वास दिलाया गया कि शासक का विरोध करना ईश्वर की अवहेलना करने के समान है, जिससे विद्रोह और असहमति को हतोत्साहित किया जाता था। हालांकि, पुनर्जागरण (Renaissance), सुधार आंदोलन (Reformation) और प्रबोधनकाल (Enlightenment) के दौरान नई राजनीतिक विचारधाराओं के उदय के साथ इस सिद्धांत का प्रभाव कम होने लगा। जॉन लॉक और जीन-जैक्स रूसो जैसे दार्शनिकों ने दैवीय सत्ता के सिद्धांत को चुनौती दी और यह तर्क दिया कि किसी भी शासन की वैधता ईश्वर से नहीं, बल्कि जनता की इच्छा से आनी चाहिए। संवैधानिक शासन, धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रसार ने धीरे-धीरे इस सिद्धांत के प्रभाव को कमजोर कर दिया, जिससे मानवाधिकारों, जनप्रतिनिधित्व और विधि के शासन पर आधारित आधुनिक राजनीतिक प्रणालियाँ विकसित हुईं। फिर भी, आज भी कुछ समाजों और राजनीतिक विचारधाराओं में इस सिद्धांत के अवशेष देखे जा सकते हैं, जहाँ शासक अपनी सत्ता को वैध ठहराने के लिए आध्यात्मिक अधिकार का दावा करते हैं। यह सिद्धांत इस बात को दर्शाता है कि प्राचीन राजनीतिक विचारधाराओं का प्रभाव आज भी शासन प्रणाली और राजनीतिक दर्शन में देखा जा सकता है।

Historical Development "ऐतिहासिक विकास"

1.     Ancient Civilizations "प्राचीन सभ्यताएँ"

इतिहास में कई प्राचीन सभ्यताओं ने यह विश्वास किया कि शासक केवल मानव रूप में नहीं होते थे, बल्कि वे या तो स्वयम् देवता होते थे या उन्हें उच्च और अलौकिक शक्तियों द्वारा नियुक्त किया जाता था। प्राचीन मिस्र में, फिरौन को मानव रूप में देवता माना जाता था, और उनकी सत्ता का स्रोत उनके दिव्य से सीधे संबंध से आता था। फिरौन केवल एक राजनीतिक नेता नहीं था, बल्कि एक धार्मिक व्यक्ति भी था जो देवताओं और लोगों के बीच सामंजस्य बनाए रखता था। यह दिव्य राजशाही फिरौन के शासन के लिए एक मजबूत आधार प्रदान करती थी, क्योंकि उसकी बात को देवताओं का आदेश माना जाता था और उसकी क्रियाएँ भूमि की समृद्धि और स्थिरता सुनिश्चित करने के रूप में मानी जाती थीं। मेसोपोटामिया में, बाबिल और असिरिया के राजा जैसे शासक अपने वैधता को देवताओं जैसे मारडुक और इस्तर के साथ अपने संबंधों के माध्यम से सिद्ध करते थे। मेसोपोटामियाई राजा अक्सर अपने आपको देवताओं द्वारा नियुक्त किया हुआ मानते थे ताकि वे व्यवस्था बनाए रख सकें और न्याय का पालन कर सकें, इस प्रकार वे अपनी पवित्र सत्ता को मजबूत करते थे। यह दिव्य अनुमोदन शासक के शासन को मजबूत करता था, और उनके प्रजाओं को यह विश्वास था कि राजा का पालन करना देवताओं का विरोध करने के समान है। इसी प्रकार, प्राचीन चीन में "स्वर्ग का आदेश" का सिद्धांत सम्राट के शासन को वैध बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था। सम्राट को स्वर्ग का पुत्र माना जाता था, जिसे देवताओं द्वारा लोगों का शासन करने और ब्रह्मांड में सामंजस्य बनाए रखने के लिए नियुक्त किया गया था। इस विश्वास के अनुसार, सम्राट का शासन उसकी सद्गुण और न्यायपूर्ण शासन पर निर्भर था। यदि सम्राट भ्रष्ट हो जाता या अपने कर्तव्यों में विफल हो जाता, तो यह माना जाता था कि वह स्वर्ग का आदेश खो देगा, जिससे उसकी बगावत हो सकती थी। इस विचार से सम्राट की पवित्र स्थिति को केवल मजबूत किया जाता था, बल्कि यह उसकी शक्ति पर एक नैतिक निगरानी भी प्रदान करता था, यह सुनिश्चित करते हुए कि वह लोगों के सर्वोत्तम हित में शासन करे। ये विश्वास केवल प्रतीकात्मक नहीं थे, बल्कि इन सभ्यताओं की राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक संरचनाओं में गहरे रूप से निहित थे। यह शासकों को बिना सवाल किए निर्णय लेने की शक्ति प्रदान करता था और विद्रोह या विरोध को हतोत्साहित करता था, क्योंकि शासक को चुनौती देना दिव्य व्यवस्था को चुनौती देने के समान माना जाता था। इस प्रकार, दिव्य वैधता ने इन प्राचीन सभ्यताओं की स्थिरता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, और धार्मिक सत्ता और राजनीतिक शक्ति के बीच एक कड़ी स्थापित की, जो सदियों तक बनी रही।

2.  Medieval Period "मध्यकाल"

राज्य की उत्पत्ति के दिव्य सिद्धांत ने मध्यकालीन काल के दौरान विशेष रूप से यूरोप में महत्वपूर्ण स्थान पाया, जहाँ यह धार्मिक और राजनीतिक शक्ति के साथ गहरे रूप से जुड़ गया। "राजाओं के दिव्य अधिकार" का सिद्धांत एक प्रमुख विचार बनकर उभरा, जो यह स्थापित करता था कि शासक को पृथ्वी पर शासन करने के लिए भगवान द्वारा नियुक्त किया गया था, और उनकी सत्ता को किसी भी पृथ्वी के बल द्वारा चुनौती नहीं दी जा सकती थी। यह विश्वास इस विचार पर आधारित था कि राजा भगवान के प्रतिनिधि होते थे, जिनके पास लोगों पर शासन करने और व्यवस्था बनाए रखने के लिए दिव्य आदेश था, जिसे मानव संस्थाओं या विद्रोही ताकतों द्वारा उखाड़ा नहीं जा सकता था। इंग्लैंड के राजा जेम्स I और फ्रांस के राजा लुई XIV इस सिद्धांत के सबसे प्रमुख समर्थक थे। जेम्स I ने प्रसिद्ध रूप से घोषणा की थी कि शासक की शक्ति दिव्य रूप से दी गई थी और राजा केवल भगवान के प्रति जवाबदेह होते थे, यह विश्वास उनके शासन का आधार था और यह उनके संसदीय शक्ति के खिलाफ विरोध का कारण भी था। फ्रांस के राजा लुई XIV, जिन्हें "सूर्य राजा" के रूप में जाना जाता है, ने दिव्य अधिकार का सबसे शानदार रूप में प्रतिनिधित्व किया, यह दावा करते हुए कि वह राज्य के रूप में अवतार थे और पूर्णत: शासित करने के लिए भगवान द्वारा चुने गए थे। उनका प्रसिद्ध कथन, "L'État, c'est moi" ("मैं राज्य हूँ"), यह प्रदर्शित करता है कि उनका शासन भगवान द्वारा अनुमोदित था और कोई भी पृथ्वी की शक्ति, चाहे वह उनके कुलीन या चर्च से हो, उनकी पूर्ण सत्ता को चुनौती नहीं दे सकती थी। यह सिद्धांत केवल शासकों की शक्ति को मजबूत करता था, बल्कि मध्यकालीन समाज की सामाजिक संरचना को भी सुदृढ़ करता था, जहाँ चर्च और राजशाही को सत्ता के केंद्रीय स्तंभ माना जाता था। चर्च ने शाही शक्ति को वैधता प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसमें अभिषेक संस्कार, ताजपोशी, और आशीर्वाद शामिल थे, जो दिव्य स्वीकृति के विचार को और सुदृढ़ करते थे। ये समारोह राजा और भगवान के बीच दिव्य संबंध को प्रतीकित करते थे, जो उसे पवित्र और अभेद्य बना देता था। परिणामस्वरूप, राजा के निर्णयों को अक्सर दिव्य रूप से मार्गदर्शित माना जाता था, और उनकी शक्ति को पृथ्वी पर भगवान की इच्छा का विस्तार माना जाता था। हालाँकि, इस सिद्धांत का व्यापक प्रभाव था, लेकिन जैसे-जैसे राजनीतिक विचार में परिवर्तन आने लगे, इस सिद्धांत को चुनौती दी जाने लगी। संसदीय प्रणालियों का विकास, संविधानिक कानून का उदय, और पूर्ण राजशाही पर बढ़ती आलोचना ने इस विश्वास के धीरे-धीरे पतन की शुरुआत की। फिर भी, अपने चरम पर, राजाओं के दिव्य अधिकार का सिद्धांत शाही शासन को मजबूत करने और यह सुनिश्चित करने के लिए एक शक्तिशाली उपकरण था कि राजा अपनी साम्राज्य पर पूर्ण नियंत्रण बनाए रखें, अक्सर धर्म का उपयोग करके राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में अपनी प्रभुत्व को उचित ठहराया जाता था। इस विचार का प्रभाव आज भी कुछ स्वेच्छाचारी शासन प्रणालियों में देखा जा सकता है, जहाँ शासक अभी भी अपनी शक्ति को वैध बनाने के लिए दिव्य या आध्यात्मिक अधिकार का आह्वान करते हैं।

3.  Hindu and Islamic Perspectives "हिंदू और इस्लामिक दृष्टिकोण"

हिंदू परंपरा में, राजाओं को केवल राजनीतिक नेता नहीं बल्कि आध्यात्मिक मार्गदर्शक भी माना जाता था, जिन्हें धर्म (नैतिक और वैचारिक व्यवस्था जो ब्रह्मांड को बनाए रखती है) का पालन करने की जिम्मेदारी सौंपी जाती थी। राजा-धर्म (राजा का कर्तव्य) का सिद्धांत शासन व्यवस्था का केंद्रीय हिस्सा था, जिसमें शासक से न्याय, ज्ञान और निष्पक्षता का पालन करने की अपेक्षा की जाती थी। उनका कार्य पवित्र माना जाता था और यह विश्वास किया जाता था कि जो राजा धर्म के अनुसार शासन करता है, वह अपनी प्रजा की समृद्धि, शांति और भलाई सुनिश्चित करता है। इस प्रकार, राजाओं को आध्यात्मिक और सांसारिक व्यवस्था के रक्षक के रूप में देखा जाता था और उनकी सत्ता को इन ब्रह्मांडीय सिद्धांतों को बनाए रखने के लिए दिव्य रूप से निर्धारित माना जाता था। राजत्व और दिव्यता के बीच इस संबंध को विशेष रूप से प्राचीन भारतीय ग्रंथों जैसे महाभारत और रामायण में देखा जा सकता है, जहां शासकों को अक्सर दिव्य रूप से चुने हुए व्यक्तित्व के रूप में चित्रित किया जाता है, जो केवल क़ानून से नहीं बल्कि एक नैतिक कोड के माध्यम से शासन करते हैं, जो सार्वभौमिक न्याय के अनुरूप होता है। चक्रवर्ती (आदर्श सार्वभौमिक शासक) का सिद्धांत भी महत्वपूर्ण है, जिसमें राजा का शासन एक दिव्य योजना का हिस्सा माना जाता है, जो दुनिया में संतुलन बनाए रखने के लिए है। इस्लामी सोच में, खलीफा की भूमिका भी दिव्य इच्छा के साथ जुड़ी हुई थी। खलीफा को पैगंबर मुहम्मद के राजनीतिक और आध्यात्मिक उत्तराधिकारी के रूप में देखा जाता था, जो इस्लामिक कानून (शरिया) का पालन करने और धर्म की रक्षा करने का जिम्मेदार था। खलीफा की वैधता इस विश्वास पर आधारित थी कि वह दिव्य स्वीकृति से शासन करता था, जिससे धार्मिक सिद्धांतों की सही व्याख्या और आवेदन सुनिश्चित होता था। जबकि खलीफा को खुद दिव्य नहीं माना जाता था, उसकी स्थिति को पवित्र माना जाता था, और उसकी सत्ता को पृथ्वी पर भगवान की इच्छा के रूप में देखा जाता था। इन दोनों परंपराओं में, शासकों को केवल सांसारिक नेता के रूप में नहीं देखा जाता था बल्कि उन्हें एक उच्च नैतिक और आध्यात्मिक व्यवस्था के रक्षक के रूप में माना जाता था। यह दृष्टिकोण उनके अधिकार की दिव्य वैधता को सुदृढ़ करता था, जिससे शासक के खिलाफ किसी भी प्रकार के विद्रोह या विरोध को केवल राजनीतिक कार्य नहीं बल्कि धार्मिक और ब्रह्मांडीय सिद्धांतों का उल्लंघन माना जाता था। समय के साथ, इन विचारों ने अपनी-अपनी संस्कृतियों में राजनीतिक परिदृश्यों को आकार दिया, और शासक की दिव्य स्वीकृति के विचार को शासन व्यवस्था में समाहित किया। आधुनिक युग में भी, इन प्राचीन सिद्धांतों के प्रभाव की गूंज कुछ समाजों में राजनीतिक और धार्मिक विचारों पर देखी जाती है।

Main Principles of the Divine Theory "दिव्य सिद्धांत के मुख्य सिद्धांत"

1.  The State is created by God "राज्य भगवान द्वारा रचित है"

यह एक दिव्य संस्था के रूप में अस्तित्व में है, जिसका उद्देश्य समाज में व्यवस्था और न्याय बनाए रखना है, यह सुनिश्चित करना कि प्राकृतिक और नैतिक क़ानूनों का पालन किया जाए। यह विश्वास है कि ऐसी कोई भी संस्था, चाहे वह राजतंत्र हो, धर्मशासन हो या धार्मिक आधारित शासन हो, ईश्वरीय इच्छाओं और प्राधिकरण से मार्गदर्शित होती है, जो मानव सीमाओं और पक्षपात से परे होती है। इसका कार्य लोगों की भलाई की रक्षा करना, सुरक्षा प्रदान करना, निष्पक्षता को लागू करना और सामान्य भलाई को बढ़ावा देना है। जब शासन को दिव्य सिद्धांतों से जोड़ा जाता है, तो इसे उच्चतम ब्रह्मांडीय शक्तियों की अभिव्यक्ति माना जाता है, जो पवित्र क़ानूनों के अनुसार समाज की स्थिरता, शांति और उचित संचालन को सुनिश्चित करती है। यह पवित्र जिम्मेदारी शासकों को नैतिक उत्तरदायित्व की स्थिति में डालती है, जहाँ उनका कर्तव्य केवल बुद्धिमानी से शासन करना ही नहीं बल्कि सभी के कल्याण के लिए दिव्य आदेश का पालन करना भी है। एक दिव्य रूप से अनुमोदित संस्था में विश्वास भ्रष्टाचार को भी हतोत्साहित करता है, क्योंकि शासकों को उनके उच्च उद्देश्य की याद दिलाई जाती है, जो लोगों की सेवा करने का है, व्यक्तिगत लाभ या शक्ति के लिए नहीं, बल्कि दिव्य क़ानूनों के अनुसार।

2.  Rulers are appointed by God "शासकों को भगवान द्वारा नियुक्त किया जाता है"

राजा और सम्राट मानव सहमति से नहीं, बल्कि दिव्य अनुमोदन से शासन करते हैं, यह विश्वास प्राचीन राजनीतिक प्रणालियों में गहरे तौर पर निहित है। इस सिद्धांत के अनुसार, शासकों को एक उच्च शक्ति, जैसे भगवान द्वारा चुना जाता है और उन्हें दिव्य इच्छाओं के अनुसार शासन करने का कार्य सौंपा जाता है। उनकी सत्ता को पवित्र और अभेद्य माना जाता है, क्योंकि यह विश्वास किया जाता है कि उन्हें समाज में व्यवस्था, न्याय और सामंजस्य बनाए रखने के लिए नियुक्त किया गया है। दिव्य अनुमोदन में विश्वास शासकों को पूर्ण शक्ति के साथ शासन करने की वैधता प्रदान करता है, जो अक्सर उन्हें मानव क़ानूनों और संस्थाओं से ऊपर रखता है। यह दिव्य आदेश मानव दोषों से परे माना जाता है, जिससे शासक को इस स्थिति में रखा जाता है कि उनके निर्णय उच्च नैतिक और आध्यात्मिक व्यवस्था से मार्गदर्शित माने जाते हैं। उन समाजों में जहाँ यह विश्वास प्रचलित है, शासक को चुनौती देना केवल राजनीतिक विद्रोह नहीं, बल्कि दिव्य प्राधिकरण का उल्लंघन माना जाता है।

3.  Absolute Obedience to the King "राजा के प्रति पूर्ण आज्ञाकारिता"

शासक के प्रति अवज्ञा को केवल एक राजनीतिक विद्रोह का कार्य नहीं, बल्कि दिव्य अधिकार का सीधा उल्लंघन माना जाता है। उन समाजों में, जो विश्वास करते हैं कि शासक को दिव्य आदेश से चुना गया है, शासक के प्रति किसी भी प्रकार की अवज्ञा को एक पवित्र व्यवस्था के खिलाफ चुनौती के रूप में देखा जाता है, जिसे उच्च शक्ति ने स्थापित किया है। शासक, जो पृथ्वी पर भगवान के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते हैं, को समाज में सामंजस्य, न्याय और नैतिकता बनाए रखने की जिम्मेदारी दी जाती है। इसलिए, अवज्ञा को शासक के अधिकार को कमजोर करने के साथ-साथ दिव्य संतुलन और पूरे समुदाय की भलाई को खतरे में डालने के रूप में देखा जाता है। यह विश्वास नागरिकों में गहरी श्रद्धा और आज्ञाकारिता उत्पन्न करता है, क्योंकि उन्हें यह सिखाया जाता है कि शासक का विरोध करना दिव्य इच्छा का विरोध करना है। यह असंतोष, विद्रोह और प्रतिरोध को हतोत्साहित करता है, क्योंकि शासक को चुनौती देना दिव्य व्यवस्था को चुनौती देने और अराजकता को आमंत्रित करने के बराबर माना जाता है।

4.     Monarchical Rule "राजतंत्र का शासन"

राज्य की उत्पत्ति के दिव्य सिद्धांत के अनुसार, राजतंत्र को सरकार के आदर्श रूप के रूप में प्रमुखता दी जाती है, जहाँ राजा पृथ्वी पर भगवान के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है। इस सिद्धांत के अनुसार, शासक केवल एक राजनीतिक नेता नहीं बल्कि एक दिव्य रूप से चुना गया शासक होता है, जिसकी सत्ता और अधिकार उच्च आध्यात्मिक शक्ति से प्राप्त होते हैं। राजा को दिव्य इच्छा का पृथ्वी पर रूप माना जाता है, और उसके निर्णय एक उच्च नैतिक दिशा द्वारा निर्देशित माने जाते हैं। उसका शासन केवल राजनीतिक नहीं बल्कि आध्यात्मिक भी होता है, जिसमें समाज के न्याय, धर्म और नैतिकता को बनाए रखने की जिम्मेदारी होती है। इस प्रणाली में, राजा की दिव्य सत्ता उसे प्रश्नातीत बना देती है, क्योंकि उसकी शक्ति भगवान से प्राप्त मानी जाती है और उसका विरोध करना दिव्य व्यवस्था को चुनौती देने के बराबर होता है। राजा को दिव्य कानून का संरक्षक माना जाता है, जो यह सुनिश्चित करता है कि राज्य में नैतिक और सामाजिक व्यवस्था भगवान की इच्छा के अनुसार बनी रहे। यह शासन व्यवस्था एक जाति व्यवस्था को बढ़ावा देती है, जहाँ राजा के प्रति आज्ञाकारिता शांति और समृद्धि बनाए रखने के लिए आवश्यक मानी जाती है। यह सिद्धांत इस विचार को मजबूत करता है कि राजतंत्र, जिसमें मजबूत केंद्रीय शक्ति और दिव्य वैधता होती है, लोगों की भलाई और स्थिरता सुनिश्चित करने का सबसे अच्छा तरीका है। विश्वास रखने वालों की नजर में, एक न्यायपूर्ण और धार्मिक राजा को दिव्य इच्छा का सीधा साधन माना जाता है, और उसका शासन वही तरीका है जिससे राज्य समृद्ध और फलता-फूलता है।

Criticism of the Divine Theory "दैवीय सिद्धांत की आलोचना"

1.  Lack of Evidence "प्रमाणों की कमी"

यह विचार कि शासक दिव्य शक्तियों द्वारा चुने जाते हैं, हालांकि विभिन्न सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं में गहरे रूप से समाहित है, इसके समर्थन में कोई अनुभवजन्य प्रमाण नहीं है। ऐतिहासिक रूप से, कई समाजों ने इस विश्वास के तहत काम किया है कि उनके शासक दिव्य रूप से नियुक्त किए गए थे, और अपनी शक्ति को वैध बनाने के लिए धार्मिक अनुष्ठान, पवित्र ग्रंथों और दिव्य आदेशों का उपयोग किया। हालांकि, शासकों के चयन में किसी उच्च आध्यात्मिक शक्ति की सीधी भागीदारी को प्रदर्शित करने के लिए ठोस प्रमाण या प्रेक्षणीय घटनाओं की कमी है, यह अवधारणा विश्वास और आस्था का मामला बनी हुई है, कि प्रमाणिक तथ्यों का। राजनीतिक शक्ति और नेतृत्व के संदर्भ में अनुभवजन्य प्रमाण आमतौर पर प्रेक्षणीय डेटा, ऐतिहासिक रिकॉर्ड, या प्रमाणित घटनाओं से संबंधित होते हैं, जिन्हें किसी दावे को साबित या नकारने के लिए उपयोग किया जा सकता है। हालांकि, शासकों की नियुक्ति दिव्य इच्छा के माध्यम से धार्मिक ग्रंथों या शाही आदेशों की व्याख्या पर निर्भर करती है, जो अनुभवजन्य प्रमाण के मानदंडों को पूरा नहीं करती। जबकि आस्था और परंपरा ने इतिहास भर में राजनीतिक संरचनाओं और शासन व्यवस्था को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, आधुनिक राजनीतिक सोच तर्कसंगत, मानव-केंद्रित दृष्टिकोणों पर जोर देती है, जैसे लोकतंत्र, meritocracy (प्रतिभा आधारित शासन), और कानूनी ढांचे जो दिव्य स्वीकृति के बजाय सहमति, निष्पक्षता और जवाबदेही को प्राथमिकता देते हैं। अनुभवजन्य प्रमाण की कमी इन विश्वासों के महत्व को कुछ संस्कृतियों या धर्मों में घटित नहीं करती है। हालांकि, आधुनिक संदर्भ में, शासन को एक मानव-प्रेरित प्रयास के रूप में देखा जाता है, जहाँ नेतृत्व सामाजिक संरचनाओं, व्यक्तिगत क्षमताओं और सामूहिक निर्णय-निर्माण प्रक्रियाओं द्वारा निर्धारित होता है, कि दिव्य हस्तक्षेप के माध्यम से। यह बदलाव राजनीतिक सत्ता की एक व्यापक समझ को दर्शाता है, जिसे कम्युनिटी द्वारा अर्जित, बहस की गई, और सहमति के आधार पर स्वीकार किया जाता है, कि दिव्य अधिकार या धार्मिक सिद्धांतों के द्वारा थोप दिया जाता है।

2.  Denial of Popular Sovereignty "जनता की संप्रभुता का खंडन"

दिव्य शासन का सिद्धांत शासक के दिव्य आदेश के रूप में सत्ता की वैधता पर जोर देता है, लेकिन यह शासन में जनता की भूमिका को नजरअंदाज करता है। यह सिद्धांत यह मानता है कि शासक दिव्य शक्तियों द्वारा चुने जाते हैं और वे दिव्य स्वीकृति से शासन करते हैं, जो लोकतांत्रिक सिद्धांतों को नकारता है, जिनके अनुसार शासन की वैधता जनता की सहमति और भागीदारी से आती है। लोकतांत्रिक प्रणालियों में, राजनीतिक सत्ता की वैधता जनता की इच्छा से प्राप्त होती है, जहाँ नागरिक मतदान, प्रतिनिधित्व और सार्वजनिक संवाद के माध्यम से निर्णय लेने में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं। इसके विपरीत, दिव्य शासन का सिद्धांत शासक को एक अपरिवर्तनीय अधिकार की स्थिति में रखता है, जिससे जनता की भूमिका केवल आज्ञाकारी व्यक्तियों तक सीमित हो जाती है, जो बिना सवाल किए शासक का पालन करते हैं। यह लोकप्रिय संप्रभुता की उपेक्षा सीधे तौर पर समानता, स्वतंत्रता और न्याय के लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत है, जो लोकतांत्रिक शासन के आधार हैं। लोकतांत्रिक समाजों में, नेतृत्व को एक सार्वजनिक सेवा माना जाता है, और नेताओं को नियमित चुनावों और पारदर्शी संस्थाओं के माध्यम से जनता के प्रति जवाबदेह ठहराया जाता है। हालांकि, दिव्य शासन सिद्धांत शासकों को आलोचना से ऊपर रखता है, और उन्हें केवल एक उच्च, अदृश्य शक्ति के प्रति जवाबदेह बनाता है, जिससे सत्ता पर निगरानी और जवाबदेही के तंत्र समाप्त हो जाते हैं। जैसे-जैसे आधुनिक राजनीतिक प्रणालियाँ लोकतांत्रिक आदर्शों को अपनाने के लिए विकसित हुई हैं, दिव्य शासन के सिद्धांत का प्रभाव काफी हद तक कम हो गया है। अब ध्यान केंद्रित किया गया है कि शासक दिव्य शक्तियों द्वारा नहीं, बल्कि जनता के अधिकार से चुने जाते हैं। यह बदलाव राजनीतिक विचारधारा में एक महत्वपूर्ण मोड़ को दर्शाता है, जो दिव्य सिद्धांत से दूर जाकर उन प्रणालियों की ओर बढ़ रहा है, जो मानवाधिकार, समानता और कानून के शासन को प्राथमिकता देती हैं।

3.  Tyranny and Despotism "तानाशाही और अत्याचार"

राज्य के उत्पत्ति के दिव्य सिद्धांत का अक्सर निरंकुश शासन और उत्पीड़न को उचित ठहराने के लिए उपयोग किया गया है, जैसा कि इतिहास में विभिन्न राजतंत्रों में देखा गया है। यह सिद्धांत यह दावा करता है कि राजा और शासक दिव्य रूप से चुने जाते हैं, और इस तरह यह उनके अधिकार पर कोई कानूनी या नैतिक प्रतिबंध नहीं लगाता, जिससे उन्हें पूरी स्वायत्तता के साथ शासन करने की अनुमति मिलती है। यह विशेष रूप से इतिहास में विभिन्न राजतंत्रों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, जहाँ शासकों ने अपनी शक्ति को एक दिव्य आदेश के रूप में प्रस्तुत किया और स्वयं को केवल भगवान के प्रति जिम्मेदार समझा, कि जनता या किसी पृथ्वी संस्था के प्रति। इस प्रकार का शासन अक्सर आम जनता के उत्पीड़न का कारण बनता था, क्योंकि शासक के खिलाफ असहमति या विद्रोह को केवल एक राजनीतिक कृत्य के रूप में देखा जाता था, बल्कि इसे दिव्य कानून का उल्लंघन भी माना जाता था। यह सिद्धांत इस विचार को मजबूत करता था कि राजा की सत्ता पवित्र और अडिग है, जिससे विरोध को पाप के रूप में पेश किया जाता था। इस प्रकार का शासन शासकों को शक्ति केंद्रीकरण, असहमति को दबाने और जनता पर नियंत्रण बनाए रखने की अनुमति देता था, क्योंकि वे अपने कार्यों के लिए दिव्य न्यायसंगतता का हवाला देते थे, चाहे उनकी नीतियों से उनके प्रजाओं को कोई भी नुकसान क्यों हो। इतिहास में, फ्रांस के लुई XIV जैसे अनेक निरंकुश सम्राटों और मध्य पूर्व तथा एशिया के विभिन्न शासकों ने अपनी उत्पीड़क शासकीय प्रणालियों को वैध ठहराने के लिए दिव्य अधिकार या दिव्य आदेश का हवाला दिया। यह विश्वास कि उनका शासन भगवान से अनुमोदित था, इन शासकों को क्रूरता, शोषण और दमन के कृत्यों को अंजाम देने का नैतिक अधिकार देता था, जबकि वे स्वयं को व्यवस्था और न्याय बनाए रखने के लिए नियुक्त किए गएbenevolent व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत करते थे। दिव्य अधिकार के तहत शासन को उचित ठहराने का यह उपयोग अक्सर अधिक समानतापूर्ण राजनीतिक प्रणालियों के विकास में बाधक बनता है, क्योंकि यह जिम्मेदारी के तंत्र की स्थापना को हतोत्साहित करता है, जैसे कि प्रतिनिधित्व संस्थाएँ या शक्तियों का संतुलन। शासन करने का दिव्य अधिकार स्वभाव से ही सत्ता को कुछ हाथों में केंद्रीकृत कर देता है, जिससे असमानता, अन्याय और अधिकांश लोगों का उत्पीड़न होता है।

4.  Modern Political Thought  "आधुनिक राजनीतिक विचार"

लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और संवैधानिकता के उदय के साथ, दिव्य शासन का विचार आधुनिक दुनिया में अपनी प्रासंगिकता खो चुका है। ये राजनीतिक विचारधाराएँ जनशक्ति की संप्रभुता, शक्ति का पृथक्करण और कानून के शासन के महत्व को रेखांकित करती हैं, जो राजा के दिव्य अधिकार और इस विचार के विपरीत हैं कि शासक अपनी शक्ति एक उच्च, अलौकिक शक्ति से प्राप्त करते हैं। लोकतंत्र यह утверж करता है कि वैध शक्ति जनता की सहमति से आती है, कि दिव्य नियुक्ति से, और यह विचार बढ़ावा देता है कि सभी व्यक्तियों, चाहे उनकी स्थिति या शक्ति कोई भी हो, समान कानूनों और मानकों के अधीन हैं। धर्मनिरपेक्षता दिव्य शासन के विचार को और चुनौती देती है, क्योंकि यह राजनीति और धर्म के बीच स्पष्ट पृथक्करण की वकालत करती है, यह सुनिश्चित करते हुए कि शासन तर्क, वास्तविक प्रमाण और मानवाधिकारों पर आधारित हो, कि धार्मिक सिद्धांतों पर। संवैधानिकता एक ऐसा ढांचा प्रदान करती है जो शासकों के अधिकारों की सीमाएँ निर्धारित करती है, उनकी जिम्मेदारियों को रेखांकित करती है और संसदों, न्यायालयों और निर्वाचित निकायों जैसे संस्थाओं के माध्यम से जवाबदेही सुनिश्चित करती है। ये सिद्धांत एक अधिक समावेशी और न्यायपूर्ण समाज को बढ़ावा देते हैं, जहां शासक जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं और जहां कानूनों को सभी नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा करने के लिए डिजाइन किया जाता है। दिव्य शासन की गिरावट का कारण व्यक्तिगत अधिकारों और स्वतंत्रताओं की बढ़ती स्वीकृति और लोकतांत्रिक संस्थाओं की वृद्धि भी रही है, जिन्होंने शक्ति को जनता के हाथों में रखा है। जैसे-जैसे समाजों का विकास हुआ है, शासकों के दिव्य रूप से नियुक्त होने का विचार अब पुराना और आधुनिक शासन की अवधारणाओं के साथ असंगत माना जाने लगा है। आजकल, राजनीतिक वैधता जनता की इच्छाओं से प्राप्त होती है, और शासकों से अपेक्षाएँ होती हैं कि वे न्याय, समानता और मानवाधिकारों के सम्मान के साथ शासन करें।

Conclusion "निष्कर्ष"

राज्य की उत्पत्ति संबंधी दैवीय सिद्धांत ने प्रारंभिक शासकीय मॉडलों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे राजशाही शासन के लिए एक पवित्र आधार स्थापित हुआ और शासकों की सम्पूर्ण सत्ता को मजबूत किया गया। इस सिद्धांत ने राजनीतिक शक्ति के लिए धार्मिक न्यायसंगतता प्रदान की, जिससे शासक को एक ईश्वरीय रूप में प्रस्तुत किया गया, जिनकी सत्ता को चुनौती देना असंभव था। इस विश्वास प्रणाली ने प्रारंभिक राज्यों की स्थिरता में योगदान किया, क्योंकि यह विद्रोह को हतोत्साहित करता और लोगों में आज्ञाकारिता को बढ़ावा देता था, क्योंकि शासक का विरोध करना ईश्वर की इच्छा का विरोध करने के समान माना जाता था। हालाँकि, जैसे-जैसे समाजों में प्रगति हुई, राजनीतिक सोच में बदलाव आया। पुनर्जागरण, सुधार आंदोलन और प्रबोधनकाल के दौरान नए दार्शनिक दृष्टिकोण उभरे, जिन्होंने शासन में दैवीय सत्ता के विचार को चुनौती दी। जॉन लॉक, मोंटेस्क्यू, और जीन-जैक्स रूसो जैसे विचारकों ने लोकप्रिय संप्रभुता, शक्ति का पृथक्करण, और सामाजिक अनुबंध जैसे सिद्धांतों का समर्थन किया, यह मानते हुए कि वैध राजनीतिक सत्ता को शासितों की सहमति से प्राप्त किया जाना चाहिए, कि धार्मिक स्वीकृति से। इन विचारों ने धीरे-धीरे दैवीय सिद्धांत को कमजोर किया, जिससे संवैधानिक सरकारों, प्रतिनिधि संस्थाओं और कानून के शासन के लिए मार्ग प्रशस्त हुआ। आज के समय में, जबकि कई समाजों में धर्म राजनीति पर प्रभाव डालता है, केवल दैवीय इच्छा पर आधारित शासन संरचनाओं को व्यापक रूप से लोकतांत्रिक और संवैधानिक सिद्धांतों द्वारा बदल दिया गया है। धर्मनिरपेक्षता, मानवाधिकार और कानूनी ढांचे अब अधिकांश राजनीतिक प्रणालियों का आधार बनते हैं, जो जवाबदेही, पारदर्शिता और समान प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करते हैं। फिर भी, दैवीय सिद्धांत के अवशेष आज भी कुछ क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं, जहाँ धार्मिक और राजनीतिक नेतृत्व आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है, जो इस ऐतिहासिक सिद्धांत के समकालीन शासन पर प्रभाव को दर्शाता है।

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