International Relations in a Unipolar World एकध्रुवीय विश्व में अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध
परिचय (Introduction):
एक एकध्रुवीय विश्व की अवधारणा उस अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को दर्शाती है, जिसमें एक ही राष्ट्र वैश्विक राजनीति, अर्थव्यवस्था और सैन्य शक्ति पर प्रमुख प्रभाव रखता है। यह संरचना विशेष रूप से शीत युद्ध की समाप्ति के बाद उभरकर सामने आई, खासकर 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद। एक प्रतिस्पर्धी महाशक्ति के अभाव में, संयुक्त राज्य अमेरिका प्रमुख शक्ति के रूप में उभरा, जिसने अंतरराष्ट्रीय नीतियों और वैश्विक शासन को आकार दिया। एकध्रुवीय विश्व में, प्रमुख शक्ति वैश्विक कूटनीति, सुरक्षा गठबंधनों और आर्थिक ढांचे को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसके निर्णय व्यापक प्रभाव डालते हैं, न केवल सहयोगी देशों पर, बल्कि उन राष्ट्रों पर भी जो भिन्न राजनीतिक विचारधारा और आर्थिक मॉडल अपनाते हैं। हालांकि, यह व्यवस्था बड़े शक्तियों के बीच संघर्ष की संभावना को कम करके वैश्विक स्थिरता में योगदान दे सकती है, लेकिन साथ ही यह कुछ चिंताएँ भी उत्पन्न करती है, जैसे कि असीमित प्रभाव, संभावित एकतरफा नीतियां, और छोटे या कम शक्तिशाली देशों का हाशिए पर चला जाना। यह लेख एकध्रुवीयता की प्रमुख विशेषताओं का विश्लेषण करता है और इसके लाभों के साथ-साथ निहित चुनौतियों की भी पड़ताल करता है। इसमें यह समझने का प्रयास किया गया है कि यह व्यवस्था अंतरराष्ट्रीय संबंधों को किस प्रकार प्रभावित करती है, विशेष रूप से कूटनीतिक संबंधों, सुरक्षा व्यवस्थाओं और आर्थिक परस्पर निर्भरता के संदर्भ में। इसके अतिरिक्त, यह वर्तमान भू-राजनीतिक परिदृश्य में एकध्रुवीयता के भविष्य पर भी प्रकाश डालता है, जहां उभरती शक्तियाँ और क्षेत्रीय गुट अपनी पकड़ मजबूत कर रहे हैं, जिससे वैश्विक शक्ति संतुलन में संभावित बदलाव आ सकता है।
एकध्रुवीय विश्व की विशेषताएं (Characteristics of a Unipolar World):
1. सर्वोच्च शक्ति (Hegemonic Power):
एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था में प्रमुख राष्ट्र अन्य सभी देशों की तुलना में असाधारण आर्थिक, सैन्य और तकनीकी क्षमताओं से लैस होता है। इसकी शक्ति इतनी व्यापक होती है कि यह वैश्विक नीतियों को प्रभावित करने और अपने हितों के अनुसार अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को नियंत्रित करने में सक्षम होता है। शीत युद्ध के बाद के दौर में, विशेष रूप से सोवियत संघ के विघटन के बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका इस भूमिका में था। इसकी सैन्य श्रेष्ठता, आर्थिक प्रभुत्व और उन्नत तकनीकी क्षमताओं ने इसे अंतरराष्ट्रीय निर्णयों का प्रमुख निर्धारक बना दिया। इस प्रकार, यह न केवल सुरक्षा और कूटनीति में बल्कि वैश्विक व्यापार और विकास नीतियों में भी निर्णायक भूमिका निभाता है।
2. एकतरफा निर्णय लेने की प्रवृत्ति (Unilateral Decision-Making):
एकध्रुवीय व्यवस्था में प्रमुख शक्ति अक्सर अंतरराष्ट्रीय नीतियों और रणनीतियों को निर्धारित करती है, जिसके चलते कई बार बहुपक्षीय संस्थानों की भूमिका सीमित हो जाती है। उदाहरण के लिए, संयुक्त राष्ट्र, विश्व व्यापार संगठन (WTO) या अन्य वैश्विक संस्थाओं की उपस्थिति के बावजूद, प्रमुख राष्ट्र कई बार इन संगठनों की सहमति के बिना भी निर्णय लेते हैं। ऐसे निर्णय सैन्य हस्तक्षेप, व्यापार नीतियों, प्रतिबंधों और कूटनीतिक पहलुओं से जुड़े हो सकते हैं। जब कोई एकल राष्ट्र अपने निर्णयों को लागू करने की क्षमता रखता है और अन्य देशों को अपनी नीति के अनुरूप चलने के लिए मजबूर कर सकता है, तो इससे वैश्विक सत्ता संतुलन पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
3. सीमित भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा (Limited Geopolitical Competition):
एकध्रुवीय व्यवस्था में किसी भी अन्य प्रमुख शक्ति द्वारा प्रत्यक्ष चुनौती नहीं दी जाती है, जिससे वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा सीमित हो जाती है। द्विध्रुवीय (जैसे शीत युद्ध के समय अमेरिका और सोवियत संघ के बीच प्रतिस्पर्धा) या बहुध्रुवीय (जहां कई शक्तियाँ एक साथ प्रभावशाली होती हैं) व्यवस्था के विपरीत, एकध्रुवीय प्रणाली में प्रभुत्व स्थापित करने वाली शक्ति को अपने वैश्विक प्रभाव को बनाए रखने के लिए किसी प्रत्यक्ष प्रतिद्वंद्वी से मुकाबला नहीं करना पड़ता। हालांकि, दीर्घकालिक रूप से, क्षेत्रीय शक्तियाँ धीरे-धीरे उभर सकती हैं और इस व्यवस्था को चुनौती देने की स्थिति में आ सकती हैं।
4. वैश्विक संस्थानों पर प्रभाव (Influence Over Global Institutions):
एकध्रुवीय शक्ति न केवल वैश्विक संगठनों का हिस्सा होती है, बल्कि वह इनके कामकाज और नीतियों को अपने हितों के अनुरूप ढालने की क्षमता भी रखती है। संयुक्त राष्ट्र (UN), अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF), विश्व बैंक (World Bank) और विश्व व्यापार संगठन (WTO) जैसे संस्थानों की नीतियों और उनके कार्यों पर प्रभाव डालकर प्रमुख राष्ट्र अपने आर्थिक और राजनीतिक हितों को आगे बढ़ाते हैं। यह शक्ति आर्थिक सहायता, कूटनीतिक दबाव, सैन्य गठबंधनों और तकनीकी सहायता के माध्यम से अपने अनुकूल वैश्विक वातावरण बनाने की कोशिश करती है।
5. कठोर और कोमल शक्ति का प्रयोग (Soft and Hard Power Projection):
एकध्रुवीय विश्व में प्रभुत्व रखने वाला राष्ट्र केवल सैन्य शक्ति (Hard Power) के बल पर ही अपनी स्थिति बनाए नहीं रखता, बल्कि वह सांस्कृतिक और आर्थिक प्रभाव (Soft Power) का भी भरपूर उपयोग करता है। सैन्य शक्ति का प्रयोग युद्ध, सैन्य हस्तक्षेप और सामरिक गठबंधनों के माध्यम से किया जाता है, जबकि कोमल शक्ति का उपयोग वैश्विक ब्रांडों, मीडिया, शिक्षा, तकनीकी नवाचार, और सांस्कृतिक प्रभाव के जरिए किया जाता है। उदाहरण के लिए, हॉलीवुड फिल्में, अमेरिकी विश्वविद्यालयों में शिक्षा, तकनीकी कंपनियों का वैश्विक विस्तार और डॉलर का अंतरराष्ट्रीय लेनदेन में व्यापक उपयोग, सभी अमेरिका के कोमल शक्ति प्रभाव को दर्शाते हैं। इन दोनों तरीकों का संतुलित उपयोग करके, एकध्रुवीय शक्ति अपनी दीर्घकालिक प्रभुत्व को बनाए रखने की कोशिश करती है।
ये सभी विशेषताएँ एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था की प्रकृति को परिभाषित करती हैं और इसके वैश्विक प्रभावों को उजागर करती हैं। हालांकि, जैसे-जैसे अन्य देश आर्थिक और सैन्य रूप से विकसित होते हैं, एकध्रुवीयता को नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिससे भविष्य में शक्ति संतुलन में बदलाव की संभावना बनी रहती है।
एकध्रुवीय विश्व के लाभ (Advantages of a Unipolar World):
1. वैश्विक स्थिरता (Global Stability):
जब विश्व में एक ही प्रमुख शक्ति का वर्चस्व होता है, तो महाशक्तियों के बीच बड़े युद्धों की संभावना काफी कम हो जाती है। द्विध्रुवीय या बहुध्रुवीय व्यवस्था में, कई शक्तियाँ एक-दूसरे के खिलाफ प्रतिस्पर्धा करती हैं, जिससे टकराव और संघर्ष की संभावना बढ़ जाती है। इसके विपरीत, एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था में, प्रमुख शक्ति अपने प्रभाव का उपयोग करके अंतरराष्ट्रीय विवादों को हल करने में निर्णायक भूमिका निभा सकती है। यह शक्ति विभिन्न क्षेत्रों में स्थिरता बनाए रखने के लिए सैन्य गठबंधनों, कूटनीतिक दबाव, और आर्थिक सहायता का सहारा लेती है, जिससे अंतरराष्ट्रीय संघर्षों की तीव्रता और आवृत्ति कम हो जाती है।
2. आर्थिक विकास और व्यापार का विस्तार (Economic Growth and Trade Expansion):
जब कोई एकल राष्ट्र वैश्विक अर्थव्यवस्था का नेतृत्व करता है, तो वह व्यापारिक मानकों और आर्थिक नीतियों को स्थिरता प्रदान कर सकता है। एकध्रुवीय शक्ति अपने मजबूत वित्तीय संस्थानों और प्रभावशाली व्यापारिक नेटवर्क के माध्यम से वैश्विक व्यापार व्यवस्था को सुगम बना सकती है। इससे निवेशकों को भरोसा मिलता है, अंतरराष्ट्रीय व्यापार समझौतों को प्रभावी ढंग से लागू किया जाता है, और वैश्विक आर्थिक विकास को गति मिलती है। इसके अलावा, प्रमुख अर्थव्यवस्था व्यापार बाधाओं को कम करने, मुद्रा स्थिरता बनाए रखने और आर्थिक संकटों के प्रभाव को सीमित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
3. त्वरित संकट प्रबंधन (Efficient Crisis Response):
एकध्रुवीय शक्ति की निर्णय लेने की क्षमता और संसाधनों की प्रचुरता के कारण, वैश्विक संकटों का त्वरित और प्रभावी समाधान संभव हो पाता है। चाहे वह मानवीय संकट हो, किसी क्षेत्र में संघर्ष उत्पन्न हो, आर्थिक मंदी हो, या आतंकवाद जैसी सुरक्षा संबंधी समस्याएँ हों—एक शक्तिशाली राष्ट्र अपने सैन्य, आर्थिक और कूटनीतिक साधनों के माध्यम से शीघ्रता से हस्तक्षेप कर सकता है। उदाहरण के लिए, जब किसी देश में प्राकृतिक आपदा आती है, तो एकध्रुवीय शक्ति अपनी सहायता एजेंसियों, अंतरराष्ट्रीय संगठनों और गठबंधन सहयोगियों के माध्यम से राहत कार्यों का नेतृत्व कर सकती है। इसी तरह, वैश्विक वित्तीय संकट के समय, यह शक्ति आर्थिक स्थिरता बनाए रखने के लिए निर्णायक भूमिका निभा सकती है।
4. अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा (International Cooperation):
एकध्रुवीय शक्ति अपनी मजबूत स्थिति का उपयोग करके विभिन्न वैश्विक मुद्दों पर सहयोग और समन्वय को प्रोत्साहित कर सकती है। जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद-निरोध, महामारी नियंत्रण, और परमाणु निरस्त्रीकरण जैसे वैश्विक विषयों पर एक प्रभावशाली शक्ति अंतरराष्ट्रीय समुदाय को एकजुट कर सकती है। चूंकि अन्य देश भी प्रमुख शक्ति के साथ संबंध बनाए रखना चाहते हैं, वे उसके नेतृत्व में संचालित वैश्विक पहलों का समर्थन करने के लिए अधिक इच्छुक होते हैं। उदाहरण के लिए, पेरिस जलवायु समझौते, वैश्विक आतंकवाद विरोधी रणनीतियों और महामारी से निपटने के लिए किए गए अंतरराष्ट्रीय प्रयासों में प्रमुख शक्ति की भूमिका महत्वपूर्ण रही है।
एकध्रुवीय प्रणाली की चुनौतियाँ (Challenges of a Unipolar System):
1. असंतोष और विरोध (Resentment and Resistance):
जब कोई एकल राष्ट्र वैश्विक शक्ति पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेता है, तो अन्य देश इसकी नीतियों और प्रभाव को लेकर असहमति जता सकते हैं। कई राष्ट्र इसे अपने संप्रभुता के लिए खतरा मानते हैं और इस एकध्रुवीय प्रभुत्व का विरोध करने के लिए गठबंधन बना सकते हैं। समय के साथ, यह विरोध सैन्य, कूटनीतिक और आर्थिक स्तर पर बढ़ सकता है, जिससे वैश्विक स्थिरता को खतरा हो सकता है। ऐतिहासिक रूप से, अमेरिका के प्रभुत्व को संतुलित करने के लिए कुछ देशों ने चीन और रूस जैसे शक्तिशाली देशों के साथ गठबंधन किया है, जिससे बहुध्रुवीयता की ओर प्रवृत्ति बढ़ी है।
2. अति-विस्तार और पतन (Overextension and Decline):
एकध्रुवीय शक्ति को अपनी स्थिति बनाए रखने के लिए वैश्विक स्तर पर सैन्य, राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियों का संचालन करना पड़ता है। यह अक्सर अति-विस्तार (overextension) की स्थिति पैदा कर सकता है, जिसमें शक्ति का अत्यधिक उपयोग उसकी अपनी स्थिरता को कमजोर कर सकता है। एक ही राष्ट्र पर वैश्विक सुरक्षा, व्यापार व्यवस्था और राजनीतिक स्थिरता बनाए रखने की जिम्मेदारी होने से उसके संसाधनों पर भारी दबाव पड़ता है। यदि वह इस दबाव को झेलने में असमर्थ होता है, तो उसका पतन शुरू हो सकता है, जिससे नई शक्तियाँ उभर सकती हैं। उदाहरण के लिए, रोमन साम्राज्य और ब्रिटिश साम्राज्य अपने अति-विस्तार के कारण धीरे-धीरे कमजोर हो गए थे।
3. एकतरफावाद बनाम बहुपक्षवाद (Unilateralism vs. Multilateralism):
एकध्रुवीय व्यवस्था में प्रमुख शक्ति कभी-कभी अपने निर्णयों को लागू करने के लिए बहुपक्षीय संस्थानों (जैसे संयुक्त राष्ट्र) को नजरअंदाज कर सकती है। जब एक राष्ट्र अपने हितों के अनुरूप नीतियाँ बनाता है और उन्हें लागू करता है, तो यह अन्य देशों के लिए असंतोषजनक हो सकता है। उदाहरण के लिए, अमेरिका ने कई बार संयुक्त राष्ट्र की सहमति के बिना सैन्य हस्तक्षेप किए हैं, जैसे कि 2003 में इराक युद्ध। इस प्रकार की कार्रवाइयाँ वैश्विक संस्थानों की वैधता को कमजोर कर सकती हैं और अन्य देशों को अपने वैकल्पिक सुरक्षा और आर्थिक नेटवर्क विकसित करने के लिए प्रेरित कर सकती हैं।
4. क्षेत्रीय शक्तियों का उदय (Rise of Regional Powers):
एकध्रुवीय व्यवस्था लंबे समय तक स्थिर नहीं रह सकती, क्योंकि अन्य राष्ट्र भी आर्थिक, सैन्य और तकनीकी रूप से प्रगति करते हैं। चीन, रूस और भारत जैसे देश धीरे-धीरे अपनी वैश्विक उपस्थिति को मजबूत कर रहे हैं और प्रमुख शक्ति के प्रभाव को चुनौती दे रहे हैं। ये राष्ट्र अपने-अपने क्षेत्रों में सैन्य और आर्थिक गठबंधन बना रहे हैं, जिससे एकध्रुवीय प्रणाली धीरे-धीरे बहुध्रुवीय प्रणाली में परिवर्तित हो सकती है। उदाहरण के लिए, चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) और रूस की भू-राजनीतिक रणनीतियाँ अमेरिका की एकध्रुवीयता को संतुलित करने की दिशा में कदम हैं।
5. आर्थिक और राजनीतिक अस्थिरता (Economic and Political Disruptions):
यदि एकध्रुवीय शक्ति किसी गंभीर आर्थिक संकट या राजनीतिक अस्थिरता का सामना करती है, तो इसका प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ता है। चूंकि प्रमुख शक्ति वैश्विक व्यापार, निवेश, और वित्तीय संस्थानों पर गहरा प्रभाव रखती है, उसकी अर्थव्यवस्था में आई किसी भी गिरावट से अंतरराष्ट्रीय बाजारों में अस्थिरता उत्पन्न हो सकती है। उदाहरण के लिए, 2008 का वैश्विक आर्थिक संकट, जो अमेरिका की वित्तीय प्रणाली में उत्पन्न हुआ था, पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित कर गया। इसी तरह, यदि प्रमुख शक्ति राजनीतिक अस्थिरता का सामना करती है, तो इससे अंतरराष्ट्रीय संबंधों और कूटनीति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
अध्ययन मामला: शीत युद्ध के बाद अमेरिकी वर्चस्व (Case Study: U.S. Hegemony Post-Cold War):
शीत युद्ध की समाप्ति के बाद, सोवियत संघ के विघटन के साथ, संयुक्त राज्य अमेरिका वैश्विक महाशक्ति के रूप में उभरा। इसने अंतरराष्ट्रीय राजनीति, सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक प्रभाव को नियंत्रित करने में अग्रणी भूमिका निभाई। अमेरिका ने अपने प्रभाव को विभिन्न तरीकों से स्थापित किया, जिनमें सैन्य हस्तक्षेप, आर्थिक नीतियाँ, और कोमल शक्ति (soft power) का उपयोग शामिल था।
1. सैन्य हस्तक्षेप और शक्ति प्रदर्शन (Military Interventions and Power Projection):
अमेरिका ने शीत युद्ध के बाद कई महत्वपूर्ण सैन्य हस्तक्षेप किए, जिनका उद्देश्य वैश्विक सुरक्षा को नियंत्रित करना और अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करना था।
- अफगानिस्तान युद्ध (2001): 9/11 आतंकवादी हमलों के बाद, अमेरिका ने तालिबान शासन को हटाने और अल-कायदा को समाप्त करने के लिए अफगानिस्तान में सैन्य अभियान शुरू किया। हालाँकि प्रारंभिक सफलता के बावजूद, यह युद्ध दो दशकों तक चला और अंततः 2021 में अमेरिकी सेनाओं की वापसी के साथ समाप्त हुआ।
- इराक युद्ध (2003): अमेरिका ने यह दावा करते हुए इराक पर हमला किया कि सद्दाम हुसैन के पास विनाशकारी हथियार (Weapons of Mass Destruction – WMDs) हैं। हालाँकि, बाद में ऐसे हथियार नहीं मिले, और यह युद्ध अमेरिका की एकतरफा सैन्य कार्रवाइयों की सीमाओं को उजागर करने वाला साबित हुआ।
इन युद्धों ने अमेरिका की वैश्विक सैन्य शक्ति को प्रदर्शित किया, लेकिन साथ ही एकतरफा निर्णय लेने की चुनौतियों और दीर्घकालिक सैन्य उपस्थिति के नकारात्मक प्रभावों को भी उजागर किया।
2. वैश्विक अर्थव्यवस्था और आर्थिक नीतियाँ (Economic Leadership and Policies):
अमेरिका ने शीत युद्ध के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था के संचालन में प्रमुख भूमिका निभाई।
- वैश्वीकरण (Globalization): अमेरिका ने मुक्त बाजार पूंजीवाद (Free Market Capitalism) को बढ़ावा दिया, जिससे व्यापार और निवेश के अवसर बढ़े।
- अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान: अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) और विश्व बैंक जैसी संस्थाओं पर प्रभाव बनाए रखा, जिससे वह विकासशील देशों की आर्थिक नीतियों को प्रभावित कर सका।
- डॉलर का प्रभुत्व: अमेरिकी डॉलर को अंतरराष्ट्रीय व्यापार और वित्तीय लेनदेन की प्राथमिक मुद्रा के रूप में स्थापित किया गया, जिससे अमेरिका को वैश्विक आर्थिक निर्णयों में विशेष लाभ प्राप्त हुआ।
हालाँकि, 2008 का वित्तीय संकट इस प्रणाली की कमजोरी को उजागर करने वाला क्षण था, जिसने वैश्विक अर्थव्यवस्था को गहरा झटका दिया।
3. कोमल शक्ति और सांस्कृतिक प्रभाव (Soft Power and Cultural Influence):
अमेरिका ने केवल सैन्य और आर्थिक शक्ति का ही उपयोग नहीं किया, बल्कि अपने सांस्कृतिक और तकनीकी प्रभाव के माध्यम से भी वैश्विक राजनीति को प्रभावित किया।
- हॉलीवुड और मनोरंजन उद्योग: अमेरिकी फिल्में, टेलीविजन और संगीत ने दुनिया भर में लोकप्रियता हासिल की, जिससे पश्चिमी जीवनशैली और लोकतांत्रिक मूल्यों का प्रसार हुआ।
- तकनीकी वर्चस्व: सिलिकॉन वैली में स्थापित गूगल, ऐप्पल, माइक्रोसॉफ्ट और फेसबुक जैसी कंपनियाँ दुनिया भर में सूचना प्रौद्योगिकी और संचार प्रणाली को नियंत्रित करती हैं।
- शिक्षा और अनुसंधान: अमेरिकी विश्वविद्यालय, जैसे हार्वर्ड, एमआईटी और स्टैनफोर्ड, वैश्विक छात्रों को आकर्षित करते हैं और बौद्धिक क्षेत्र में अमेरिका की स्थिति को मजबूत बनाए रखते हैं।
इस तरह, अमेरिका ने कोमल शक्ति के माध्यम से भी अपना प्रभाव कायम रखा, जिससे उसकी वैश्विक नेतृत्व की स्थिति मजबूत हुई।
4. चुनौतियाँ और बहुध्रुवीयता की ओर परिवर्तन (Challenges and Shift Toward Multipolarity):
हालाँकि अमेरिका ने शीत युद्ध के बाद एकध्रुवीय शक्ति के रूप में अपनी स्थिति बनाए रखी, लेकिन 21वीं सदी में कई चुनौतियों के कारण यह वर्चस्व कमजोर पड़ने लगा।
- 2008 का वित्तीय संकट: इस आर्थिक संकट ने अमेरिका की वित्तीय प्रणाली की कमजोरियों को उजागर किया और चीन जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं को वैश्विक वित्तीय मामलों में अधिक प्रभावशाली बना दिया।
- चीन का उदय: चीन की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ी और उसने वैश्विक व्यापार, तकनीकी नवाचार और सैन्य क्षमताओं में अपनी स्थिति मजबूत की। चीन की "बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव" (BRI) परियोजना ने उसे एक प्रभावशाली वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित किया।
- रूस की बढ़ती आक्रामकता: रूस ने जॉर्जिया (2008), क्रीमिया (2014), और यूक्रेन (2022) में अपने सैन्य अभियानों के माध्यम से अमेरिका के नेतृत्व को चुनौती दी।
- बहुध्रुवीय विश्व की ओर झुकाव: भारत, ब्राज़ील और यूरोपीय संघ जैसी क्षेत्रीय शक्तियाँ भी अपने प्रभाव का विस्तार कर रही हैं, जिससे अमेरिका का एकध्रुवीय वर्चस्व धीरे-धीरे कमजोर हो रहा है।
शीत युद्ध के बाद अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति, अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक प्रभाव में एक निर्विवाद नेतृत्व स्थापित किया। इसकी सैन्य क्षमता, आर्थिक प्रभुत्व और कोमल शक्ति ने इसे वैश्विक नीति निर्धारण में अग्रणी बनाया। हालाँकि, 21वीं सदी में नई चुनौतियों और उभरती महाशक्तियों के कारण यह एकध्रुवीयता अब बहुध्रुवीयता में बदल रही है। इससे स्पष्ट होता है कि शक्ति संतुलन निरंतर बदलता रहता है और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में नए केंद्र उभरते रहते हैं।
क्या एकध्रुवीय विश्व समाप्त हो रहा है? (Is the Unipolar World Ending?):
शीत युद्ध की समाप्ति के बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका वैश्विक राजनीति, अर्थव्यवस्था और सुरक्षा में सर्वोच्च शक्ति के रूप में उभरा। हालाँकि, 21वीं सदी में बदलते वैश्विक परिदृश्य के कारण कई विशेषज्ञ यह मानते हैं कि एकध्रुवीयता धीरे-धीरे समाप्त हो रही है और दुनिया बहुध्रुवीय (multipolar) व्यवस्था की ओर बढ़ रही है। विभिन्न कारकों के कारण अमेरिका की वैश्विक पकड़ कमजोर हो रही है, जिनमें चीन का आर्थिक उत्थान, रूस की भू-राजनीतिक रणनीतियाँ, और क्षेत्रीय शक्तियों की बढ़ती भूमिका प्रमुख हैं।
1. चीन का आर्थिक और सैन्य विस्तार (China's Economic and Military Expansion):
चीन की अर्थव्यवस्था बीते कुछ दशकों में उल्लेखनीय रूप से विकसित हुई है और अब यह अमेरिका के एकमात्र आर्थिक प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभर रहा है।
- बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI): यह वैश्विक बुनियादी ढाँचा और निवेश परियोजना दुनिया भर में चीन के आर्थिक प्रभाव को बढ़ा रही है। एशिया, अफ्रीका और यूरोप में चीन की रणनीतिक परियोजनाएँ अमेरिकी प्रभाव को चुनौती दे रही हैं।
- सैन्य आधुनिकीकरण: चीन अपनी सैन्य क्षमताओं को लगातार बढ़ा रहा है, विशेष रूप से दक्षिण चीन सागर में अपनी नौसेना की उपस्थिति को मजबूत कर रहा है। अमेरिका के प्रभुत्व वाले इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में चीन की बढ़ती सैन्य शक्ति शक्ति संतुलन को प्रभावित कर रही है।
- वैश्विक आर्थिक नेतृत्व: चीन ने हाल के वर्षों में कई व्यापारिक समझौतों को मजबूत किया है, जैसे क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (RCEP), जिससे वह वैश्विक व्यापार नीति में अधिक प्रभावशाली बन गया है।
2. रूस की भू-राजनीतिक रणनीतियाँ (Russia's Geopolitical Maneuvers):
रूस ने हाल के वर्षों में अपनी विदेश नीति को अधिक आक्रामक और प्रभावशाली बनाया है, जिससे अमेरिका के वैश्विक प्रभुत्व को चुनौती मिली है।
- यूक्रेन संकट और क्रीमिया का विलय: 2014 में रूस ने क्रीमिया पर कब्जा कर लिया और 2022 में यूक्रेन पर सैन्य अभियान शुरू किया, जिससे अमेरिका और पश्चिमी देशों की नीतियों को चुनौती मिली।
- सीरिया में हस्तक्षेप: रूस ने सीरिया के गृहयुद्ध में राष्ट्रपति बशर अल-असद का समर्थन किया, जिससे मध्य पूर्व में अमेरिका के प्रभाव को कमजोर किया।
- ऊर्जा प्रभुत्व: रूस यूरोप के लिए एक प्रमुख ऊर्जा आपूर्तिकर्ता है, और वह इस आर्थिक शक्ति का उपयोग अपनी भू-राजनीतिक रणनीतियों में करता है, जिससे पश्चिमी देशों पर दबाव बनता है।
3. क्षेत्रीय शक्तियों का उदय (Rise of Regional Power Centers):
अमेरिका के प्रभुत्व में गिरावट के साथ, कई क्षेत्रीय शक्तियाँ अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को अधिक संतुलित बनाने में योगदान दे रही हैं।
- यूरोपीय संघ (EU): यूरोपीय संघ अमेरिका पर अपनी निर्भरता कम कर रहा है और अपनी स्वतंत्र विदेश एवं रक्षा नीतियों को विकसित कर रहा है।
- भारत का उदय: भारत एक प्रमुख वैश्विक शक्ति के रूप में उभर रहा है, जिसकी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और सैन्य क्षमताएँ इसे अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अधिक प्रभावशाली बना रही हैं। भारत की स्वतंत्र कूटनीति, जिसमें अमेरिका, रूस और चीन के साथ संतुलित संबंध बनाए रखना शामिल है, वैश्विक शक्ति संतुलन को प्रभावित कर रही है।
- अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाएँ: ब्राज़ील, दक्षिण अफ्रीका और अन्य विकासशील देश वैश्विक निर्णयों में अधिक भागीदारी की माँग कर रहे हैं, जिससे अमेरिका की एकतरफा नीति को चुनौती मिल रही है।
हालाँकि अमेरिका अभी भी दुनिया की सबसे प्रभावशाली शक्ति बना हुआ है, लेकिन चीन, रूस और अन्य क्षेत्रीय शक्तियों के उदय के कारण एकध्रुवीय व्यवस्था अब बहुध्रुवीय प्रणाली में परिवर्तित हो रही है। वैश्विक शक्ति संतुलन धीरे-धीरे विभिन्न केंद्रों में बँट रहा है, जिससे अंतरराष्ट्रीय राजनीति और अर्थव्यवस्था में अधिक विविधता और प्रतिस्पर्धा देखने को मिल रही है। यदि यह प्रवृत्ति जारी रहती है, तो भविष्य में विश्व व्यवस्था पहले की तुलना में अधिक जटिल और बहुपक्षीय हो सकती है।
निष्कर्ष (Conclusion):
एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था ने लंबे समय तक वैश्विक स्थिरता और आर्थिक विकास को बढ़ावा दिया, क्योंकि एक प्रमुख शक्ति के नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय व्यापार, सुरक्षा और कूटनीति को दिशा मिली। हालाँकि, इस प्रणाली में कुछ महत्वपूर्ण चुनौतियाँ भी मौजूद रहीं, जैसे शक्ति के अति-विस्तार का जोखिम, अन्य देशों में असंतोष और बहुपक्षीय संस्थाओं की उपेक्षा। अमेरिका ने दशकों तक वैश्विक राजनीति, अर्थव्यवस्था और सैन्य शक्ति में अग्रणी भूमिका निभाई, लेकिन 21वीं सदी में बदलते वैश्विक परिदृश्य के कारण इसका एकाधिपत्य अब कमजोर हो रहा है।
चीन का आर्थिक और सैन्य उत्थान, रूस की आक्रामक विदेश नीति, भारत और यूरोपीय संघ जैसी क्षेत्रीय शक्तियों की बढ़ती भूमिका, और वैश्विक संस्थानों में अन्य देशों की अधिक भागीदारी के कारण अब शक्ति संतुलन अधिक विविध हो रहा है। इन कारकों के कारण वैश्विक राजनीति एक बहुध्रुवीय प्रणाली की ओर बढ़ रही है, जहाँ निर्णय लेने की प्रक्रिया में कई राष्ट्रों की भूमिका होगी।
भविष्य की अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में प्रभावी शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए सहयोग, संवाद और कूटनीतिक प्रयासों की आवश्यकता होगी। यदि प्रमुख राष्ट्र आपसी समन्वय और बहुपक्षीय सहयोग को प्राथमिकता देते हैं, तो यह वैश्विक शांति और सतत विकास को सुनिश्चित करने में सहायक होगा। एक स्थायी और संतुलित विश्व व्यवस्था के लिए सभी देशों को मिलकर एक ऐसी नीति अपनानी होगी, जो शक्ति के उचित वितरण, आर्थिक समावेशिता और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की मजबूती पर आधारित हो।
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