Government of India Act, 1935 भारत शासन अधिनियम, 1935
प्रस्तावना (Introduction):
भारत शासन अधिनियम, 1935, ब्रिटिश भारत में अब तक का सबसे व्यापक और विस्तृत संवैधानिक सुधार था, जिसे ब्रिटिश संसद ने पारित किया और 1 अप्रैल 1937 से लागू किया। इस अधिनियम का उद्देश्य भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था को अधिक संगठित बनाना और भारतीयों को सीमित स्तर पर स्वायत्तता प्रदान करना था। हालांकि, इस सुधार के बावजूद ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण बना रहा, लेकिन इसने भारत में संवैधानिक विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण आधारशिला रखी।
इस अधिनियम के तहत भारत में संघीय शासन प्रणाली की नींव रखी गई, जो केंद्र और प्रांतों के बीच शक्तियों के विभाजन पर आधारित थी। यह अधिनियम प्रांतीय स्वायत्तता की ओर एक महत्वपूर्ण कदम था, जिसके तहत प्रांतीय सरकारों को अधिक स्वतंत्रता दी गई, लेकिन गवर्नर को विशेष अधिकार प्राप्त रहे, जिससे ब्रिटिश शासन का प्रभाव बना रहा। इसके अतिरिक्त, इसमें द्विसदनीय विधानमंडल की व्यवस्था की गई, जिसमें एक उच्च सदन (परिषद) और एक निम्न सदन (विधान सभा) शामिल थे।
गवर्नर जनरल को व्यापक कार्यकारी शक्तियाँ दी गईं, जिससे वे महत्वपूर्ण नीतिगत निर्णयों पर नियंत्रण बनाए रख सकते थे। न्यायिक सुधारों के अंतर्गत संघीय न्यायालय की स्थापना की गई, जो आगे चलकर भारत के सर्वोच्च न्यायालय का आधार बना। हालाँकि इस अधिनियम ने पूर्ण लोकतांत्रिक प्रणाली की स्थापना नहीं की, फिर भी इसने भारत में भविष्य के संवैधानिक विकास के लिए एक मजबूत आधार प्रदान किया। आगे चलकर, भारतीय संविधान निर्माताओं ने इस अधिनियम के कई प्रावधानों को अपनाया और उन्हें भारत के स्वतंत्र संविधान में समाहित किया।
मुख्य प्रावधान (Main Provisions):
1. भारतीय संघ की स्थापना (Establishment of the Indian Federation):
भारत शासन अधिनियम, 1935 के तहत, ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों को एकीकृत करके एक "भारतीय संघ" (Indian Federation) की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया। इसका उद्देश्य पूरे भारत के लिए एक एकीकृत प्रशासनिक ढांचा तैयार करना था, जिसमें ब्रिटिश प्रांतों और देशी रियासतों को समान रूप से शामिल किया जाए। यह संघीय प्रणाली भारत के प्रशासन को अधिक संगठित और प्रभावी बनाने के प्रयासों का हिस्सा थी, जिससे केंद्र और प्रांतों के बीच शक्तियों का उचित वितरण किया जा सके।
हालाँकि, इस प्रस्ताव की सफलता पूरी तरह से देशी रियासतों की स्वीकृति पर निर्भर थी, लेकिन अधिकांश रियासतों ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया। उनकी स्वायत्तता को बनाए रखने की इच्छा और ब्रिटिश सरकार के साथ उनकी अलग-अलग संधियाँ संघ की स्थापना में सबसे बड़ी बाधा बनीं। परिणामस्वरूप, यह संघ वास्तविक रूप में अस्तित्व में नहीं आ सका और भारत के प्रशासनिक ढांचे में अपेक्षित परिवर्तन पूरी तरह लागू नहीं हो पाए।
इसके बावजूद, यह प्रस्ताव भारत में संवैधानिक सुधारों की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। यह भविष्य की संघीय संरचना की नींव रखता है, जिसका प्रभाव भारत के स्वतंत्रता पश्चात संविधान निर्माण पर भी पड़ा। भारतीय संविधान निर्माताओं ने अधिनियम, 1935 के कई प्रावधानों को संशोधित रूप में अपनाया, जिससे भारत में लोकतांत्रिक और संघीय शासन प्रणाली का विकास संभव हो सका।
2. द्वैध शासन का अंत और प्रांतीय स्वायत्तता (End of Diarchy and Provincial Autonomy):
भारत शासन अधिनियम, 1935 के तहत प्रांतीय स्तर पर द्वैध शासन (Diarchy) की प्रणाली को समाप्त कर दिया गया और प्रांतों को अधिक स्वायत्तता प्रदान की गई। इससे पहले, 1919 के अधिनियम के तहत प्रांतों में शासन दो भागों—आरक्षित और हस्तांतरित विषयों—में विभाजित था, जिसमें महत्वपूर्ण विषयों पर नियंत्रण ब्रिटिश अधिकारियों के पास रहता था। 1935 के अधिनियम ने इस व्यवस्था को समाप्त करते हुए प्रांतीय प्रशासन को अधिक स्वतंत्रता प्रदान की।
इस नए प्रावधान के तहत, भारतीय मंत्रियों को शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, सार्वजनिक कार्य, स्थानीय स्वशासन और अन्य लोक कल्याणकारी क्षेत्रों की जिम्मेदारी सौंपी गई, जिससे वे प्रशासनिक निर्णय लेने में सक्षम हो सके। हालाँकि, गवर्नर को अभी भी व्यापक विशेषाधिकार प्राप्त थे, जिससे वे आवश्यकतानुसार किसी भी निर्णय को रोक सकते थे या ब्रिटिश सरकार के हितों की रक्षा कर सकते थे। यह सुनिश्चित करने के लिए कि ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण बना रहे, गवर्नरों को "विशेष शक्तियाँ" दी गईं, जिनका उपयोग वे किसी भी संवैधानिक संकट या असहमति की स्थिति में कर सकते थे।
इस बदलाव ने भारतीय नेताओं को प्रशासनिक अनुभव प्राप्त करने का अवसर दिया, जिससे वे शासन की व्यावहारिक चुनौतियों से परिचित हो सके। प्रांतीय स्वायत्तता की इस प्रक्रिया ने भारतीय राजनीति में स्थानीय नेतृत्व को उभरने का मौका दिया और स्वशासन की दिशा में एक महत्वपूर्ण आधारशिला रखी। यह अधिनियम भारत में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की ओर बढ़ाया गया एक अहम कदम था, जिसने आगे चलकर स्वतंत्र भारत के संवैधानिक ढांचे को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
3. केंद्र में द्वैध शासन की पुनर्स्थापना (Reintroduction of Diarchy at the Centre):
जहाँ अधिनियम, 1935 के तहत प्रांतीय स्तर पर द्वैध शासन (Diarchy) को समाप्त कर दिया गया, वहीं केंद्र में इसे पुनः लागू किया गया। इसका तात्पर्य यह था कि केंद्र सरकार के कुछ विभाग निर्वाचित भारतीय प्रतिनिधियों को सौंपे गए, जबकि अन्य महत्वपूर्ण विषयों पर वायसराय और ब्रिटिश सरकार का सीधा नियंत्रण बना रहा। इस व्यवस्था के तहत रक्षा, विदेशी मामले, वित्त और कानून-व्यवस्था जैसे महत्वपूर्ण विभागों को वायसराय के अधीन रखा गया, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि ब्रिटिश प्रशासन की सर्वोच्चता बनी रहे और भारतीय नेताओं को केंद्र में कोई वास्तविक सत्ता न मिले।
हालाँकि, निर्वाचित भारतीय प्रतिनिधियों को कुछ विषयों पर नीति निर्धारण का अधिकार दिया गया, लेकिन उनकी शक्तियाँ सीमित थीं और अंतिम निर्णय लेने का अधिकार ब्रिटिश सरकार या वायसराय के पास ही था। इस कारण भारतीय नेताओं को प्रशासन में भागीदारी का अवसर तो मिला, लेकिन वे पूरी तरह स्वतंत्र निर्णय नहीं ले सकते थे। यह व्यवस्था भारतीयों को सीमित राजनीतिक अधिकार देने का प्रयास थी, जिससे उन्हें प्रशासन का अनुभव मिले, लेकिन ब्रिटिश शासन की सर्वोच्चता भी बनी रहे।
यह प्रावधान भारतीय नेतृत्व को सरकार के संचालन की प्रक्रिया से परिचित कराने का एक माध्यम था, लेकिन इससे भारत में पूर्ण स्वशासन स्थापित नहीं हो सका। ब्रिटिश सरकार का उद्देश्य प्रशासन में भारतीयों की भागीदारी को नियंत्रित करना था, जिससे उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को सीमित रखा जा सके। इस प्रकार, केंद्र में द्वैध शासन की पुनर्स्थापना भारतीय स्वायत्तता की दिशा में एक अधूरी पहल थी, जिसने स्वतंत्रता संग्राम की माँग को और अधिक मजबूत किया।
4. द्विसदनीय विधानमंडल की स्थापना (Establishment of Bicameral Legislature):
इस अधिनियम के तहत भारत में द्विसदनीय (दो सदनों वाली) केंद्रीय विधानमंडल की स्थापना की गई, जिसमें दो प्रमुख इकाइयाँ थीं—परिषद (Council of States) और विधान सभा (Legislative Assembly)। परिषद के सदस्य आंशिक रूप से निर्वाचित और आंशिक रूप से नामांकित होते थे, जिससे ब्रिटिश सरकार को नामांकन के माध्यम से अपनी पकड़ बनाए रखने का अवसर मिलता था। वहीं, विधान सभा के सदस्य प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार से निर्वाचित होते थे, जिससे जनता की भागीदारी बढ़ाने का प्रयास किया गया था।
हालाँकि, इस प्रणाली को अधिक लोकतांत्रिक दिखाने की कोशिश की गई, लेकिन वास्तविक सत्ता पर ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण बना रहा। ब्रिटिश अधिकारियों को विधेयकों को स्वीकृत या अस्वीकृत करने का अधिकार प्राप्त था, और वे किसी भी प्रस्ताव को निरस्त कर सकते थे, जिससे भारतीय नेताओं को प्रभावी विधायी शक्तियाँ नहीं मिल पाईं। इस संरचना के तहत भारतीय प्रतिनिधियों को प्रशासनिक कार्यों में सीमित भूमिका दी गई, लेकिन वे किसी भी महत्वपूर्ण नीति निर्माण में स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने में असमर्थ थे। कुल मिलाकर, यह अधिनियम भारतीय प्रशासनिक प्रणाली में एक नया चरण था, परंतु इसमें स्वशासन की अपेक्षित स्वतंत्रता नहीं थी, जिससे भारतीयों की राजनीतिक आकांक्षाएँ पूरी नहीं हो सकीं।
5. संघीय सूची, प्रांतीय सूची और समवर्ती सूची (Union List, Provincial List, and Concurrent List):
इस अधिनियम के तहत प्रशासनिक कार्यों को तीन अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित किया गया—संघीय सूची (Union List), प्रांतीय सूची (Provincial List), और समवर्ती सूची (Concurrent List)। संघीय सूची में ऐसे विषय शामिल थे जिन पर केंद्र सरकार को पूर्ण नियंत्रण प्राप्त था, जिससे राष्ट्रीय स्तर पर एकसमान नीतियाँ लागू करना संभव हुआ। दूसरी ओर, प्रांतीय सूची में उन विषयों को रखा गया, जिन पर प्रांतीय सरकारों को स्वायत्तता प्रदान की गई, जिससे क्षेत्रीय प्रशासन को अधिक प्रभावी और उत्तरदायी बनाया जा सके।
इसके अलावा, समवर्ती सूची उन मामलों को समाहित करती थी जिन पर केंद्र और प्रांत, दोनों को कानून बनाने का अधिकार था। हालांकि, किसी विवाद या टकराव की स्थिति में अंतिम निर्णय ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों के हाथों में ही रहता था, जिससे भारतीय प्रशासनिक तंत्र पर उनका प्रभाव बना रहा। इस व्यवस्था ने केंद्र और प्रांतों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन स्थापित किया और भारतीय प्रशासनिक ढांचे को अधिक संगठित बनाया। आगे चलकर, यह प्रणाली भारतीय संविधान में संघीय संरचना के विकास के लिए आधार बनी, जिससे स्वतंत्र भारत में केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के संतुलन की नींव पड़ी।
6. पृथक निर्वाचक मंडल का विस्तार (Expansion of Separate Electorate):
इस अधिनियम के तहत हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, एंग्लो-इंडियन और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल की व्यवस्था न केवल बरकरार रखी गई, बल्कि इसे और अधिक विस्तारित किया गया। इस प्रणाली के तहत प्रत्येक समुदाय को अपने ही प्रतिनिधियों को चुनने का अधिकार दिया गया, जिससे विभिन्न धार्मिक और सांप्रदायिक समूहों के बीच राजनीतिक विभाजन गहरा हुआ। इसके परिणामस्वरूप, भारतीय समाज में एकता के बजाय अलगाव की भावना को बढ़ावा मिला।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस प्रावधान का कड़ा विरोध किया, क्योंकि इसे समाज में सांप्रदायिकता को संस्थागत रूप देने और राजनीतिक रूप से समुदायों को विभाजित करने का एक उपकरण माना गया। कांग्रेस का मानना था कि यह व्यवस्था ब्रिटिश "फूट डालो और राज करो" नीति का हिस्सा थी, जिससे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को कमजोर किया जा सके। हालांकि, ब्रिटिश सरकार ने इसे अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के रूप में प्रस्तुत किया, लेकिन व्यावहारिक रूप से इसने विभिन्न समुदायों के बीच अविश्वास को गहरा कर दिया।
आगे चलकर, पृथक निर्वाचक मंडल की यह नीति भारतीय राजनीति में एक स्थायी दरार डालने का कारण बनी और अंततः यह भारत के विभाजन के प्रमुख कारकों में से एक साबित हुई। इसने न केवल सांप्रदायिक आधार पर राजनीति को बढ़ावा दिया, बल्कि एक समावेशी और एकजुट भारतीय राष्ट्र के निर्माण की संभावनाओं को भी कमजोर कर दिया।
7. गवर्नर जनरल की शक्तियाँ (Powers of the Governor-General):
गवर्नर जनरल (वायसराय) को प्रशासनिक, विधायी और आपातकालीन मामलों में अत्यधिक शक्तियाँ प्रदान की गई थीं, जिससे वह ब्रिटिश सरकार के प्रभावी प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता था। उसे यह अधिकार प्राप्त था कि वह किसी भी पारित कानून को निरस्त कर सकता था, उसे स्थगित कर सकता था, या आवश्यक समझे जाने पर अपनी ओर से अध्यादेश लागू कर सकता था। इस अधिकार के कारण भारतीय विधायिका के निर्णयों पर उसका पूर्ण नियंत्रण बना रहता था।
इसके अलावा, गवर्नर जनरल को ब्रिटिश सरकार से सीधे निर्देश लेने और उन्हें लागू करने की शक्ति प्राप्त थी, जिससे भारतीय मंत्रियों की स्वायत्तता काफी हद तक सीमित हो गई। उनकी भूमिका केवल सलाहकार की रह गई, क्योंकि अंतिम निर्णय लेने का अधिकार गवर्नर जनरल के पास ही था। आपातकालीन परिस्थितियों में, उसे संपूर्ण प्रशासन को अपने नियंत्रण में लेने की शक्ति दी गई थी, जिससे यह स्पष्ट हो गया कि भारतीय नेतृत्व को वास्तविक स्वशासन प्रदान नहीं किया गया था।
इन शक्तियों के चलते, गवर्नर जनरल का पद भारत में ब्रिटिश शासन की सर्वोच्च इकाई बना रहा, और वह ब्रिटिश हितों को सुरक्षित रखने के लिए किसी भी स्तर तक हस्तक्षेप कर सकता था। इस प्रणाली के कारण भारतीय राजनीतिक नेतृत्व की स्वतंत्रता सीमित रही और प्रशासनिक फैसलों में उनकी भूमिका केवल प्रतीकात्मक रह गई। इस प्रकार, यह स्पष्ट था कि भारतीयों को वास्तविक राजनीतिक अधिकार देने के बजाय, ब्रिटिश सरकार ने अपने नियंत्रण को बनाए रखने के लिए गवर्नर जनरल की शक्तियों को मजबूत किया।
8. संघीय न्यायालय की स्थापना (Establishment of the Federal Court):
भारत में पहली बार संघीय न्यायालय (Federal Court) की स्थापना की गई, जिसका मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश सरकार और प्रांतीय सरकारों के बीच संवैधानिक विवादों का समाधान करना था। यह अदालत भारत की न्यायिक संरचना को अधिक संगठित और सुव्यवस्थित बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम थी। संघीय न्यायालय को यह अधिकार दिया गया था कि वह संघीय व्यवस्था से संबंधित मामलों, प्रांतों के बीच होने वाले विवादों और केंद्र तथा प्रांतीय सरकारों के बीच उत्पन्न होने वाले संवैधानिक प्रश्नों पर निर्णय दे।
इस न्यायालय की स्थापना से भारत में एक केंद्रीकृत न्यायिक प्रणाली की शुरुआत हुई, जिसने न्यायिक प्रक्रियाओं को अधिक प्रभावी बनाया और आगे चलकर स्वतंत्र भारत में सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) की नींव रखी। हालांकि, इस अदालत की सीमाएँ स्पष्ट थीं—संघीय न्यायालय के फैसलों के विरुद्ध अपील करने का अंतिम अधिकार ब्रिटिश प्रिवी काउंसिल (Privy Council) के पास सुरक्षित था। इसका अर्थ यह था कि भारतीय न्यायपालिका पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं थी और ब्रिटिश सरकार का प्रभाव अभी भी बना हुआ था।
संघीय न्यायालय के गठन से न्यायिक प्रक्रिया में पारदर्शिता और एकरूपता आई, लेकिन इसकी वास्तविक स्वतंत्रता तब तक सीमित रही जब तक भारत को पूर्ण स्वराज नहीं मिला। इस न्यायालय की कार्यप्रणाली और सिद्धांतों ने स्वतंत्र भारत की न्यायिक प्रणाली को विकसित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे एक सशक्त और स्वायत्त सर्वोच्च न्यायालय की आधारशिला रखी गई।
9. बर्मा (म्यांमार) को भारत से अलग करना (Separation of Burma (Myanmar) from India):
इस अधिनियम के तहत बर्मा (वर्तमान म्यांमार) को भारत से औपचारिक रूप से अलग कर दिया गया और इसे एक स्वतंत्र ब्रिटिश उपनिवेश के रूप में स्थापित किया गया। इससे पहले, बर्मा प्रशासनिक रूप से ब्रिटिश भारत का एक हिस्सा था और इसे भारत के अधीन ही संचालित किया जाता था। हालाँकि, ब्रिटिश सरकार ने प्रशासनिक सुविधा, भौगोलिक कारकों और आर्थिक हितों को ध्यान में रखते हुए इसे भारत से अलग करने का निर्णय लिया।
इस विभाजन का उद्देश्य बर्मा को स्वतंत्र प्रशासनिक इकाई के रूप में विकसित करना था, जिससे ब्रिटिश सरकार वहाँ अपनी पकड़ मजबूत कर सके और स्थानीय प्रशासन को सीधे नियंत्रित कर सके। इस कदम का भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन पर कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि बर्मा की राजनीति और स्वतंत्रता संग्राम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से अलग दिशा में आगे बढ़ रहे थे।
हालाँकि, इस परिवर्तन ने भारत की भौगोलिक, प्रशासनिक और राजनीतिक सीमाओं में महत्वपूर्ण बदलाव लाया। भारत के लिए यह विभाजन एक बड़ी संरचनात्मक फेरबदल थी, जिससे ब्रिटिश सरकार की "विभाजन और नियंत्रण" नीति और स्पष्ट रूप से सामने आई। इस निर्णय ने न केवल भारतीय उपमहाद्वीप के मानचित्र को बदला, बल्कि ब्रिटिश औपनिवेशिक रणनीति को भी दर्शाया, जिसका उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों को उनकी सुविधा के अनुसार प्रशासनिक रूप से पुनर्गठित करना था।
भारत शासन अधिनियम, 1935 का प्रभाव (Impact of the Government of India Act, 1935):
1. भारतीयों के लिए अधिक स्वायत्तता (Greater Autonomy for Indians):
भारत शासन अधिनियम, 1935 के तहत प्रांतीय स्तर पर भारतीय मंत्रियों को पहले की तुलना में अधिक स्वायत्तता प्रदान की गई, जिससे उन्हें प्रशासनिक कार्यों में प्रत्यक्ष रूप से भाग लेने का अवसर मिला। इस प्रावधान के तहत, प्रांतीय सरकारों को कई विषयों पर नियंत्रण दिया गया, जिससे भारतीय नेताओं को वास्तविक प्रशासनिक अनुभव प्राप्त करने का अवसर मिला।
यह पहली बार था जब भारतीयों को कुछ हद तक सरकार संचालन की जिम्मेदारी दी गई, जिससे वे नीतिगत निर्णय लेने और प्रशासनिक कार्यों को प्रभावी रूप से लागू करने में सक्षम हुए। हालाँकि, ब्रिटिश सरकार ने अब भी महत्वपूर्ण शक्तियाँ अपने पास रखी थीं और गवर्नर को कई अधिकार दिए गए थे, जिससे भारतीय मंत्रियों की स्वतंत्रता पूरी तरह से सुनिश्चित नहीं हो सकी।
इसके बावजूद, इस अधिनियम ने भारतीय राजनीतिक नेतृत्व को प्रशासनिक प्रक्रिया को करीब से समझने और सरकार चलाने का व्यावहारिक अनुभव प्राप्त करने में मदद की। यह परिवर्तन स्वतंत्रता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था, क्योंकि इसने भारतीयों को शासन संचालन में भागीदारी का अनुभव दिया और आगे चलकर स्वतंत्र भारत की राजनीतिक व्यवस्था की नींव रखी।
2. अल्पसंख्यक विभाजन को बढ़ावा (Encouragement of Minority Division):
पृथक निर्वाचक मंडल की प्रणाली को न केवल जारी रखा गया, बल्कि इसे और विस्तारित भी किया गया, जिससे विभिन्न समुदायों के बीच राजनीतिक और सामाजिक विभाजन और गहरा हो गया। इस व्यवस्था के तहत, विभिन्न धार्मिक समूहों को अपने-अपने समुदायों के प्रतिनिधि चुनने का विशेषाधिकार दिया गया, जिससे हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच राजनीतिक दूरी और अविश्वास बढ़ता चला गया।
इस प्रणाली ने भारतीय समाज में एकजुटता की भावना को कमजोर किया और सांप्रदायिक आधार पर राजनीतिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा दिया। ब्रिटिश सरकार द्वारा लागू की गई यह नीति "फूट डालो और राज करो" की रणनीति का हिस्सा थी, जिससे विभिन्न समुदायों के बीच एक स्थायी दरार पैदा हुई।
इसके दीर्घकालिक प्रभाव गंभीर साबित हुए, क्योंकि इस विभाजनकारी व्यवस्था ने सांप्रदायिक राजनीति को संस्थागत बना दिया। धीरे-धीरे, यह मतभेद इतने गहरे हो गए कि उन्होंने 1947 में भारत के विभाजन का आधार तैयार किया। इस प्रकार, पृथक निर्वाचक मंडल न केवल तत्कालीन राजनीति को प्रभावित करने वाला कारक बना, बल्कि इसने भारत के भविष्य को भी एक निर्णायक मोड़ पर ला खड़ा किया, जिसके परिणामस्वरूप उपमहाद्वीप का विभाजन हुआ।
3. संविधान के लिए आधार (Foundation for the Constitution):
भारत शासन अधिनियम, 1935 ने भारतीय संविधान की संरचना के लिए एक महत्वपूर्ण आधार तैयार किया। इस अधिनियम में संघीय प्रणाली, केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन, स्वतंत्र न्यायपालिका और द्विसदनीय विधायिका जैसी कई प्रमुख अवधारणाओं को शामिल किया गया था, जो आगे चलकर भारतीय संविधान का अभिन्न हिस्सा बनीं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, भारतीय संविधान सभा ने इस अधिनियम के कई प्रावधानों का गहन अध्ययन किया और उनमें आवश्यक बदलाव करते हुए उन्हें अधिक लोकतांत्रिक और समावेशी बनाया। केंद्र-राज्य संबंधों की स्पष्ट परिभाषा, विधायी शक्तियों का विभाजन और न्यायपालिका की स्वतंत्रता जैसी व्यवस्थाएँ इसी अधिनियम से प्रेरित थीं, लेकिन नए संविधान में इन्हें भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप संशोधित किया गया।
इस अधिनियम ने प्रशासनिक और संवैधानिक विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे भारत को एक संगठित और सुदृढ़ संवैधानिक व्यवस्था अपनाने में सहायता मिली। हालांकि, 1935 के अधिनियम में ब्रिटिश शासन का नियंत्रण स्पष्ट रूप से बना रहा था, लेकिन भारतीय संविधान निर्माताओं ने इसे एक नए स्वरूप में ढालकर संप्रभुता, लोकतंत्र और समानता के मूल सिद्धांतों को स्थापित किया। इस प्रकार, यह अधिनियम भारत के संवैधानिक विकास में एक मील का पत्थर साबित हुआ, जिसने भविष्य के संवैधानिक ढांचे की नींव रखी।
निष्कर्ष (Conclusion):
भारत शासन अधिनियम, 1935, ब्रिटिश शासन के तहत सबसे व्यापक और महत्वपूर्ण संवैधानिक सुधारों में से एक था, जिसने भारतीय प्रशासनिक प्रणाली को एक नई दिशा प्रदान की। यह अधिनियम भारत में शासन व्यवस्था को अधिक संगठित बनाने का प्रयास था, जिसमें प्रांतीय स्वायत्तता, द्विसदनीय विधायिका, केंद्र-राज्य संबंधों का स्पष्ट विभाजन और एक संघीय ढांचे की परिकल्पना की गई थी।
हालाँकि, यह अधिनियम भारतीयों को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करने में असमर्थ रहा, क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने अभी भी प्रशासनिक और विधायी नियंत्रण अपने हाथों में रखा था। गवर्नर जनरल और प्रांतीय गवर्नरों के पास व्यापक शक्तियाँ थीं, जिससे भारतीय मंत्रियों की स्वायत्तता सीमित रही। इसके बावजूद, इस अधिनियम ने भारतीयों को शासन में भाग लेने का एक अवसर दिया और स्वशासन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हुआ।
इस अधिनियम ने आगे चलकर भारतीय संविधान की नींव रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वतंत्रता के बाद, भारतीय संविधान निर्माताओं ने इसकी कई व्यवस्थाओं को अपनाया और उन्हें अधिक लोकतांत्रिक और समावेशी बनाया। केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के वितरण, न्यायिक स्वतंत्रता और द्विसदनीय प्रणाली जैसी अवधारणाएँ इसी अधिनियम से प्रेरित थीं। इस प्रकार, 1935 का अधिनियम न केवल ब्रिटिश भारत की प्रशासनिक संरचना में एक बड़ा बदलाव लेकर आया, बल्कि स्वतंत्र भारत के संवैधानिक विकास के लिए भी एक आधारशिला बना।
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