Problems of Teaching Civics in the School Curriculum विद्यालयी पाठ्यक्रम में नागरिकशास्त्र पढ़ाने की समस्याएँ
प्रस्तावना
नागरिकशास्त्र (Civics) विद्यालयी शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण घटक है, जिसका उद्देश्य विद्यार्थियों में लोकतांत्रिक मूल्यों, नागरिकता की भावना, सामाजिक उत्तरदायित्व और शासन व्यवस्था की समझ को विकसित करना है। यह विषय विद्यार्थियों को न केवल अपने अधिकारों और कर्तव्यों से परिचित कराता है बल्कि उन्हें एक सक्रिय और जागरूक नागरिक बनने के लिए प्रेरित करता है। परंतु वास्तविकता यह है कि विद्यालयी स्तर पर नागरिकशास्त्र को अक्सर एक कम महत्त्वपूर्ण विषय के रूप में देखा जाता है। इसकी शिक्षण प्रक्रिया में अनेक प्रकार की व्यावहारिक, शैक्षणिक और संरचनात्मक कठिनाइयाँ पाई जाती हैं। ये समस्याएँ न केवल विषय के उद्देश्य को कमजोर करती हैं बल्कि विद्यार्थियों में नागरिक चेतना के विकास में भी बाधा उत्पन्न करती हैं।
1. विषय के प्रति विद्यार्थियों और शिक्षकों का उदासीन रवैया
नागरिकशास्त्र पढ़ाने की सबसे बड़ी समस्या यह है कि विद्यार्थी और शिक्षक दोनों ही इस विषय को बहुत गंभीरता से नहीं लेते। कई विद्यालयों में विद्यार्थियों के लिए यह विषय केवल परीक्षा पास करने का साधन भर बन गया है, न कि जीवन कौशल सीखने का माध्यम। इसका कारण यह भी है कि इस विषय में प्रायः रटने (rote learning) पर जोर दिया जाता है, जिससे विद्यार्थियों में रुचि नहीं बन पाती। दूसरी ओर, कुछ शिक्षक भी नागरिकशास्त्र को उतनी प्राथमिकता नहीं देते जितनी अन्य विषयों को दी जाती है। कई बार इस विषय को ऐसे शिक्षकों को पढ़ाने के लिए सौंप दिया जाता है जिनकी इस क्षेत्र में विशेषज्ञता नहीं होती। परिणामस्वरूप शिक्षण में गहराई, रुचिकरता और प्रभावशीलता का अभाव रहता है।
2. व्यावहारिक और अनुभवात्मक अधिगम का अभाव
नागरिकशास्त्र का मूल उद्देश्य विद्यार्थियों में लोकतांत्रिक व्यवहार, नागरिक जिम्मेदारी और शासन व्यवस्था की वास्तविक समझ विकसित करना है। इसके लिए केवल पुस्तक आधारित ज्ञान पर्याप्त नहीं होता; विद्यार्थियों को व्यावहारिक अनुभव भी होना चाहिए। लेकिन अधिकांश विद्यालयों में नागरिकशास्त्र का शिक्षण केवल कक्षा तक सीमित रहता है। उदाहरण के लिए — मॉक पार्लियामेंट (Mock Parliament), जनसुनवाई, पंचायत या नगर निकाय की यात्रा, चुनावी प्रक्रिया का अभ्यास आदि जैसी गतिविधियाँ बहुत कम विद्यालयों में कराई जाती हैं। इससे विद्यार्थियों में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की व्यावहारिक समझ नहीं बन पाती और विषय केवल सैद्धांतिक रह जाता है।
3. पाठ्यपुस्तकों में विषय की सीमित प्रस्तुति
नागरिकशास्त्र के पाठ्यक्रम में कई बार सामग्री बहुत संक्षिप्त और सतही रूप में प्रस्तुत की जाती है। उसमें विषय की गहराई, आधुनिक उदाहरण और वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य का अभाव होता है। इससे विद्यार्थियों को यह समझने में कठिनाई होती है कि नागरिकशास्त्र का उनके दैनिक जीवन से क्या संबंध है। इसके अलावा कई बार पाठ्यपुस्तकें पुरानी जानकारी पर आधारित होती हैं, जिनमें हाल के संवैधानिक संशोधनों, न्यायिक निर्णयों और सामाजिक परिवर्तनों का समावेश नहीं होता। इससे विषय अद्यतन (updated) न रह पाने के कारण विद्यार्थियों की रुचि कम हो जाती है।
4. शिक्षकों की अपर्याप्त प्रशिक्षण व्यवस्था
नागरिकशास्त्र पढ़ाने के लिए केवल विषय का ज्ञान पर्याप्त नहीं होता, बल्कि इसके लिए विशेष प्रकार की शिक्षण विधियों की आवश्यकता होती है — जैसे चर्चा, संवाद, भूमिका निर्वाह (role play), अध्ययन भ्रमण (field visits) और परियोजना कार्य। लेकिन अधिकांश शिक्षकों को इस विषय की विशेष प्रशिक्षण नहीं मिलती। कई विद्यालयों में नागरिकशास्त्र पढ़ाने वाले शिक्षक इस विषय में स्नातक या परास्नातक नहीं होते। प्रशिक्षण की कमी के कारण वे नवीन शिक्षण विधियों का प्रयोग नहीं कर पाते, जिससे शिक्षण एकतरफा (lecture-based) और नीरस हो जाता है।
5. संसाधनों और अधिगम साधनों का अभाव
नागरिकशास्त्र पढ़ाने के लिए केवल पुस्तकें पर्याप्त नहीं होतीं। इसके लिए संसदीय मॉडल, चार्ट, नक्शे, संविधान की प्रतियाँ, समाचार पत्र, ऑडियो-वीडियो साधन और स्थानीय प्रशासनिक संस्थाओं से जुड़ी जानकारी की आवश्यकता होती है। परंतु अधिकांश विद्यालयों में इन संसाधनों का गंभीर अभाव होता है। अध्यापन में संसाधनों की कमी के कारण शिक्षण प्रक्रिया सीमित और उबाऊ हो जाती है। अगर विद्यार्थियों को दृश्यात्मक और व्यावहारिक सामग्री से अवगत कराया जाए तो विषय को अधिक जीवंत और प्रभावी बनाया जा सकता है।
6. मूल्यांकन प्रणाली में विषय की उपेक्षा
विद्यालयों में नागरिकशास्त्र को अक्सर ऐसे विषय के रूप में रखा जाता है जिसका अंकभार (weightage) कम होता है। इससे विद्यार्थियों में इस विषय के प्रति गंभीरता नहीं आती। परीक्षा प्रणाली भी पारंपरिक होती है जिसमें वस्तुनिष्ठ (objective) प्रश्नों और रटने पर जोर होता है। इसमें रचनात्मकता, चिंतनशीलता और वास्तविक जीवन के अनुप्रयोग को आंकने की पर्याप्त व्यवस्था नहीं होती। मूल्यांकन प्रणाली में सुधार के बिना इस विषय के महत्त्व को स्थापित नहीं किया जा सकता। यदि परीक्षा प्रणाली में प्रोजेक्ट, प्रस्तुति, समूह चर्चा और व्यावहारिक गतिविधियों को शामिल किया जाए तो विद्यार्थियों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है।
7. समसामयिक घटनाओं से जोड़ने में असफलता
नागरिकशास्त्र एक ऐसा विषय है जो समाज, राजनीति और शासन से सीधा जुड़ा होता है। लेकिन शिक्षण प्रक्रिया में इसे अक्सर समसामयिक घटनाओं से नहीं जोड़ा जाता। विद्यार्थियों को संविधान, अधिकारों और शासन तंत्र की जानकारी तो दी जाती है, परंतु उन्हें यह नहीं समझाया जाता कि यह सब उनके जीवन को कैसे प्रभावित करता है। अगर नागरिकशास्त्र को वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक घटनाओं जैसे चुनाव, न्यायिक निर्णय, सामाजिक आंदोलनों और नीतिगत परिवर्तनों से जोड़ा जाए तो विषय अधिक प्रभावी और प्रासंगिक बन सकता है।
8. शहरी और ग्रामीण विद्यालयों में असमानता
ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यालयों में नागरिकशास्त्र पढ़ाने की चुनौतियाँ और भी अधिक होती हैं। वहाँ न तो पर्याप्त संसाधन होते हैं और न ही प्रशिक्षित शिक्षक। कई बार तो नागरिकशास्त्र को मुख्य विषय के रूप में पढ़ाया ही नहीं जाता, या फिर इसे अन्य विषयों में मिला दिया जाता है। इससे ग्रामीण विद्यार्थियों में नागरिक चेतना और लोकतांत्रिक मूल्यों की समझ विकसित होने में बाधा आती है।
निष्कर्ष(Conclusion)
विद्यालयी पाठ्यक्रम में नागरिकशास्त्र पढ़ाने की समस्याएँ केवल पाठ्यक्रम की सीमाओं तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे शिक्षा प्रणाली के व्यापक ढांचे से भी जुड़ी हुई हैं। विषय के प्रति उदासीनता, प्रशिक्षण और संसाधनों की कमी, व्यावहारिक अधिगम का अभाव, और परीक्षा प्रणाली की कमजोरियाँ मिलकर इस विषय के वास्तविक उद्देश्य को कमजोर कर देती हैं।
यदि नागरिकशास्त्र को प्रभावी ढंग से पढ़ाना है तो शिक्षा नीति में कुछ बुनियादी सुधारों की आवश्यकता है —
- विषय को पर्याप्त महत्त्व और समय दिया जाए
- शिक्षकों को विशेष प्रशिक्षण प्रदान किया जाए।
- शिक्षण को अनुभवात्मक और समसामयिक घटनाओं से जोड़कर किया जाए।
- मूल्यांकन प्रणाली में सुधार लाया जाए।
जब नागरिकशास्त्र को व्यावहारिक, जीवंत और प्रासंगिक बनाया जाएगा, तभी विद्यार्थी न केवल अपने अधिकारों और कर्तव्यों को समझेंगे, बल्कि लोकतांत्रिक समाज के निर्माण में सक्रिय भूमिका भी निभा सकेंगे।
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