Evolution of the Parliamentary System: From Monarchy to Democracy संसदीय प्रणाली का विकास: राजतंत्र से लोकतंत्र
Introduction परिचय:
संसदीय प्रणाली, जिसे हम आज पहचानते हैं, एक लंबी और जटिल ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है, जो सदियों के राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों से आकार ली है। इसकी शुरुआत राजाओं द्वारा उच्च पदस्थ व्यक्तियों और धार्मिक नेताओं से परामर्श करने की आवश्यकता के रूप में हुई थी, लेकिन धीरे-धीरे यह एक ऐसी प्रणाली में परिवर्तित हो गई, जिसमें निर्वाचित प्रतिनिधियों को विधायी अधिकार प्राप्त हुआ। इस परिवर्तन को राजनीतिक सत्ता के लिए संघर्ष, उत्तरदायित्व की मांग और विभिन्न संस्थानों के बीच अधिकार संतुलन की आवश्यकता ने प्रेरित किया। समय के साथ, संसदीय व्यवस्थाएँ सलाहकार निकायों से विकसित होकर औपचारिक विधायी संस्थानों के रूप में उभरीं, जो कार्यपालिका की निगरानी और नियंत्रण करने लगे। यह लेख संसदीय शासन की यात्रा को दर्शाता है, उन प्रमुख घटनाओं का विश्लेषण करता है जिन्होंने निरंकुश राजतंत्र से प्रतिनिधि लोकतंत्र की ओर परिवर्तन को संभव बनाया और आधुनिक संसदीय संस्थाओं की स्थापना में योगदान दिया।
इस प्रणाली के विकास की जड़ें प्राचीन सभ्यताओं में देखी जा सकती हैं, जहाँ शासक अपने शासन को वैधता प्रदान करने के लिए प्रमुख व्यक्तियों से सलाह लेते थे। मध्यकालीन यूरोप में, विशेष रूप से इंग्लैंड में, संसद की अवधारणा धीरे-धीरे विकसित हुई, जहाँ राजा को कराधान और अन्य नीतिगत निर्णयों के लिए सामंतों और चर्च के नेताओं की सहमति की आवश्यकता होती थी। 13वीं शताब्दी में मैग्ना कार्टा (1215) जैसे दस्तावेजों ने शाही सत्ता पर पहली बार सीमाएँ लगाने का प्रयास किया, जिससे आगे चलकर संसदीय संस्थानों की नींव पड़ी। 17वीं शताब्दी में इंग्लैंड की गौरवशाली क्रांति (1688) ने संवैधानिक राजतंत्र की स्थापना की, जहाँ संसद को कार्यपालिका पर प्रमुख नियंत्रण दिया गया।
संसदीय प्रणाली के विकास का प्रभाव केवल यूरोप तक सीमित नहीं रहा, बल्कि अन्य देशों में भी इसने लोकतांत्रिक शासन के लिए मार्ग प्रशस्त किया। 19वीं और 20वीं शताब्दियों में कई देशों ने इसे अपनाया, जिससे शासन में जनप्रतिनिधित्व की भूमिका बढ़ी। भारत, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, और कई अन्य राष्ट्रों में ब्रिटिश संसदीय मॉडल को आधार बनाकर लोकतांत्रिक संस्थाएँ विकसित की गईं। आज, संसदीय प्रणाली वैश्विक स्तर पर एक प्रभावी शासन प्रणाली के रूप में देखी जाती है, जो नीति-निर्माण में पारदर्शिता, उत्तरदायित्व और जनहित को प्राथमिकता देती है। इस ऐतिहासिक यात्रा ने शासन की एक ऐसी प्रणाली विकसित की, जिसमें जनता की भागीदारी, संस्थागत संतुलन और विधायी स्वतंत्रता सुनिश्चित की जा सके।
The Origins: Early Forms of
Parliamentary Governance
उत्पत्ति: संसदीय शासन के प्रारंभिक रूप
Medieval Councils and Assemblies
मध्यकालीन परिषदें और सभाएँ:
संसदीय शासन की नींव मध्यकालीन यूरोप में देखी जा सकती है, जहाँ शासक अपने शासन से जुड़े महत्वपूर्ण निर्णय लेने के लिए उच्च पदस्थ व्यक्तियों, धर्मगुरुओं और कभी-कभी प्रभावशाली सामान्य नागरिकों की परिषदों से परामर्श करते थे। ये प्रारंभिक सभाएँ कराधान, सैन्य अभियानों और कानूनी मामलों से संबंधित फैसलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। इंग्लैंड में, नॉर्मन विजय (1066) से पहले एंग्लो-सैक्सन राजाओं को विटेनगेमोट नामक परिषद की सलाह मिलती थी, जिसमें प्रमुख सामंत और धार्मिक नेता शामिल होते थे। इस प्रणाली ने सुनिश्चित किया कि राजा अपने निर्णय अकेले न लें, जिससे शासन में सामूहिक भागीदारी की अवधारणा विकसित हुई।
इस तरह की परामर्शदात्री परिषदें पूरे यूरोप में उभरने लगीं। स्पेन में कोर्टेस एक ऐसी सभा थी, जिसमें कुलीन वर्ग, धर्मगुरु और नगरवासियों का प्रतिनिधित्व होता था, और यह शाही नीतियों व वित्तीय निर्णयों को प्रभावित करती थी। फ्रांस में एस्टेट्स-जनरल नामक सभा का विकास हुआ, जिसमें तीन प्रमुख वर्ग—पादरी, सामंत, और आम लोग—शामिल होते थे और शासन से जुड़ी नीतियों तथा जनसामान्य की शिकायतों पर चर्चा करते थे। यद्यपि ये मध्यकालीन सभाएँ मुख्य रूप से सलाहकार निकाय थीं, लेकिन इन्होंने भविष्य में प्रतिनिधि संस्थाओं के निर्माण की नींव रखी। धीरे-धीरे, ये व्यवस्थाएँ अधिक संगठित विधायी संस्थानों में बदल गईं, जो राजशाही के अधिकारों को संतुलित करते हुए सामूहिक निर्णय-प्रक्रिया की ओर अग्रसर हुईं।
The Magna Carta (1215): A
Turning Point
मैग्ना कार्टा (1215): एक महत्वपूर्ण मोड़:
1215 में मैग्नाकार्टा पर हस्ताक्षर संसदीय शासन के विकास में एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसने राजशाही की शक्ति को सीमित करने की दिशा में अहम मिसाल कायम की। विद्रोही सामंतों द्वारा राजा जॉन को इसे स्वीकार करने के लिए मजबूर किया गया था, और इसका उद्देश्य राजा की मनमानी कर वसूली और एकतरफा निर्णय लेने की शक्ति को सीमित करना था। हालांकि यह मूल रूप से सामंतों के हितों की रक्षा के लिए बनाया गया था, लेकिन इस दस्तावेज़ ने उत्तरदायित्व और कानून के शासन की व्यापक अवधारणाओं को जन्म दिया, जिसने आगे चलकर संवैधानिक शासन की नींव रखने में योगदान दिया।
इस चार्टर के सबसे महत्वपूर्ण प्रावधानों में से एक यह था कि राजा नए कर बिना सामंतों की परिषद की स्वीकृति के नहीं लगा सकता था। यह सिद्धांत भविष्य में प्रतिनिधि शासन की अवधारणा का आधार बना। इसके अलावा, इसने निष्पक्ष न्याय और विधिसम्मत प्रक्रिया के अधिकार को मान्यता दी, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि राजा भी कानून से ऊपर नहीं है। समय के साथ, इन सिद्धांतों ने अधिक संगठित संसदीय संस्थाओं का रूप लिया, जिनमें प्रतिनिधि निकायों को कराधान, कानून निर्माण और शासन पर अधिक प्रभाव प्राप्त हुआ। मैग्नाकार्टा की विरासत केवल इंग्लैंड तक सीमित नहीं रही, बल्कि इसने विभिन्न देशों में लोकतांत्रिक आंदोलनों और संवैधानिक ढाँचों को प्रेरित किया, जिससे आधुनिक संसदीय प्रणालियाँ विकसित हुईं, जो शक्ति संतुलन और नियंत्रण के सिद्धांतों पर आधारित हैं।
Rise of Representative Assemblies
प्रतिनिधि सभाओं का उदय:
The Birth of the English Parliament
(13th–17th Century)
अंग्रेजी संसद का उदय (13वीं–17वीं शताब्दी)
अंग्रेजी संसद कई शताब्दियों में विकसित हुई, एक सलाहकार निकाय से बदलकर एक संगठित विधायी संस्था बन गई, जिसकी शक्ति लगातार बढ़ती गई। 14वीं शताब्दी तक, यह द्विसदनीय प्रणाली के रूप में स्थापित हो चुकी थी, जिसमें दो अलग-अलग सदन शामिल थे:
House of Lords हाउस ऑफ लॉर्ड्स:
कुलीन वर्ग और धर्मगुरुओं से मिलकर बना यह सदन सामंतवादी वर्ग और धार्मिक संस्थाओं के हितों का प्रतिनिधित्व करता था।
House of Commons हाउस ऑफ कॉमन्स:
नगरों और काउंटियों से चुने गए प्रतिनिधियों से मिलकर बना यह सदन उभरते मध्य वर्ग और स्थानीय प्रशासनिक संरचनाओं को प्रतिनिधित्व प्रदान करता था।
जैसे-जैसे संसद का प्रभाव बढ़ा, वैसे-वैसे राजशाही और विधायी निकाय के बीच संघर्ष भी तीव्र होता गया। इंग्लैंड का गृहयुद्ध (1642–1651) इस संघर्ष का एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जो कराधान, धार्मिक अधिकार और राजा की शक्तियों की सीमा को लेकर हुए विवादों से उत्पन्न हुआ था। इस संघर्ष का परिणाम राजा चार्ल्स प्रथम के निष्पादन और ओलिवर क्रॉमवेल के नेतृत्व में कॉमनवेल्थ की स्थापना के रूप में सामने आया, जिससे कुछ समय के लिए राजतंत्र समाप्त हो गया।
हालांकि, क्रॉमवेल की मृत्यु के बाद 1660 में राजा चार्ल्स द्वितीय के शासन के साथ राजतंत्र बहाल कर दिया गया, लेकिन इस दौरान सत्ता संतुलन काफी हद तक बदल चुका था। अंततः, राजा और संसद के बीच तनाव 1688 की गौरवशाली क्रांति (Glorious Revolution) में चरम पर पहुँच गया, जब राजा जेम्स द्वितीय को सत्ता से हटा दिया गया और उनके स्थान पर विलियम तृतीय और मैरी द्वितीय को शासन सौंपा गया। उन्होंने संसद द्वारा निर्धारित शर्तों को स्वीकार किया, जिसके परिणामस्वरूप 1689 का बिल ऑफ राइट्स पारित किया गया। यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज था, जिसने राजशाही की शक्तियों को औपचारिक रूप से सीमित किया, संसदीय संप्रभुता को स्थापित किया और लोकतांत्रिक सिद्धांतों को मजबूत किया। इसमें संसद में स्वतंत्र भाषण, नियमित चुनाव और विधायी मामलों में राजा के हस्तक्षेप पर प्रतिबंध जैसे महत्वपूर्ण प्रावधान शामिल थे।
इस अवधि में इंग्लैंड की संसद में हुए परिवर्तनों ने संवैधानिक शासन की एक मिसाल कायम की, जिसने विश्वभर की राजनीतिक प्रणालियों को प्रभावित किया और आधुनिक प्रतिनिधि लोकतंत्र की नींव रखी।
Parliamentary Developments
in Europe
यूरोप में संसदीय विकास:
सम्पूर्ण यूरोप में, संसदीय शासन की दिशा में समान आंदोलन उभरने लगे, जो अक्सर अधिक राजनीतिक प्रतिनिधित्व और राजशाही की शक्ति पर प्रतिबंध लगाने की मांग से प्रेरित थे। इस परिवर्तन की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक फ्रांसीसी क्रांति (1789) थी, जिसने निरंकुश राजतंत्र को उखाड़ फेंका और लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर आधारित सरकार की स्थापना की। इस क्रांति ने जनसत्ता, शक्तियों के पृथक्करण और व्यक्तिगत अधिकारों जैसी अवधारणाओं को प्रस्तुत किया, जिससे फ्रांस में आधुनिक संवैधानिक शासन की नींव पड़ी और पूरे महाद्वीप में राजनीतिक आंदोलनों को प्रेरणा मिली।
स्वीडन में, 1809 के संविधान को अपनाने से निरंकुश शासन से संवैधानिक राजतंत्र की ओर एक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ, जहां कार्यकारी शक्ति को विधायी अधिकार से अलग कर दिया गया। इस परिवर्तन ने एक ऐसी प्रणाली बनाई जिसमें रिक्सडाग (Riksdag) नामक संसदीय निकाय शासन में केंद्रीय भूमिका निभाने लगा, जिससे शासक राजशाही की अधिक जवाबदेही सुनिश्चित हुई।
इसी तरह, नॉर्वे ने 1814 में नॉर्वेजियन संविधान का मसौदा तैयार करके अपना स्वयं का संसदीय ढांचा स्थापित किया, जिसने स्टॉर्टिंग (Storting) नामक एक निर्वाचित विधायिका की स्थापना की। इस प्रणाली ने संसद को महत्वपूर्ण अधिकार प्रदान किए, जिससे नॉर्वे उन शुरुआती देशों में से एक बन गया जिसने एक लोकतांत्रिक मॉडल अपनाया, जिसमें विधायी शक्ति निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथों में दी गई।
अन्य यूरोपीय राष्ट्रों ने भी इसी राह का अनुसरण किया, धीरे-धीरे सम्राटों के प्रभाव को कम किया और प्रतिनिधि संस्थानों को सशक्त बनाया। बेल्जियम (1831) और डेनमार्क (1849) में नए संविधान ने संसदीय लोकतंत्र की नींव रखी। यहां तक कि उन देशों में भी, जहां सम्राट औपचारिक रूप से बने रहे, वास्तविक सत्ता तेजी से निर्वाचित सरकारों के हाथों में चली गई, जिससे यूरोप भर में संवैधानिक शासन की व्यापक प्रवृत्ति परिलक्षित हुई। इन विकासक्रमों ने आधुनिक संसदीय लोकतंत्रों के उदय में योगदान दिया, जो वंशानुगत शासन से प्रतिनिधित्व, जवाबदेही और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने वाले कानूनी ढांचे पर आधारित शासन प्रणाली की ओर बदलाव को दर्शाता है।
The Expansion of Parliamentary
Democracy
संसदीय लोकतंत्र का विस्तार:
Industrial Revolution and Electoral Reforms
औद्योगिक क्रांति और निर्वाचन सुधार:
18वीं से 19वीं शताब्दी के दौरान हुई औद्योगिक क्रांति ने आर्थिक और सामाजिक संरचनाओं में व्यापक बदलाव लाए। इस क्रांति के परिणामस्वरूप शहरीकरण तेजी से बढ़ा, उद्योगों का विस्तार हुआ, और एक सशक्त मध्यवर्ग उभरकर सामने आया। जैसे-जैसे शहर विकसित हुए और औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि हुई, पारंपरिक राजनीतिक ढांचे, जो मुख्य रूप से सामंती वर्ग और ज़मींदारों के पक्ष में झुके हुए थे, पर नए सामाजिक वर्गों को प्रतिनिधित्व देने का दबाव बढ़ने लगा। आर्थिक शक्ति के नए वितरण ने राजनीति में व्यापक भागीदारी की आवश्यकता को उजागर किया, विशेष रूप से मध्यवर्ग और श्रमिक वर्ग के लिए, जो औद्योगिक और वाणिज्यिक प्रगति में अहम भूमिका निभा रहे थे।
ब्रिटेन में इस बदलाव को स्वीकार करते हुए कई निर्वाचन सुधार लागू किए गए, जिन्हें सुधार अधिनियम (Reform Acts) के रूप में जाना जाता है। 1832 के प्रथम सुधार अधिनियम ने संसदीय सीटों के पुनर्वितरण की प्रक्रिया शुरू की, ताकि शहरीकरण के कारण हुए जनसंख्या परिवर्तनों को ध्यान में रखा जा सके। इस अधिनियम के माध्यम से मध्यम वर्ग के अधिक लोगों को मतदान का अधिकार मिला। इसके बाद, 1867 में द्वितीय सुधार अधिनियम लाया गया, जिसने शहरी क्षेत्रों में रहने वाले कई श्रमिक वर्ग के पुरुषों को भी मतदान का अधिकार दिया। 1884 के तृतीय सुधार अधिनियम के तहत यह अधिकार ग्रामीण श्रमिकों तक भी विस्तारित किया गया, जिससे लोकतांत्रिक प्रणाली को और अधिक समावेशी बनाया गया।
इन सुधारों ने न केवल राजनीतिक भागीदारी को बढ़ाया, बल्कि प्रतिनिधि लोकतंत्र की अवधारणा को भी मजबूत किया, जिससे सरकारें समाज के व्यापक तबके के हितों को दर्शाने लगीं। औद्योगीकरण और सामाजिक आंदोलनों के प्रभाव से अन्य यूरोपीय देशों में भी इसी तरह के निर्वाचन सुधार लागू किए गए। समय के साथ, इन सुधारों ने सार्वभौमिक मताधिकार और आधुनिक लोकतांत्रिक संस्थाओं की नींव रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
The Spread of the Parliamentary System Globally
वैश्विक स्तर पर संसदीय प्रणाली का विस्तार:
यूरोपीय शक्तियों ने जब उपनिवेशों का विस्तार किया, तो उन्होंने अपने राजनीतिक ढांचे के अनुरूप शासन प्रणाली स्थापित की। विशेष रूप से ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को कई क्षेत्रों में अपनाया गया, जिससे प्रशासनिक और राजनीतिक व्यवस्था प्रभावित हुई। यह प्रणाली प्रतिनिधि शासन, विधायी बहस और जवाबदेही पर आधारित थी, जिसने कई देशों में लोकतांत्रिक संस्थाओं की नींव रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, भारत और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों ने औपनिवेशिक शासन के दौरान संसदीय प्रणाली को अपनाया और धीरे-धीरे अपनी स्वतंत्र विधायी संस्थाओं का विकास किया। कनाडा और ऑस्ट्रेलिया, जो ब्रिटिश कॉमनवेल्थ का हिस्सा हैं, ने संवैधानिक राजतंत्र के अंतर्गत संसदीय संस्थाओं की स्थापना की, जिससे वे ब्रिटिश क्राउन से जुड़े रहते हुए भी विधायी स्वायत्तता प्राप्त कर सके। इसी प्रकार, भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान प्रतिनिधि संस्थाओं की शुरुआत हुई, जो 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पूर्ण संसदीय लोकतंत्र की स्थापना में परिणत हुई। इसका ढांचा वेस्टमिंस्टर प्रणाली पर आधारित रहा। दक्षिण अफ्रीका में भी उपनिवेशवाद के दौरान संसदीय शासन प्रणाली विकसित हुई, जो समय के साथ विभिन्न राजनीतिक परिवर्तनों से गुजरी। अंततः, यह प्रणाली रंगभेद के अंत के बाद लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली के रूप में स्थापित हुई। एशिया, अफ्रीका और कैरेबियाई क्षेत्र के कई अन्य देशों ने भी संसदीय प्रणाली के विभिन्न रूपों को अपनाया, जिसे उन्होंने अपनी राजनीतिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक आवश्यकताओं के अनुसार ढाला।स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भी, कई पूर्व उपनिवेशों ने संसदीय लोकतंत्र को बनाए रखा और इसे अपने अनुकूल संशोधित किया। यह इस प्रणाली की लचीलापन और प्रभावशीलता को दर्शाता है, जो विभिन्न समाजों में प्रतिनिधित्व, विधायी जवाबदेही और लोकतांत्रिक भागीदारी को बढ़ावा देने में सहायक रही है।
Modern Parliamentary Democracies
आधुनिक संसदीय लोकतंत्र:
Key Features of the
Parliamentary System
संसदीय प्रणाली की प्रमुख विशेषताएँ:
वर्तमान में संसदीय प्रणालियाँ निम्नलिखित विशेषताओं द्वारा परिभाषित की जाती हैं:
1. कार्यकारी की विधायिका के प्रति जवाबदेही – प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल को संसदीय विश्वास बनाए रखना आवश्यक होता है।
2. एकसदनीय या द्विसदनीय विधायिका – जैसे, यूनाइटेड किंगडम में हाउस ऑफ कॉमन्स और हाउस ऑफ लॉर्ड्स; भारत में लोकसभा और राज्यसभा।
3. नियमित चुनाव – लोकतांत्रिक वैधता सुनिश्चित करने के लिए समय-समय पर चुनाव कराए जाते हैं।
4. विपक्षी दलों की भूमिका – सरकार की शक्ति पर नियंत्रण रखने और संतुलन बनाए रखने में विपक्ष की अहम भूमिका होती है।
Challenges and Reforms
चुनौतियाँ और सुधार:
संसदीय प्रणाली ने वैश्विक स्तर पर लोकतांत्रिक शासन की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन इसकी कार्यक्षमता और विश्वसनीयता को प्रभावित करने वाली कई चुनौतियाँ भी हैं। इनमें से एक प्रमुख चिंता राजनीतिक अस्थिरता है, विशेष रूप से उन देशों में जहाँ गठबंधन सरकारें आम होती हैं। जब किसी एकल दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता, तो स्थायी सरकार बनाने के लिए कई दलों के बीच गठबंधन करना आवश्यक हो जाता है, जिससे नीतिगत मतभेद, विधायी गतिरोध और यहाँ तक कि समय से पहले चुनाव होने की संभावना बढ़ जाती है। कुछ मामलों में, गठबंधन की राजनीति ऐसे समझौतों को जन्म देती है, जो प्रभावी शासन की बजाय राजनीतिक अस्तित्व को प्राथमिकता देते हैं, जिससे दीर्घकालिक नीति-निर्धारण कमजोर हो जाता है।
एक और महत्वपूर्ण समस्या भ्रष्टाचार है, जो संसदीय संस्थानों में जनता के विश्वास को कमजोर कर सकता है। सत्ता के दुरुपयोग, अनैतिक पैरवी और निर्वाचित प्रतिनिधियों से जुड़े वित्तीय घोटाले लोकतांत्रिक प्रणाली में भरोसे को कम करते हैं और प्रभावी नीति निर्माण में बाधाएँ उत्पन्न करते हैं। इसके अलावा, संसदीय बहसों में आई गिरावट ने विधायी चर्चाओं की गुणवत्ता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। कुछ देशों में संसदीय सत्रों में सुचारु चर्चा के बजाय राजनीतिक टकराव अधिक देखने को मिलते हैं, जिससे शासन और जनकल्याण से जुड़े विषयों पर सार्थक संवाद प्रभावित होता है। इस तरह, रचनात्मक बहस का क्षय विधायिका की विचार-विमर्श और निर्णय लेने की भूमिका को कमजोर कर देता है।
कार्यकारी अतिक्रमण एक और गंभीर चुनौती है, क्योंकि सशक्त बहुमत या प्रभावशाली नेतृत्व वाली सरकारें कभी-कभी संसदीय निगरानी को दरकिनार कर देती हैं। कुछ मामलों में, कार्यकारी शाखा संसदीय प्रक्रियाओं को नजरअंदाज कर देती है, जिससे जाँच और संतुलन की व्यवस्था कमजोर हो जाती है और सत्ता कुछ लोगों के हाथों में केंद्रित हो जाती है। यह प्रवृत्ति लोकतांत्रिक सिद्धांतों के लिए खतरा बन सकती है, क्योंकि यह नीतियों और कानूनों के निर्माण में निर्वाचित प्रतिनिधियों की भूमिका को सीमित कर देती है।
इन समस्याओं के समाधान के लिए कई देश संस्थागत सुधारों को अपना रहे हैं, जिनका उद्देश्य शासन में पारदर्शिता, जवाबदेही और जनभागीदारी को मजबूत करना है। भ्रष्टाचार विरोधी कड़े कानून, संसदीय नैतिकता से जुड़े नियमों को सुदृढ़ करना और नागरिकों की भागीदारी के लिए डिजिटल प्लेटफार्मों की स्थापना जैसे उपाय किए जा रहे हैं, ताकि जनता की लोकतांत्रिक प्रणाली में आस्था बहाल की जा सके। निष्पक्ष राजनीतिक प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित करने और निर्णय लेने की प्रक्रिया में अनुचित प्रभाव को कम करने के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व और चुनावी वित्तपोषण में बदलाव जैसी चुनावी सुधार योजनाएँ भी विचाराधीन हैं।
इन चुनौतियों का समाधान सार्थक सुधारों के माध्यम से किया जाए तो संसदीय लोकतंत्र अपने समाज की बदलती आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ-साथ प्रतिनिधित्व, जवाबदेही और लोकतांत्रिक शासन के मूल सिद्धांतों को बनाए रख सकता है।
Conclusion निष्कर्ष:
राजतंत्र से लोकतंत्र की ओर परिवर्तन, संसदीय प्रणाली के निर्माण की दिशा में एक धीमी लेकिन गहरी राजनीतिक प्रक्रिया रही है। यह प्रणाली मध्ययुगीन सलाहकार परिषदों से विकसित होकर एक संगठित शासन ढांचे के रूप में स्थापित हुई, जो प्रतिनिधित्व, जवाबदेही और शक्तियों के विभाजन को सुनिश्चित करती है। समय के साथ, यह व्यवस्था सामाजिक परिवर्तनों के अनुरूप ढलती रही है, जहां सत्ता के संतुलन के साथ-साथ व्यक्तिगत और सामूहिक अधिकारों की सुरक्षा को भी प्राथमिकता दी गई। हालांकि, इसे राजनीतिक अस्थिरता, सत्ता संघर्ष और नीतिगत गतिरोध जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, फिर भी संसदीय लोकतंत्र आज भी शासन की सबसे प्रभावी और व्यापक रूप से अपनाई जाने वाली प्रणालियों में से एक है। इसकी लचीलापन और जन आवश्यकताओं के प्रति उत्तरदायी दृष्टिकोण इसे आधुनिक समाज में प्रासंगिक बनाए रखता है, जिससे पारदर्शिता, जनभागीदारी और स्थिरता को बढ़ावा मिलता है।
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