Recommendations of the Indian Education Commission (1964-66) related to Inclusive Education समावेशी शिक्षा के संबंध में भारतीय शिक्षा आयोग (1964-66) की सिफारिशें
प्रस्तावना
भारतीय शिक्षा आयोग (1964-66), जिसे कोठारी आयोग के नाम से भी जाना जाता है, ने भारतीय शिक्षा प्रणाली का व्यापक मूल्यांकन कर यह पाया कि समाज के सभी वर्गों, विशेष रूप से कमजोर, पिछड़े, वंचित और दिव्यांग बच्चों के लिए शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध कराना अत्यंत आवश्यक है। आयोग का मानना था कि यदि देश को एक मजबूत, आत्मनिर्भर और सामाजिक रूप से न्यायपूर्ण राष्ट्र बनाना है तो शिक्षा को समावेशी बनाना अनिवार्य है। समावेशी शिक्षा के माध्यम से न केवल शैक्षिक असमानताओं को कम किया जा सकता है, बल्कि इससे समाज में समरसता, भाईचारे और समानता की भावना को भी प्रोत्साहन मिलेगा। इस दृष्टि से आयोग ने कई दूरदर्शी और क्रांतिकारी सिफारिशें प्रस्तुत कीं, जिनका उद्देश्य शिक्षा के क्षेत्र में समावेशिता को सुनिश्चित करना था।
1. शिक्षा का सार्वभौमिकरण
आयोग ने जोर देकर कहा कि सभी बच्चों के लिए आठवीं कक्षा तक नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए। उनका मानना था कि जब तक समाज के प्रत्येक बच्चे को विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने का अवसर नहीं मिलेगा, तब तक शिक्षा का असली उद्देश्य पूरा नहीं होगा। इसमें विशेष रूप से उन बच्चों पर ध्यान देने की आवश्यकता बताई गई जो सामाजिक, आर्थिक, या भौगोलिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं, जैसे – गरीब परिवारों के बच्चे, ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चे, अनुसूचित जाति व जनजाति के विद्यार्थी, लड़कियाँ और दिव्यांग बच्चे। आयोग ने कहा कि सार्वभौमिक शिक्षा का लक्ष्य तभी प्राप्त किया जा सकता है जब प्रत्येक बच्चा विद्यालय तक पहुँचे और वहाँ निरंतर बना रहे।
2. दिव्यांग विद्यार्थियों के लिए विशेष व्यवस्था
आयोग ने दिव्यांग बच्चों के शिक्षाधिकार को भी समान महत्व दिया। उसने सिफारिश की कि दिव्यांग विद्यार्थियों के लिए विशेष विद्यालयों की स्थापना की जाए जहाँ उनकी विशेष आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षण विधियों, उपकरणों और संसाधनों की व्यवस्था हो। साथ ही, यह भी कहा गया कि जहाँ संभव हो, उन्हें सामान्य विद्यालयों में अन्य बच्चों के साथ पढ़ने का अवसर प्रदान किया जाए। इसके लिए स्कूलों में आवश्यक शैक्षिक संसाधनों, प्रशिक्षित शिक्षकों और सहायक सेवाओं की व्यवस्था की जाए। आयोग का विचार था कि इससे दिव्यांग बच्चों में आत्मसम्मान, आत्मनिर्भरता और समाज के प्रति विश्वास की भावना विकसित होगी।
3. लचीलापन और भेदभाव रहित पाठ्यक्रम
आयोग ने पाठ्यक्रम में लचीलापन लाने की आवश्यकता पर बल दिया ताकि भिन्न-भिन्न क्षमताओं, रुचियों और पृष्ठभूमि के विद्यार्थी लाभान्वित हो सकें। उसने कहा कि पाठ्यक्रम का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जिसमें किसी भी प्रकार का भेदभाव न हो, और हर विद्यार्थी अपनी क्षमता के अनुसार आगे बढ़ सके। इसके अलावा मूल्यांकन प्रणाली में भी लचीलापन लाने की बात कही गई ताकि कमजोर या विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चे असफलता के भय से न डरें बल्कि प्रोत्साहित महसूस करें। इस प्रकार का पाठ्यक्रम और मूल्यांकन ही समावेशी शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य को पूरा कर सकता है।
4. शिक्षकों का प्रशिक्षण
आयोग ने शिक्षकों के प्रशिक्षण में समावेशी शिक्षा की अवधारणा और उसकी व्यवहारिक विधियों को अनिवार्य रूप से शामिल करने की सिफारिश की। उसका मत था कि जब तक शिक्षक स्वयं समावेशी दृष्टिकोण और विशेष शिक्षण तकनीकों से अवगत नहीं होंगे, तब तक वे सभी प्रकार के विद्यार्थियों को प्रभावी रूप से पढ़ा नहीं सकेंगे। विशेषकर दिव्यांग विद्यार्थियों, पिछड़े वर्गों और लड़कियों की आवश्यकताओं को समझने और उनके प्रति संवेदनशील दृष्टिकोण विकसित करने के लिए शिक्षकों को विशेष प्रशिक्षण देना आवश्यक है। इससे शिक्षकों में आत्मविश्वास बढ़ेगा और कक्षा का वातावरण भी समावेशी व सहयोगात्मक होगा।
5. सामाजिक समानता को बढ़ावा
आयोग ने स्पष्ट किया कि शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान और कौशल प्रदान करना ही नहीं है, बल्कि इससे सामाजिक समानता और राष्ट्रीय एकता को भी सुदृढ़ किया जाना चाहिए। इसके लिए स्कूलों में ऐसा वातावरण बनाना आवश्यक है जिसमें विभिन्न जातियों, धर्मों, भाषाओं, वर्गों और शारीरिक क्षमताओं के बच्चे मिल-जुलकर पढ़ें, एक-दूसरे का सम्मान करें और भेदभावमुक्त माहौल में सीख सकें। आयोग ने कहा कि विद्यालयों में सामाजिक समरसता, सहिष्णुता और सहयोग के मूल्य विकसित करना शिक्षा की प्राथमिक जिम्मेदारी होनी चाहिए।
6. आर्थिक सहायता और छात्रवृत्ति
आयोग ने यह भी सिफारिश की कि गरीब, पिछड़े, दिव्यांग और अन्य वंचित समूहों के बच्चों को पढ़ाई जारी रखने के लिए आर्थिक सहायता दी जाए। इसके अंतर्गत मुफ्त पाठ्यपुस्तकें, भोजन, वर्दी, परिवहन सुविधा, छात्रवृत्तियाँ तथा अन्य आवश्यक सहायता प्रदान करने की बात कही गई। आयोग का मत था कि जब तक आर्थिक बोझ कम नहीं किया जाएगा, तब तक शिक्षा का सार्वभौमिकरण और समावेशी शिक्षा का लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता। इस प्रकार की सहायता से न केवल नामांकन बढ़ेगा बल्कि बच्चों की उपस्थिति और शैक्षिक उपलब्धि में भी सुधार होगा।
7. समाज और समुदाय की भागीदारी
आयोग ने कहा कि विद्यालयों को स्थानीय समुदाय से जोड़ना चाहिए ताकि शिक्षा बच्चों के जीवन और परिवेश से जुड़ी रहे। इसके लिए ग्राम स्तर पर स्कूल प्रबंधन समितियों, माता-पिता और समुदाय के सदस्यों की भागीदारी को बढ़ावा देने की सिफारिश की गई। इससे विद्यालयों में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व की भावना विकसित होगी, और बच्चों की शिक्षा में समुदाय की भूमिका मजबूत होगी। आयोग का विश्वास था कि शिक्षा तभी प्रभावी हो सकती है जब वह समाज से कटकर न हो बल्कि उसकी आवश्यकताओं और समस्याओं का समाधान भी करे।
8. नैतिक और मूल्य शिक्षा
आयोग ने नैतिक और मूल्य शिक्षा को भी समावेशी शिक्षा का महत्वपूर्ण अंग माना। उसने कहा कि विद्यार्थियों में प्रारंभ से ही मानवता, सहिष्णुता, सहयोग, भाईचारे, सामाजिक न्याय और समानता जैसे मूल्यों का विकास किया जाए। इससे वे दूसरों की भिन्नता को स्वीकार करना, उनका सम्मान करना और समावेशी दृष्टिकोण अपनाना सीखेंगे। विद्यालयों में ऐसे वातावरण का निर्माण किया जाए जहाँ हर बच्चा सुरक्षित, सम्मानित और आत्मविश्वासी महसूस करे। यही समावेशी शिक्षा का वास्तविक आधार है।
निष्कर्ष
भारतीय शिक्षा आयोग (1964-66) की ये सिफारिशें आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी उस समय थीं। आयोग ने शिक्षा को सभी के लिए समान, सुलभ, न्यायपूर्ण और गुणवत्तापूर्ण बनाने का जो सपना देखा था, वह समावेशी शिक्षा के माध्यम से ही साकार हो सकता है। उसकी सिफारिशें हमें यह सिखाती हैं कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा देना न केवल उसका अधिकार है, बल्कि यह हमारे राष्ट्र निर्माण और लोकतांत्रिक मूल्यों की भी आधारशिला है। आज की शिक्षा नीति और समावेशी शिक्षा अभियान इन्हीं सिफारिशों की भावना को आगे बढ़ा रहे हैं। हमें इन पर दृढ़ता से अमल कर एक समतामूलक और समावेशी समाज के निर्माण की दिशा में कार्य करना चाहिए।
Read more....