प्रस्तावना (Introduction)
वर्ष 2000 में, भारत के विधि आयोग ने अपनी 172वीं रिपोर्ट “बलात्कार कानूनों की समीक्षा” शीर्षक से प्रस्तुत की। यह रिपोर्ट यौन अपराधों से संबंधित मौजूदा कानूनी ढांचे को आधुनिक और अधिक प्रभावी बनाने के उद्देश्य से तैयार की गई थी। यह रिपोर्ट साक्षी बनाम भारत संघ नामक एक ऐतिहासिक मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के आधार पर तैयार की गई, जिसमें बलात्कार की संकीर्ण परिभाषा और अन्य यौन हिंसाओं से पीड़ितों की अपर्याप्त कानूनी सुरक्षा पर चिंता जताई गई थी। इस मसौदे का उद्देश्य था कि सामाजिक बदलावों, यौन हिंसा की बढ़ती घटनाओं और लैंगिक न्याय की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए कानून को अधिक संवेदनशील और समावेशी बनाया जाए।
1. यौन अपराधों की पुनःपरिभाषा (Redefinition of Sexual Offences)
इस रिपोर्ट की सबसे महत्वपूर्ण और प्रगतिशील सिफारिशों में से एक थी "बलात्कार" शब्द को "यौन उत्पीड़न" (Sexual Assault) के व्यापक और समावेशी शब्द से बदलना। उस समय की भारतीय दंड संहिता में बलात्कार की परिभाषा केवल पुरुष के लिंग द्वारा स्त्री की योनि में प्रवेश तक सीमित थी, जिससे कई प्रकार के गंभीर यौन अपराध कानून की परिधि से बाहर रह जाते थे। विधि आयोग ने यह मान्यता दी कि यौन अपराध केवल एक रूप में नहीं होते और उन्होंने सुझाव दिया कि इसमें मौखिक (oral), गुदा (anal) और वस्तु से किए गए यौन उत्पीड़न को भी शामिल किया जाना चाहिए। यह परिवर्तन पीड़ितों को अधिक व्यापक न्याय दिलाने के उद्देश्य से प्रस्तावित किया गया था।
2. यौन अपराध कानूनों में लैंगिक निष्पक्षता (Gender Neutrality in Sexual Assault Laws)
रिपोर्ट में एक और महत्वपूर्ण मुद्दा यह उठाया गया कि यौन अपराधों की कानूनी परिभाषा और अभियोजन प्रक्रिया में लैंगिक निष्पक्षता (Gender Neutrality) अपनाई जानी चाहिए। पारंपरिक कानूनों में यह मान लिया गया था कि केवल महिलाएं ही यौन हिंसा की शिकार होती हैं और पुरुष ही अपराधी होते हैं। लेकिन विधि आयोग ने सुझाव दिया कि कानून को यह मान्यता देनी चाहिए कि कोई भी व्यक्ति – पुरुष, महिला या ट्रांसजेंडर – यौन हिंसा का शिकार या अपराधी हो सकता है। इस प्रस्ताव का उद्देश्य महिलाओं के अधिकारों को कमजोर करना नहीं था, बल्कि सभी नागरिकों को समान सुरक्षा प्रदान करना था।
3. धारा 377 को निरस्त करने का प्रस्ताव (Proposal to Repeal Section 377 IPC)
रिपोर्ट की एक और ऐतिहासिक सिफारिश थी भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को निरस्त करना। यह धारा "प्राकृतिक व्यवस्था के विरुद्ध यौन संबंध" को अपराध मानती थी और इसका उपयोग एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के खिलाफ किया जाता था, खासकर समलैंगिक संबंधों को दंडित करने में। विधि आयोग ने माना कि दो वयस्कों के बीच सहमति से किए गए निजी संबंधों को अपराध नहीं माना जाना चाहिए। यह सिफारिश व्यक्तिगत अधिकारों, निजता और गरिमा की रक्षा की दिशा में एक साहसिक कदम था और बाद में 2018 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा धारा 377 को असंवैधानिक घोषित करने की नींव इसी सोच से पड़ी।
4. वैवाहिक बलात्कार और कानूनी चुनौतियाँ (Marital Rape and Legal Challenges)
हालाँकि इस रिपोर्ट में कई प्रगतिशील सुझाव दिए गए, लेकिन एक बड़ा अभाव यह था कि इसमें वैवाहिक बलात्कार (Marital Rape) को अपराध की श्रेणी में शामिल नहीं किया गया। आयोग ने माना कि विवाह के भीतर जबरन यौन संबंध गंभीर समस्या है, फिर भी इसे अपराध घोषित करने की सिफारिश नहीं की। उनका तर्क था कि इससे विवाह संस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है और इसका दुरुपयोग हो सकता है। महिला अधिकार संगठनों ने इस निर्णय की कड़ी आलोचना की और कहा कि सहमति हर प्रकार के यौन संबंधों में आवश्यक होनी चाहिए, चाहे वह विवाह के भीतर हो या बाहर।
5. विशेष परिस्थितियों में प्रमाण का भार (Burden of Proof in Certain Cases)
विधि आयोग ने यौन अपराधों के मामलों में साक्ष्य कानून में भी बदलाव की सिफारिश की। एक प्रमुख सुझाव था कि जब आरोपी किसी प्रभावशाली पद पर हो – जैसे पुलिस अधिकारी, शिक्षक या नियोक्ता – तो ऐसे मामलों में यदि यौन संबंध स्थापित हो जाए, तो यह माना जाए कि वह असहमति से हुआ, जब तक कि आरोपी इसे झूठा सिद्ध न कर दे। यह बदलाव पीड़ितों को सशक्त बनाने, उन्हें अदालत में पुनः आहत होने से बचाने और सत्ता के दुरुपयोग को रोकने की दिशा में किया गया था। हालांकि, इस सिफारिश पर बहस हुई कि यह "जब तक दोषी सिद्ध न हो, तब तक निर्दोष" के सिद्धांत का उल्लंघन कर सकता है।
6. विशेष न्यायालयों की स्थापना (Establishment of Special Courts)
यौन उत्पीड़न के मामलों का शीघ्र और संवेदनशील निपटारा सुनिश्चित करने के लिए आयोग ने देशभर में विशेष न्यायालयों की स्थापना की सिफारिश की। इन न्यायालयों में प्रशिक्षित न्यायाधीश और कर्मचारी नियुक्त किए जाने चाहिए जो यौन अपराधों से संबंधित मामलों को सहानुभूति और समझ के साथ सुन सकें। इन अदालतों में कैमरा ट्रायल, महिला न्यायाधीशों की तैनाती और पीड़िता की गरिमा की रक्षा करने वाली प्रक्रिया अपनाने की सिफारिश की गई थी। इससे न्यायिक प्रक्रिया पीड़ितों के लिए कम पीड़ादायक और अधिक भरोसेमंद हो सकेगी।
7. भारतीय साक्ष्य अधिनियम में संशोधन (Amendments to the Indian Evidence Act)
रिपोर्ट में भारतीय साक्ष्य अधिनियम में भी महत्वपूर्ण संशोधनों की सिफारिश की गई, विशेष रूप से पीड़िता के चरित्र को लेकर। उस समय साक्ष्य अधिनियम की धारा 155(4) के अंतर्गत पीड़िता के चरित्र पर सवाल उठाकर उसकी विश्वसनीयता को चुनौती दी जा सकती थी। यह प्रावधान अकसर पीड़ित को अपमानित करने और मुकदमे की मूल विषयवस्तु से ध्यान हटाने के लिए उपयोग होता था। आयोग ने इस प्रावधान को हटाने की सिफारिश की और कहा कि पीड़िता का यौन अतीत या चरित्र इस बात से कोई संबंध नहीं रखता कि उस पर यौन अपराध हुआ या नहीं।
नागरिक समाज और महिला संगठनों की प्रतिक्रिया (Reception by Civil Society and Women's Organizations)
इस मसौदे को नागरिक समाज और महिला संगठनों से मिली-जुली प्रतिक्रिया प्राप्त हुई। जहां एक ओर विस्तारित परिभाषा और पुरुष व बच्चों को भी पीड़ित के रूप में मान्यता देने की सिफारिशों का स्वागत किया गया, वहीं दूसरी ओर लैंगिक निष्पक्षता को लेकर चिंता भी व्यक्त की गई। अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति (AIDWA) और साक्षी जैसे संगठनों ने आशंका जताई कि यदि कानून को पूरी तरह लैंगिक रूप से तटस्थ बना दिया गया, तो महिलाओं के लिए पहले से उपलब्ध विशेष कानूनी सुरक्षा कमजोर हो सकती है। इसके अलावा वैवाहिक बलात्कार को अपराध न बनाए जाने को एक गंभीर कमी माना गया।
दीर्घकालिक प्रभाव और कानूनी बदलाव (Long-Term Impact and Legislative Changes)
हालांकि विधि आयोग की 172वीं रिपोर्ट की सिफारिशों को तुरंत पूरी तरह से लागू नहीं किया गया, लेकिन यह रिपोर्ट बाद के सुधारों की आधारशिला बनी। 2012 में दिल्ली में हुए निर्भया सामूहिक बलात्कार कांड ने पूरे देश को झकझोर दिया और इसके बाद न्यायमूर्ति वर्मा समिति का गठन हुआ। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में विधि आयोग की कई सिफारिशों को अपनाया। इसके परिणामस्वरूप 2013 में आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम पारित किया गया, जिसमें बलात्कार की परिभाषा का विस्तार, दंडों की वृद्धि और पीड़िता-हितैषी प्रक्रियाओं को शामिल किया गया। हालांकि marital rape और पूर्ण लैंगिक निष्पक्षता अभी भी कानून में शामिल नहीं किए गए हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि कानूनी सुधारों में सामाजिक मानसिकता एक बड़ी चुनौती है।
निष्कर्ष (Conclusion)
भारत में लैंगिक कानून सुधार का मसौदा, 2000 (विधि आयोग की 172वीं रिपोर्ट) यौन अपराधों से संबंधित कानूनों को सुधारने का एक साहसिक प्रयास था। इस रिपोर्ट ने यौन उत्पीड़न की व्यापक परिभाषा, लैंगिक निष्पक्षता, साक्ष्य कानून में बदलाव और विशेष न्यायालयों की स्थापना जैसी सिफारिशें करके भारत के कानूनी तंत्र को मानवाधिकारों के अंतरराष्ट्रीय मानकों के करीब लाने की कोशिश की। हालांकि कुछ सिफारिशें विवादास्पद रहीं और उन्हें लागू नहीं किया गया, फिर भी यह रिपोर्ट यौन अपराधों और कानूनों पर विचार विमर्श की दिशा को बदलने में महत्वपूर्ण साबित हुई। आज भी यह रिपोर्ट एक मार्गदर्शक दस्तावेज के रूप में मानी जाती है और कानूनी सुधार की दिशा में प्रेरणा देती है।
Read more....