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Education: Meaning, Concept, and Nature शिक्षा: अर्थ, अवधारणा एवं प्रकृति


परिचय (Introduction):

शिक्षा किसी भी समाज और राष्ट्र की प्रगति का आधार होती है, क्योंकि यह न केवल व्यक्तिगत विकास को बढ़ावा देती है, बल्कि सामाजिक सुधार और सांस्कृतिक समृद्धि में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह व्यक्ति को तार्किक सोच, नैतिक मूल्यों और व्यवहारिक ज्ञान से संपन्न बनाती है, जिससे वह समाज में अपनी जिम्मेदारियों को भली-भांति निभा सके। शिक्षा एक ऐसा साधन है, जो व्यक्ति के भीतर आत्मनिर्भरता, सृजनात्मकता और समस्या-समाधान की क्षमता विकसित करता है। इसके माध्यम से व्यक्ति न केवल अपनी योग्यता को पहचान पाता है, बल्कि अपने कौशलों का उपयोग कर समाज के उत्थान में भी योगदान देता है। शिक्षा व्यक्ति को अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक बनाती है, जिससे वह एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में कार्य कर सके। यह केवल किताबी ज्ञान तक सीमित नहीं रहती, बल्कि अनुभव, नैतिकता और जीवन के व्यावहारिक पक्षों को भी समाहित करती है। सही शिक्षा व्यक्ति में आत्मविश्वास, नेतृत्व क्षमता और सामूहिक सहयोग की भावना विकसित करती है, जो उसे जीवन के हर क्षेत्र में सफल बनने में सहायता करती है।
एक शिक्षित समाज ही वास्तविक रूप से प्रगतिशील और समावेशी समाज का निर्माण कर सकता है। यह विज्ञान, तकनीक, कला, संस्कृति और अर्थव्यवस्था जैसे विभिन्न क्षेत्रों में नवाचार को प्रोत्साहित करता है और एक मजबूत व समृद्ध राष्ट्र की नींव रखता है। इस प्रकार, शिक्षा केवल व्यक्तिगत उन्नति का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव और आर्थिक विकास का एक महत्वपूर्ण कारक भी है।

शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education):

"शिक्षा" शब्द का मूल लैटिन भाषा के तीन प्रमुख शब्दों से लिया गया है – "एडुकेयर" (Educare) जिसका अर्थ है पालन-पोषण करना, "एडुसेरे" (Educere) जिसका अर्थ है भीतर से बाहर लाना, और "एडुकेटम" (Educatum) जिसका आशय प्रशिक्षण और शिक्षण की प्रक्रिया से है। इन सभी शब्दों का सार यह दर्शाता है कि शिक्षा केवल सूचनाओं को स्थानांतरित करने की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह व्यक्ति की जन्मजात क्षमताओं को निखारने और उसे बौद्धिक, नैतिक तथा आत्मिक रूप से सशक्त बनाने का एक माध्यम है। शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को न केवल ज्ञान संपन्न बनाना है, बल्कि उसे जागरूक, विवेकशील, आत्मनिर्भर और समाज के प्रति उत्तरदायी बनाना भी है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जो व्यक्ति के भीतर छिपी संभावनाओं को प्रकट कर, उसे सही दिशा में मार्गदर्शित करती है, ताकि वह जीवन में सफलता प्राप्त कर सके और समाज के उत्थान में योगदान दे सके।

शिक्षा की परिभाषाएं (Definitions of Education):

भारतीय दर्शन (Indian Philosophy):

1. वैदिक परिभाषा, "सा विद्या या विमुक्तये" अर्थात्, विद्या वही है जो मनुष्य को बंधनों से मुक्त करे। यह परिभाषा शिक्षा को केवल सैद्धांतिक ज्ञान तक सीमित नहीं रखती, बल्कि इसे आत्मा की मुक्ति और आत्मबोध से जोड़ती है।

2. महर्षि व्यास, "शिक्षा वह प्रक्रिया है जो जीवन को उन्नति की ओर ले जाए और श्रेष्ठता का निर्माण करे।"
इस परिभाषा में शिक्षा को जीवन के संपूर्ण विकास का माध्यम माना गया है।

3. महर्षि पतंजलि, "अविद्यया मुक्तिर्विद्या"
अर्थात्, अज्ञान से मुक्ति ही विद्या है। यह परिभाषा ज्ञान और अज्ञान के बीच स्पष्ट अंतर को दर्शाती है और शिक्षा को आत्मज्ञान प्राप्त करने का साधन बताती है।

4. स्वामी विवेकानंद, "शिक्षा वह प्रक्रिया है जिससे आत्मा की पूर्णता अभिव्यक्त होती है।" स्वामी विवेकानंद शिक्षा को केवल सूचनाओं के संकलन तक सीमित नहीं मानते थे, बल्कि इसे आत्मबोध और चरित्र निर्माण का साधन मानते थे।

5. महात्मा गांधी, "मैं ऐसे शिक्षा को उपयोगी मानता हूँ जो शरीर, मन और आत्मा का सर्वांगीण विकास करे।"
गांधीजी शिक्षा को जीवन के हर पहलू का विकास करने वाली प्रक्रिया मानते थे, जो केवल बुद्धि ही नहीं, बल्कि नैतिकता और आध्यात्मिकता को भी समृद्ध करे।

6. डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, "शिक्षा का उद्देश्य केवल जानकारी देना नहीं, बल्कि हमारी अंतरात्मा को जागृत करना है।" राधाकृष्णन जी के अनुसार, शिक्षा व्यक्ति में आत्मबोध और नैतिक चेतना विकसित करने का साधन होनी चाहिए।

पाश्चात्य दर्शन (Western Philosophy):

1. सुकरात, "शिक्षा आत्मा के भीतर निहित ज्ञान को उद्घाटित करने की प्रक्रिया है।" उन्होंने शिक्षा को व्यक्ति के भीतर मौजूद ज्ञान को जागृत करने और आत्मविश्लेषण के माध्यम से सत्य को खोजने की प्रक्रिया माना।

2. प्लेटो, "शिक्षा शरीर और आत्मा की उस पूर्णता की प्राप्ति है, जिससे व्यक्ति न्याय और सद्गुणों से भर जाता है।" वे शिक्षा को नैतिकता और समाज के आदर्श नागरिक बनाने का साधन मानते थे।

3. अरस्तू, "शिक्षा आत्मा की सुंदरता है।" अरस्तू के अनुसार, शिक्षा व्यक्ति के नैतिक, बौद्धिक और व्यावहारिक जीवन को विकसित करने का माध्यम है।

4. जॉन लॉक, "मानव मस्तिष्क जन्म के समय एक कोरी पट्टी (Tabula Rasa) होता है, जिसे अनुभव और शिक्षा से भरा जाता है।" उनके अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के अनुभवों और सामाजिक परिवेश के माध्यम से ज्ञान और गुणों का निर्माण करना है।

5. जॉन डी वी, "शिक्षा जीवन की तैयारी नहीं, बल्कि स्वयं जीवन है।" जॉन डी वी, ने शिक्षा को अनुभवात्मक और व्यावहारिक प्रक्रिया माना, जो व्यक्ति को समाज में सक्रिय रूप से भाग लेने योग्य बनाती है।

6. इमैनुएल कांट, "मनुष्य केवल शिक्षा के माध्यम से ही मनुष्य बन सकता है।" वे मानते थे कि शिक्षा व्यक्ति को अनुशासित और स्वतंत्र सोचने वाला बनाती है।

7. हरबर्ट स्पेंसर, "शिक्षा का महान उद्देश्य जीवन की पूर्ण तैयारी करना है।" वे शिक्षा को वैज्ञानिक और व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया मानते थे।

8. रूसो, "शिक्षा प्रकृति के नियमों के अनुरूप होनी चाहिए और व्यक्ति के प्राकृतिक विकास में सहायक होनी चाहिए।"वे पारंपरिक शिक्षा प्रणाली के विरोधी थे और बालक-केंद्रित शिक्षा को प्राथमिकता देते थे।

इन परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा एक व्यापक और सतत प्रक्रिया है, जो व्यक्ति के समग्र विकास को पोषित करती है। यह केवल ज्ञान अर्जन तक सीमित नहीं है, बल्कि बौद्धिक क्षमताओं, नैतिक मूल्यों, सामाजिक व्यवहार और शारीरिक स्वास्थ्य के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। वास्तविक शिक्षा आलोचनात्मक सोच, रचनात्मकता और समस्या समाधान कौशल को बढ़ावा देती है, साथ ही नैतिक सिद्धांतों और सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना विकसित करती है। यह व्यक्ति को आत्म-पहचान, उद्देश्य और अनुकूलनशीलता प्रदान करती है, जिससे वे समाज में सार्थक योगदान दे सकें। इसके अलावा, शिक्षा केवल औपचारिक संस्थानों तक सीमित नहीं है; यह एक आजीवन यात्रा है, जो अनुभवों, संवादों और आत्म-अध्ययन के माध्यम से निरंतर विकसित होती रहती है और अंततः व्यक्ति को आत्म-विकास और सामाजिक प्रगति की ओर प्रेरित करती है।

शिक्षा की अवधारणा (Concept of Education):

शिक्षा को विभिन्न दृष्टिकोणों से समझा जा सकता है:

1. औपचारिक शिक्षा / व्यवस्थित शिक्षा / संरचित शिक्षा (Formal Education):

औपचारिक शिक्षा एक सुव्यवस्थित और संरचित प्रक्रिया है, जो विशेष रूप से शिक्षण संस्थानों जैसे कि स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों में दी जाती है। इसमें एक पूर्व-निर्धारित पाठ्यक्रम होता है, जिसे छात्रों को शिक्षकों और प्रशिक्षकों के मार्गदर्शन में सीखना होता है। इस प्रकार की शिक्षा विभिन्न स्तरों में विभाजित होती है, जैसे कि प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा। औपचारिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य न केवल शैक्षणिक ज्ञान प्रदान करना है, बल्कि अनुशासन, अनुसंधान क्षमताओं और विश्लेषणात्मक सोच को विकसित करना भी है। यह छात्रों को विशेष डिग्री और प्रमाणपत्रों के माध्यम से पेशेवर योग्यताओं से भी सशक्त बनाती है, जिससे वे भविष्य में रोजगार और करियर के अवसरों का लाभ उठा सकें।

2. अव्यवस्थित शिक्षा / स्वाभाविक शिक्षा / अनियोजित शिक्षा (Informal Education):

अनौपचारिक शिक्षा वह प्रक्रिया है जो व्यक्ति अपने दैनिक जीवन के अनुभवों, परिवार, समाज, कार्यस्थल और विभिन्न संचार माध्यमों से सीखता है। यह शिक्षा किसी औपचारिक पाठ्यक्रम या निश्चित संरचना के तहत नहीं दी जाती, बल्कि यह स्वाभाविक रूप से विभिन्न स्थितियों और संवादों के माध्यम से अर्जित होती है। उदाहरण के लिए, माता-पिता से मिलने वाली नैतिक शिक्षा, सहकर्मियों से सीखे गए व्यवहार, किताबें पढ़ने या इंटरनेट पर ज्ञान प्राप्त करने जैसी गतिविधियाँ अनौपचारिक शिक्षा का हिस्सा हैं। यह जीवन भर चलने वाली एक सतत प्रक्रिया है, जो व्यक्ति के व्यक्तिगत और सामाजिक कौशल को निखारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

3. अनौपचारिक शिक्षा / वैकल्पिक शिक्षा / गैर-परंपरागत शिक्षा (Non-Formal Education):

अनौपचारिक शिक्षा उन शिक्षण कार्यक्रमों को संदर्भित करती है, जो पारंपरिक स्कूली प्रणाली का पालन नहीं करते, लेकिन फिर भी संगठित तरीके से विशेष ज्ञान और कौशल प्रदान करते हैं। इसमें वयस्क शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण, कंप्यूटर कोर्स, भाषा शिक्षण, कृषि प्रशिक्षण और विभिन्न कौशल-आधारित कार्यक्रम शामिल होते हैं। यह शिक्षा उन लोगों के लिए विशेष रूप से लाभकारी होती है, जो औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने में असमर्थ रहे हैं या जो किसी विशेष क्षेत्र में अपने कौशल को बढ़ाना चाहते हैं। यह लचीली होती है और व्यक्ति की आवश्यकताओं के अनुसार समायोजित की जा सकती है। इसके माध्यम से लोग रोजगार के नए अवसर प्राप्त कर सकते हैं और समाज में आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त बन सकते हैं।

इस प्रकार, शिक्षा के ये तीनों रूप व्यक्ति के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और उनके सर्वांगीण विकास को सुनिश्चित करते हैं।

शिक्षा की प्रकृति (Nature of Education):

शिक्षा की प्रकृति को निम्नलिखित विशेषताओं के माध्यम से वर्णित किया जा सकता है:

1. आजीवन प्रक्रिया (Lifelong Process):

शिक्षा केवल स्कूल या विश्वविद्यालय तक सीमित नहीं होती, बल्कि यह जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है। व्यक्ति अपने अनुभवों, पर्यावरण, सामाजिक सहभागिता और आत्म-अध्ययन के माध्यम से निरंतर सीखता रहता है। नई तकनीकों, बदलते सामाजिक मूल्यों और व्यक्तिगत विकास की आवश्यकताओं के अनुरूप, शिक्षा का स्वरूप भी समय के साथ बदलता रहता है। सीखने की यह सतत प्रक्रिया व्यक्ति को आत्मनिर्भर और जागरूक नागरिक बनने में मदद करती है। यह केवल औपचारिक संस्थानों तक सीमित नहीं होती, बल्कि रोजमर्रा के जीवन की घटनाओं, समस्याओं और चुनौतियों से भी व्यक्ति को बहुत कुछ सीखने को मिलता है। शिक्षा का यह निरंतर प्रवाह समाज में सकारात्मक बदलाव लाने और भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक बेहतर मार्ग प्रशस्त करने में सहायक होता है।

2. गतिशील और परिवर्तनशील (Dynamic and Evolving):

शिक्षा एक स्थिर प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह समय के साथ बदलती रहती है। विज्ञान, प्रौद्योगिकी, और समाज में होने वाले बदलावों के अनुसार शिक्षा के तरीके और विषयवस्तु को अद्यतन किया जाता है। नई खोजें, सामाजिक आवश्यकताओं और वैश्विक परिवर्तनों को ध्यान में रखते हुए शिक्षा प्रणाली में संशोधन किए जाते हैं, ताकि यह प्रासंगिक और प्रभावी बनी रहे। शिक्षा के इस परिवर्तनशील स्वरूप से व्यक्ति को नवीनतम ज्ञान और कौशल प्राप्त होते हैं, जिससे वह आधुनिक युग की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम बनता है। यह सुनिश्चित करता है कि समाज की प्रगति और आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षण पद्धति विकसित होती रहे, ताकि प्रत्येक व्यक्ति को वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप समुचित शिक्षा प्राप्त हो सके।

3. सतत प्रक्रिया (Continuous Process):

शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो किसी निश्चित समय या अवस्था पर समाप्त नहीं होती, बल्कि जीवन के हर चरण में व्यक्ति को कुछ नया सिखाती रहती है। यह एक निरंतर सीखने और आत्म-सुधार की यात्रा है, जिसमें व्यक्ति अपनी क्षमताओं को पहचानकर उन्हें विकसित करता है। चाहे औपचारिक शिक्षा के माध्यम से हो या व्यक्तिगत अनुभवों से, सीखने का सिलसिला जीवन भर जारी रहता है। व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में विभिन्न अनुभवों से सीखता है, जिससे उसके विचारों में परिपक्वता आती है और वह जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने में सक्षम होता है। निरंतर सीखने की यह प्रक्रिया व्यक्तिगत विकास को बढ़ावा देती है और समाज के व्यापक हित में योगदान करने के लिए व्यक्ति को प्रेरित करती है।

4. सामाजिक प्रक्रिया (Social Process):

शिक्षा केवल व्यक्तिगत विकास का ही नहीं, बल्कि समाज में व्यक्ति की भूमिका को परिभाषित करने का भी माध्यम है। यह सामाजिक मूल्यों, नैतिकता, सहयोग, समानता, और नागरिक जिम्मेदारियों को आत्मसात करने में मदद करती है। एक शिक्षित व्यक्ति न केवल अपने लिए, बल्कि समाज की बेहतरी के लिए भी कार्य करता है, जिससे एक सशक्त और विकसित समाज का निर्माण होता है। शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति दूसरों के दृष्टिकोण को समझने, सहानुभूति विकसित करने और सामाजिक बंधनों को मजबूत करने में सक्षम होता है। यह समाज में सामंजस्य और सहअस्तित्व की भावना को प्रोत्साहित करती है, जिससे एक अधिक समावेशी और समृद्ध समुदाय का निर्माण संभव हो पाता है।

5. समग्र विकास (Holistic Development):

शिक्षा का उद्देश्य केवल बौद्धिक विकास तक सीमित नहीं है, बल्कि यह व्यक्ति के मानसिक, भावनात्मक, सामाजिक और शारीरिक विकास को भी बढ़ावा देती है। एक संतुलित शिक्षा प्रणाली का लक्ष्य यह सुनिश्चित करना होता है कि व्यक्ति केवल ज्ञान अर्जित करने तक सीमित न रहे, बल्कि उसमें सहानुभूति, नैतिकता, आत्म-जागरूकता और समाज के प्रति संवेदनशीलता का विकास भी हो। सही शिक्षा व्यक्ति को न केवल अकादमिक रूप से कुशल बनाती है, बल्कि उसके संपूर्ण व्यक्तित्व को भी निखारती है। यह आत्म-अनुशासन, नेतृत्व क्षमता और रचनात्मकता को बढ़ावा देती है, जिससे व्यक्ति अपने व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन में संतुलन बनाए रख सके और समाज में सक्रिय योगदान दे सके।

6. मूल्य-आधारित शिक्षा (Value-Oriented):

सही शिक्षा केवल जानकारी देने तक सीमित नहीं होती, बल्कि यह नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों को भी आत्मसात कराती है। यह व्यक्ति में अनुशासन, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, करुणा और सामाजिक उत्तरदायित्व जैसे गुण विकसित करती है, जो एक जिम्मेदार नागरिक के निर्माण में सहायक होते हैं। शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति यह सीखता है कि सही और गलत में अंतर कैसे किया जाए, और समाज के प्रति उसकी जिम्मेदारियां क्या हैं। यह नैतिकता और सद्भाव को बढ़ावा देती है, जिससे व्यक्ति अपने जीवन में न केवल सफलता प्राप्त करता है, बल्कि वह अपने परिवार, समुदाय और राष्ट्र के विकास में भी योगदान दे पाता है।

7. सार्वभौमिक स्वरूप (Universal in Nature):

शिक्षा किसी जाति, धर्म, संस्कृति या भौगोलिक क्षेत्र तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सभी के लिए आवश्यक और सुलभ होनी चाहिए। यह एक बुनियादी अधिकार है, जो समाज के प्रत्येक व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनने और अपने जीवन स्तर को सुधारने का अवसर प्रदान करता है। एक समतामूलक और समृद्ध समाज के निर्माण के लिए शिक्षा का प्रसार हर वर्ग और समुदाय तक होना आवश्यक है। यह समाज के कमजोर और वंचित वर्गों को भी सशक्त बनाती है, जिससे वे मुख्यधारा में शामिल होकर राष्ट्र की प्रगति में योगदान दे सकें। शिक्षा का सार्वभौमिक स्वरूप सभी को समान अवसर प्रदान करने में सहायक होता है, जिससे सामाजिक असमानता को कम किया जा सकता है और सभी के लिए एक समान भविष्य सुनिश्चित किया जा सकता है।
इस प्रकार, शिक्षा केवल ज्ञान प्राप्त करने का साधन नहीं, बल्कि यह एक सशक्त और जागरूक समाज की नींव रखने वाली प्रक्रिया है, जो व्यक्तिगत और सामाजिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

सारांश (Conclusion):

शिक्षा व्यक्तिगत और सामाजिक विकास की कुंजी है, क्योंकि यह न केवल ज्ञान प्रदान करती है, बल्कि व्यक्तियों और समुदायों के भविष्य को आकार देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह लोगों को आवश्यक कौशल, नैतिक मूल्य और व्यवहारिक ज्ञान से सशक्त बनाती है, जिससे वे जीवन में बेहतर निर्णय ले सकें और समाज में सकारात्मक बदलाव ला सकें। शिक्षा केवल औपचारिक डिग्री प्राप्त करने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह व्यक्ति के चरित्र निर्माण, आत्मनिर्भरता और नैतिक मूल्यों के विकास में भी सहायक होती है। शिक्षा के अर्थ, अवधारणा और प्रकृति को समझना हमें इसके व्यापक प्रभाव को पहचानने में मदद करता है और यह स्पष्ट करता है कि यह मानव प्रगति में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। एक प्रभावी शिक्षा प्रणाली केवल शैक्षणिक उत्कृष्टता को सुनिश्चित नहीं करती, बल्कि यह एक समग्र विकास प्रक्रिया को भी बढ़ावा देती है, जिससे व्यक्ति मानसिक, सामाजिक, भावनात्मक और व्यावसायिक रूप से सक्षम बनते हैं। यह उन्हें आत्मविश्वासी, सशक्त और जिम्मेदार नागरिक बनने में सहायता करती है, जो अपने ज्ञान और कौशल का उपयोग समाज के उत्थान और विकास में कर सकते हैं। इस प्रकार, शिक्षा न केवल व्यक्तिगत उन्नति का साधन है, बल्कि यह सामाजिक परिवर्तन और एक बेहतर, अधिक विकसित समाज के निर्माण की नींव भी रखती है।

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