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Childhood and child Development implication in teaching and learning बचपन और बाल विकास का शिक्षण और अधिगम में निहितार्थ

⭐ प्रस्तावना

मानव जीवन के विभिन्न चरणों में बचपन का स्थान सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि इसी अवस्था में व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, संज्ञानात्मक, भाषा, सामाजिक और नैतिक विकास की नींव रखी जाती है। बचपन को व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण की आधारशिला कहा गया है। यदि बचपन में उचित देखभाल, पोषण, शिक्षा और विकासात्मक अवसर प्राप्त हों तो बालक का सम्पूर्ण विकास संतुलित ढंग से होता है और वह भविष्य में एक सफल, आत्मनिर्भर तथा समाजोपयोगी नागरिक बनता है। इसलिए शिक्षण और अधिगम की प्रक्रिया में बचपन और बाल विकास की समझ अत्यंत आवश्यक है ताकि प्रत्येक बालक की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षण को प्रभावी और बालकेंद्रित बनाया जा सके। वर्तमान युग में यह विशेष महत्त्व रखता है जब शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान प्रदान करना नहीं बल्कि व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास को सुनिश्चित करना है।

🌱 बचपन – अर्थ और अवधारणा

बचपन जन्म से लेकर लगभग 12 वर्ष की आयु तक का वह कालखंड है जिसमें बालक के शारीरिक अंगों, मस्तिष्क, इंद्रियों, भाषा, भावनाओं और सामाजिक व्यवहार का तीव्र विकास होता है। यह काल ‘निर्भरता से आत्मनिर्भरता’ की ओर बढ़ने का चरण होता है। इस अवधि में बालक का मस्तिष्क अत्यंत ग्रहणशील होता है तथा वह अपने परिवेश से निरंतर सीखता और अनुभव प्राप्त करता है। यह काल जिज्ञासा, कल्पना शक्ति और अनुकरण का होता है जिसमें बच्चा न केवल देख-देख कर सीखता है बल्कि उसे स्वयं क्रियाएँ कर के सीखना अधिक पसंद आता है। बाल विकास विशेषज्ञ इसे “संवेदनशील काल (Sensitive Period)” कहते हैं क्योंकि इस दौरान यदि उचित पोषण, सुरक्षा, प्रेम, संवाद और शिक्षा न मिले तो बच्चे के विकास में बाधाएँ उत्पन्न हो सकती हैं। इस अवस्था की विशेषता यह है कि यह जीवन के भविष्य की दिशा तय करती है और बालक के आत्मविश्वास, व्यक्तित्व, भाषा कौशल तथा सामाजिक व्यवहार को आकार देती है।

🌿 बाल विकास – अर्थ और अवधारणा

बाल विकास से तात्पर्य बच्चे के जन्म से लेकर किशोरावस्था तक शारीरिक, मानसिक, संज्ञानात्मक, भाषा, सामाजिक, नैतिक और भावनात्मक क्षेत्रों में निरंतर, क्रमबद्ध और समन्वित परिवर्तन से है। यह एक सतत प्रक्रिया है जिसमें हर चरण का अपना विशिष्ट महत्त्व होता है। जैसे शैशवावस्था में इंद्रियों और मांसपेशियों का विकास, पूर्व-बाल्यावस्था में भाषा और कल्पनाशीलता का विकास, मध्य-बाल्यावस्था में तार्किकता और नैतिक बोध का विकास और किशोरावस्था में आत्मबोध तथा पहचान निर्माण की प्रवृत्ति।

पियाजे के अनुसार, संज्ञानात्मक विकास ठोस अनुभवों से अमूर्त चिंतन की ओर बढ़ता है, जिसमें बालक पर्यावरण से सक्रिय संपर्क स्थापित कर ज्ञान का निर्माण करता है।
वायगोत्स्की के अनुसार, सामाजिक अंतःक्रिया, संस्कृति और भाषा का विकास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।
एरिक्सन के अनुसार, प्रत्येक अवस्था में कुछ विशेष विकासात्मक कार्य होते हैं, जिन्हें पूरा करना व्यक्ति के संतुलित व्यक्तित्व निर्माण के लिए आवश्यक होता है।
कोहलबर्ग के अनुसार, नैतिक विकास पूर्व-परंपरागत स्तर से पारंपरिक और फिर उत्तर-परंपरागत स्तर की ओर बढ़ता है।

इस प्रकार, बाल विकास बहुआयामी प्रक्रिया है जो बच्चे के सम्पूर्ण जीवन को प्रभावित करती है। शिक्षक के लिए इसका ज्ञान आवश्यक है ताकि वह बच्चों की क्षमताओं, सीमाओं और आवश्यकताओं को समझते हुए उपयुक्त शिक्षण योजना बना सके।

📚 शिक्षण और अधिगम में निहितार्थ

1. विकासात्मक उपयुक्तता (Developmental Appropriateness)

शिक्षण की सफलता का आधार यही है कि वह बालक के विकासात्मक स्तर के अनुरूप हो। यदि किसी कक्षा में कठिन, अमूर्त और बच्चे की समझ से बाहर की सामग्री पढ़ाई जाए तो अधिगम निष्फल रहेगा। उदाहरण स्वरूप – पूर्व-बाल्यावस्था (3-6 वर्ष) के बच्चों के लिए चित्र, कहानियाँ, गीत, खेल, रंग भरने की गतिविधियाँ उपयुक्त हैं क्योंकि इस अवस्था में उनकी संज्ञानात्मक प्रक्रिया ठोस और दृश्य अनुभवों पर आधारित होती है। मध्य-बाल्यावस्था (7-12 वर्ष) में तर्कशक्ति और समस्या समाधान कौशल का विकास होता है, अतः गणितीय गतिविधियाँ, परियोजना कार्य, समूह कार्य और सरल तर्क आधारित प्रश्न प्रभावी सिद्ध होते हैं। शिक्षक को पियाजे और वायगोत्स्की के सिद्धांतों के आधार पर यह जानना चाहिए कि कौन-सी गतिविधि, भाषा और पाठ्यवस्तु बच्चे की सोच, भाषा और सामाजिक विकास के अनुरूप है।

2. व्यक्तिगत भिन्नताओं का सम्मान (Respect for Individual Differences)

प्रत्येक बालक की गति, क्षमता, रुचियाँ, पिछला अनुभव, सीखने की शैली और पारिवारिक पृष्ठभूमि भिन्न होती है। बाल विकास का ज्ञान शिक्षक को यह समझने में सहायक होता है कि सभी बच्चे एक जैसे नहीं होते और किसी एक ही पद्धति से सभी को समान रूप से सिखाना संभव नहीं। उदाहरण के लिए – कक्षा में कुछ बच्चे तेज गति से सीखते हैं, कुछ को पुनरावृत्ति और अभ्यास की आवश्यकता होती है, कुछ को दृश्य सामग्री से अधिक समझ आती है तो कुछ को श्रव्य माध्यमों से। जब शिक्षक व्यक्तिगत भिन्नताओं का सम्मान करते हैं तो बच्चों में हीनभावना, भय और असफलता की भावना कम होती है और वे आत्मविश्वास के साथ सीखने में सक्षम होते हैं।

3. प्रेरणा और जिज्ञासा बनाए रखना (Maintaining Motivation and Curiosity)

बचपन की विशेषता यह है कि बच्चे स्वाभाविक रूप से जिज्ञासु होते हैं। यदि उनकी इस जिज्ञासा को पोषित किया जाए तो सीखने की गति और गुणवत्ता अत्यंत प्रभावी होती है। शिक्षक को शिक्षण में रोचकता, नवीनता, गतिविधि, प्रश्नोत्तर, कहानी, उदाहरण और प्रयोगों को शामिल करना चाहिए ताकि बच्चों का ध्यान केंद्रित रहे। उदाहरण स्वरूप – विज्ञान विषय पढ़ाते समय यदि केवल परिभाषाएँ और सिद्धांत बताए जाएँ तो बच्चे ऊब सकते हैं, लेकिन यदि उन्हें प्रयोगशाला में वास्तविक वस्तुओं से प्रयोग कराए जाएँ तो उनका अधिगम स्थायी होगा।

4. भाषा विकास और संप्रेषण कौशल (Language Development and Communication Skills)

बचपन में भाषा का विकास अत्यंत तीव्र होता है। शिक्षक की भाषा सरल, स्पष्ट, शुद्ध और बच्चों के स्तर के अनुरूप होनी चाहिए। कहानी सुनाना, कविता वाचन, प्रश्न पूछना, उत्तर को प्रोत्साहित करना, समूह चर्चा कराना आदि विधियाँ भाषा विकास में सहायक हैं। शिक्षक जब बच्चों से संवाद करते हैं, उनकी बात ध्यान से सुनते हैं और सुधारात्मक प्रतिक्रिया देते हैं तो बच्चे की भाषा तथा संप्रेषण कौशल का विकास स्वाभाविक रूप से होता है। भाषा ही अधिगम का प्रमुख माध्यम है, अतः इसमें प्रवीणता बालक की शैक्षिक सफलता का आधार बनती है।

5. सामाजिक और नैतिक विकास (Social and Moral Development)

बालक समाज में रहकर सीखता है। सहयोग, सम्मान, अनुशासन, नेतृत्व, सहानुभूति, दायित्वबोध जैसे गुण विद्यालय में ही विकसित होते हैं। शिक्षक कक्षा में समूह कार्य, सामूहिक चर्चाएँ, परियोजनाएँ और सह-पाठन (Peer Learning) को प्रोत्साहित कर बच्चों के सामाजिक कौशल का विकास कर सकते हैं। नैतिक दृष्टि से भी यह अवस्था अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। कहानियों, नाटकों, उदाहरणों और जीवन की घटनाओं से नैतिक मूल्य सिखाए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, पंचतंत्र की कहानियाँ बच्चों को सत्य, साहस, बुद्धिमानी और करुणा जैसे मूल्य सहजता से सिखा देती हैं।

6. अनुकरण द्वारा अधिगम (Learning by Imitation)

बालक स्वभावतः अनुकरण करते हैं। शिक्षक का व्यवहार, भाषा, दृष्टिकोण, कार्य के प्रति निष्ठा, समय पालन, अनुशासन आदि अप्रत्यक्ष रूप से बालक सीखते हैं। यदि शिक्षक ईमानदारी, करुणा और कर्तव्यनिष्ठा का पालन करते हैं तो बच्चे भी उन्हें आदर्श मानकर वैसा ही व्यवहार अपनाते हैं। यही कारण है कि शिक्षक को सदैव आदर्श प्रस्तुत करने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि शिक्षक ही बालकों के पहले रोल मॉडल होते हैं।

7. सीखने के लिए सुरक्षित और प्रेरक वातावरण (Safe and Stimulating Environment)

बाल विकास यह स्पष्ट करता है कि भय, दंड, तिरस्कार और उपेक्षा का वातावरण बच्चे के सीखने और मानसिक विकास को बाधित करता है। कक्षा में प्रेमपूर्ण, उत्साहवर्धक, सुरक्षित और बालकेंद्रित वातावरण होने पर बच्चा अपने विचार बिना भय के व्यक्त करता है, प्रश्न पूछता है, गलतियों से सीखता है और रचनात्मक रूप से आगे बढ़ता है। शिक्षकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कक्षा में भेदभाव, मजाक उड़ाना या डराने जैसी कोई भी नकारात्मक स्थिति उत्पन्न न हो। साथ ही, शैक्षिक सामग्री, गतिविधियाँ, चार्ट, मॉडल, स्मार्ट क्लास आदि से वातावरण को प्रेरक बनाना चाहिए।

🔑 निष्कर्ष

अतः निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि बचपन और बाल विकास की गहन समझ ही प्रभावी शिक्षण और अधिगम की वास्तविक कुंजी है। यह न केवल शिक्षक को बच्चों के व्यवहार, आवश्यकताओं, क्षमताओं और सीमाओं को समझने में सहायता करता है बल्कि उसे एक संवेदनशील, जागरूक, उत्तरदायी और प्रेरक शिक्षक बनने का अवसर देता है। जब शिक्षण विकासात्मक सिद्धांतों पर आधारित होता है तो वह बच्चों के बौद्धिक विकास के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व, आत्मविश्वास और जीवन मूल्यों का भी निर्माण करता है, जो किसी भी शिक्षा प्रणाली का अंतिम उद्देश्य है।


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