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Concept of Authority प्राधिकरण की अवधारणा

Concept of Authority | प्राधिकरण की अवधारणा

"प्राधिकरण वह शक्ति है जो लोगों की स्वीकृति से वैध बनती है

और समाज में अनुशासन को बनाए रखने का माध्यम बनती है।"

प्राधिकरण (Authority) राजनीति और समाजशास्त्र में एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, जो शक्ति, वैधता और आदेश के अनुपालन से जुड़ी होती है। यह किसी व्यक्ति, संस्था या समूह को यह अधिकार प्रदान करता है कि वे समाज के अन्य सदस्यों को दिशा-निर्देश दे सकें और उनके पालन की अपेक्षा कर सकें। प्राधिकरण का आधार समाज द्वारा स्वीकृत नियम, परंपराएं, कानूनी संरचनाएं और नैतिक सिद्धांत हो सकते हैं। यह सत्ता के वैध उपयोग को निर्धारित करता है और सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्राधिकरण विभिन्न रूपों में प्रकट हो सकता है, जैसे—कानूनी अधिकार, परंपरागत अधिकार, या करिश्माई नेतृत्व द्वारा स्थापित अधिकार। इसके प्रभाव से समाज में अनुशासन, स्थिरता और संगठन की व्यवस्था संभव हो पाती है।

प्राधिकरण की परिभाषा (Definition of Authority):

1. मैक्स वेबर (Max Weber) –

"प्राधिकरण वह शक्ति है जिसे वैध और न्यायोचित माना जाता है, तथा जिसका पालन स्वेच्छा से किया जाता है।"

2. रॉबर्ट डाहल (Robert Dahl) –

"यदि व्यक्ति 'A' व्यक्ति 'B' से कोई कार्य करवा सकता है जिसे वह स्वाभाविक रूप से नहीं करना चाहता, तो 'A' का 'B' पर प्राधिकरण होता है।"

3. हेरल्ड लास्की (Harold Laski) –

"प्राधिकरण एक ऐसा अधिकार है जो समाज में व्यवस्था बनाए रखने के लिए व्यक्ति या संस्था को दिया जाता है, ताकि वह नियमों को लागू कर सके।"

4. टाल्कॉट पारसन्स (Talcott Parsons) –

"प्राधिकरण एक वैध शक्ति है, जिसे सामाजिक मान्यताओं और स्वीकृति के आधार पर स्वीकार किया जाता है।"

5. हेनरी फेयोल (Henri Fayol) –

"प्राधिकरण आदेश देने और आज्ञापालन की अपेक्षा करने का अधिकार है।"

प्राधिकरण के प्रकार (Types of Authority):

1. वैधानिक प्राधिकरण (Legal Authority):

वैधानिक प्राधिकरण वह शक्ति है जो किसी कानूनी ढांचे, संविधान, औपचारिक नियमों और संस्थागत प्रक्रियाओं पर आधारित होती है। इसमें अधिकार किसी विशेष व्यक्ति के बजाय उस पद या संस्था में निहित होता है, जो कानूनी रूप से स्थापित होती है। आधुनिक लोकतांत्रिक सरकारें, नौकरशाही और न्यायिक प्रणाली इस प्राधिकरण का प्रमुख उदाहरण हैं। इसमें सत्ता परिवर्तन कानूनी प्रक्रियाओं के माध्यम से होता है और निर्णय लेने की प्रक्रिया लिखित नियमों तथा विनियमों द्वारा संचालित होती है। उदाहरणस्वरूप, किसी देश का राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, न्यायालय या सरकारी एजेंसियाँ अपने अधिकारों का प्रयोग कानूनी ढांचे के अंतर्गत ही करती हैं, जिससे समाज में स्थिरता और अनुशासन बना रहता है।

2. परंपरागत प्राधिकरण (Traditional Authority):

परंपरागत प्राधिकरण समाज में स्थापित मान्यताओं, परंपराओं और सांस्कृतिक धारणाओं पर आधारित होता है, जिसमें सत्ता किसी विशेष परिवार, वंश या धार्मिक समूह को ऐतिहासिक रूप से प्राप्त होती है। यह प्राधिकरण अक्सर वंशानुगत होता है, जहाँ शासक या नेता का अधिकार पुरानी परंपराओं और रीति-रिवाजों से स्वीकृत होता है। उदाहरणस्वरूप, राजशाही व्यवस्था में राजा या महाराजा का शासन जनता द्वारा उनकी पारंपरिक सत्ता को स्वीकार करने के कारण वैध माना जाता है। इसी प्रकार, धार्मिक गुरुओं, कबीलों के मुखियाओं और जातिगत प्रमुखों का अधिकार भी समाज द्वारा परंपरागत रूप से मान्यता प्राप्त होता है। यह प्राधिकरण समाज में स्थिरता बनाए रखने में सहायक होता है, लेकिन इसमें परिवर्तन की संभावना कम होती है, क्योंकि यह ऐतिहासिक रूप से स्थापित होता है।

3. करिश्माई प्राधिकरण (Charismatic Authority):

करिश्माई प्राधिकरण किसी व्यक्ति के असाधारण गुणों, विचारधारा, प्रेरणादायक व्यक्तित्व और अनुयायियों के प्रति उसके प्रभाव पर आधारित होता है। इसमें सत्ता किसी कानूनी ढांचे या परंपरागत नियमों पर निर्भर नहीं करती, बल्कि व्यक्ति विशेष की नेतृत्व क्षमता, वैचारिक शक्ति और करिश्मे पर टिकी होती है। यह प्राधिकरण अक्सर सामाजिक, धार्मिक या राजनीतिक आंदोलनों के दौरान उभरता है और जनता को एक नए बदलाव के लिए प्रेरित करता है। उदाहरणस्वरूप, महात्मा गांधी, नेल्सन मंडेला और मार्टिन लूथर किंग जूनियर जैसे नेता अपने व्यक्तित्व और विचारों की ताकत से लाखों लोगों को आंदोलनों में संगठित कर पाए। हालांकि, यह प्राधिकरण स्थायी नहीं होता, क्योंकि यह किसी विशेष व्यक्ति पर निर्भर होता है और उनके जाने के बाद संगठनात्मक स्थिरता बनाए रखना कठिन हो सकता है।

प्राधिकरण और शक्ति (Authority vs Power)

1. शक्ति (Power):

शक्ति वह क्षमता या साधन है जिसके माध्यम से कोई व्यक्ति, समूह या संस्था दूसरों के व्यवहार, निर्णय या कार्यों को नियंत्रित या प्रभावित कर सकती है, चाहे वे इसे स्वेच्छा से स्वीकार करें या नहीं। यह बल, दबाव, भय, संसाधनों की उपलब्धता या प्रभावशाली स्थिति के आधार पर प्राप्त की जा सकती है। शक्ति कानूनी या अवैध, नैतिक या अनैतिक, जबरदस्ती या सहमति से प्रयोग की जा सकती है, जिससे यह कई रूपों में प्रकट होती है। राजनीतिक शक्ति, सैन्य शक्ति, आर्थिक शक्ति और सामाजिक शक्ति इसके प्रमुख प्रकार हैं। उदाहरणस्वरूप, कोई सत्तारूढ़ सरकार अपनी सैन्य और पुलिस शक्ति के माध्यम से कानून लागू कर सकती है, जबकि एक प्रभावशाली व्यापारी अपनी आर्थिक शक्ति से बाजार को नियंत्रित कर सकता है। शक्ति का प्रयोग सकारात्मक भी हो सकता है, जैसे—सामाजिक सुधार लाने के लिए प्रभावशाली लोगों का उपयोग, लेकिन नकारात्मक भी हो सकता है, जैसे—तानाशाही शासन द्वारा जबरदस्ती अपने आदेश लागू कराना।

2. प्राधिकरण (Authority):

प्राधिकरण वह शक्ति है जो समाज, कानून और संस्थागत मान्यताओं द्वारा वैध और स्वीकृत मानी जाती है। यह केवल बल या प्रभाव पर निर्भर नहीं करता, बल्कि यह स्वीकृति और वैधता पर आधारित होता है, जिससे लोग स्वेच्छा से इसका पालन करते हैं। प्राधिकरण आमतौर पर कानूनी नियमों, परंपराओं या किसी व्यक्ति की करिश्माई नेतृत्व क्षमता के आधार पर स्थापित होता है। यह राजनीतिक, प्रशासनिक और सामाजिक संरचनाओं में एक संगठित रूप में पाया जाता है, जैसे—सरकारी संस्थाएँ, न्यायपालिका, पुलिस, शैक्षणिक संस्थान और धार्मिक संगठन। उदाहरणस्वरूप, किसी देश का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति कानूनी प्रक्रियाओं के तहत सत्ता प्राप्त करता है और उसकी शक्ति प्राधिकरण के रूप में स्वीकृत होती है, क्योंकि लोग उसे वैध रूप से निर्वाचित मानते हैं। इसी तरह, किसी स्कूल का प्रधानाचार्य या किसी कंपनी का प्रबंध निदेशक अपनी संस्था के नियमों के तहत अधिकार प्राप्त करता है और उसका आदेश स्वीकृत होता है।

मुख्य अंतर (Power vs. Authority):

शक्ति और प्राधिकरण के बीच मुख्य अंतर यह है कि शक्ति को बलपूर्वक लागू किया जा सकता है, जबकि प्राधिकरण स्वीकृति और वैधता पर आधारित होता है। शक्ति कई बार जबरदस्ती थोपे जाने के कारण अस्थिर हो सकती है, जबकि प्राधिकरण को समाज और कानून द्वारा समर्थन प्राप्त होता है, जिससे यह अधिक स्वीकार्य और टिकाऊ बनता है। उदाहरण के लिए, कोई अपराधी अपनी बंदूक की ताकत से लोगों पर नियंत्रण जमा सकता है, लेकिन उसका यह नियंत्रण वैध नहीं होता, इसलिए यह शक्ति कहलाती है, न कि प्राधिकरण। वहीं, एक पुलिस अधिकारी या न्यायाधीश कानूनी अधिकार के तहत फैसले सुनाते हैं, जिसे जनता भी मान्यता देती है, इसलिए यह प्राधिकरण कहलाता है। शक्ति के प्रयोग से कई बार असंतोष और विद्रोह उत्पन्न हो सकता है, जबकि प्राधिकरण समाज में व्यवस्था और स्थिरता बनाए रखने में मदद करता है।

प्राधिकरण का महत्व (Importance of Authority):

1. सामाजिक व्यवस्था (Social System):

प्राधिकरण समाज में अनुशासन और व्यवस्था बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, क्योंकि यह नियमों और मानकों को स्थापित करता है जिनका पालन नागरिकों द्वारा किया जाता है। यह सुनिश्चित करता है कि सामाजिक संस्थाएँ, जैसे—शिक्षा, अर्थव्यवस्था, कानून और प्रशासन, सुचारू रूप से कार्य करें और समाज में स्थिरता बनी रहे। बिना किसी स्वीकृत प्राधिकरण के, समाज में अराजकता और असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। उदाहरणस्वरूप, पुलिस और न्यायपालिका कानूनों को लागू करके सामाजिक शांति बनाए रखते हैं, जबकि शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षकों और प्रशासकों का प्राधिकरण छात्रों के अनुशासन और ज्ञानार्जन में सहायक होता है।

2. वैध शासन (Legitimate Governance):

वैध शासन का तात्पर्य एक ऐसी प्रशासनिक व्यवस्था से है, जिसे जनता की स्वीकृति प्राप्त होती है और जो स्थापित कानूनी और नैतिक सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करता है। यह शासन नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा करता है, क्योंकि इसकी सत्ता बलपूर्वक थोपे जाने के बजाय लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और वैध संस्थाओं के माध्यम से संचालित होती है। वैध शासन में जनता की भागीदारी, पारदर्शिता और उत्तरदायित्व सुनिश्चित किया जाता है, जिससे नागरिकों में सरकार के प्रति विश्वास बना रहता है। उदाहरणस्वरूप, एक लोकतांत्रिक सरकार चुनावों के माध्यम से सत्ता प्राप्त करती है, जबकि अधिनायकवादी शासन में सत्ता बलपूर्वक लागू की जाती है, जिससे वह वैध नहीं माना जाता।

3. निर्णय लेने की प्रक्रिया (Decision-Making Process):

प्राधिकरण नीति निर्धारण और निर्णय लेने की प्रक्रिया में एक प्रमुख भूमिका निभाता है, क्योंकि यह सुनिश्चित करता है कि निर्णय तर्कसंगत, संगठित और कानूनी ढांचे के अनुसार लिए जाएँ। सरकार, प्रशासनिक संस्थान और संगठनों में प्राधिकरण का प्रयोग नीतियों को लागू करने, संसाधनों के वितरण और सामाजिक मुद्दों के समाधान के लिए किया जाता है। एक प्रभावी निर्णय लेने की प्रक्रिया में संबंधित पक्षों की राय, विशेषज्ञता और डेटा का समावेश होता है, जिससे निष्पक्ष और व्यावहारिक नीतियाँ बनाई जा सकें। उदाहरणस्वरूप, संसद में बनाए गए कानून, न्यायालय के फैसले और कॉर्पोरेट कंपनियों में लिए गए रणनीतिक निर्णय सभी प्राधिकरण के अंतर्गत आते हैं, जिससे समाज और संगठनों का सुचारू संचालन सुनिश्चित किया जाता है।

4. न्याय और समानता (Justice and Equality):

प्राधिकरण समाज में न्याय और समानता सुनिश्चित करने के लिए कानूनी ढांचे और प्रशासनिक प्रक्रियाओं का निर्माण करता है, जिससे प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार और अवसर मिल सकें। यह सुनिश्चित करता है कि सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के कानून के अनुसार समान व्यवहार मिले और किसी भी प्रकार के अन्याय या शोषण से उन्हें सुरक्षा प्रदान की जाए। न्यायपालिका, मानवाधिकार आयोग और अन्य कानूनी संस्थान इस प्राधिकरण के तहत कार्य करते हैं ताकि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से कमजोर वर्गों को न्याय मिल सके। उदाहरणस्वरूप, संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार, लैंगिक समानता के लिए बनाए गए कानून और सामाजिक न्याय की नीतियाँ प्राधिकरण द्वारा स्थापित ढांचे के माध्यम से लागू की जाती हैं, जिससे समाज में समावेशिता और निष्पक्षता बनी रहे।

प्राधिकरण के स्रोत (Sources of Authority):

1. कानून और संविधान (Law and Constitution):

संविधान और कानून किसी भी संस्था, सरकार या व्यक्ति को वैधता प्रदान करते हैं, जिससे वे सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में अपने अधिकारों का प्रयोग कर सकें। यह प्राधिकरण के दायरे और सीमाओं को निर्धारित करता है, ताकि शक्ति का दुरुपयोग न हो और नागरिकों के अधिकार सुरक्षित रहें। किसी भी लोकतांत्रिक देश में संविधान सर्वोच्च होता है और उसके तहत बनने वाले कानून सरकार, न्यायपालिका और अन्य संस्थानों को उनकी जिम्मेदारियाँ सौंपते हैं। उदाहरणस्वरूप, भारत में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सांसद, न्यायाधीश और अन्य सरकारी अधिकारी संविधान द्वारा निर्धारित अधिकारों और कर्तव्यों के अंतर्गत कार्य करते हैं, जिससे शासन प्रणाली सुचारू रूप से चलती है।

2. समाज की स्वीकृति (Acceptance of Society):

प्राधिकरण की वैधता समाज की स्वीकृति पर निर्भर करती है, क्योंकि जब तक नागरिक किसी नेता, संस्था या सरकार के अधिकार को स्वीकार नहीं करते, तब तक उसका प्रभाव सीमित रहता है। जनता की सहमति के बिना स्थापित प्राधिकरण को अक्सर अलोकतांत्रिक या जबरन थोपा गया माना जाता है, जिससे विद्रोह या असंतोष उत्पन्न हो सकता है। किसी भी शासन प्रणाली या सामाजिक संरचना की स्थिरता तभी संभव होती है जब उसे समाज की मान्यता प्राप्त हो। उदाहरणस्वरूप, एक लोकतांत्रिक सरकार को चुनावों में जनता का समर्थन प्राप्त होता है, जिससे उसका प्राधिकरण वैध माना जाता है, जबकि तानाशाही शासन को अक्सर जनता की अस्वीकृति का सामना करना पड़ता है, जिससे अस्थिरता बढ़ सकती है।

3. नैतिकता और धर्म (Morality and Religion):

कई बार प्राधिकरण की वैधता नैतिक और धार्मिक मूल्यों पर भी आधारित होती है, क्योंकि समाज में नैतिकता और आस्था के सिद्धांत शासन और सामाजिक संरचना को प्रभावित करते हैं। धार्मिक और नैतिक आधार पर उत्पन्न प्राधिकरण लोगों के विश्वास और परंपराओं से जुड़ा होता है, जिससे वे स्वेच्छा से उसका पालन करते हैं। ऐतिहासिक रूप से, धार्मिक नेताओं, संतों, पुजारियों और धर्मगुरुओं का प्राधिकरण उनके नैतिक आचरण और आध्यात्मिक ज्ञान के कारण स्वीकार किया जाता रहा है। उदाहरणस्वरूप, महात्मा गांधी का नेतृत्व नैतिकता और अहिंसा के सिद्धांतों पर आधारित था, जिससे उन्होंने बिना किसी कानूनी अधिकार के भी लाखों लोगों को स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरित किया। इसी प्रकार, पोप, दलाई लामा या अन्य धार्मिक नेताओं का प्राधिकरण उनके अनुयायियों की आस्था और नैतिक मूल्यों की स्वीकृति पर निर्भर करता है।

आधुनिक संदर्भ में प्राधिकरण की चुनौतियाँ (Challenges of Authority in the Modern Context):

1. अधिकारों का दुरुपयोग (Abuse of Power):

अधिकारों का दुरुपयोग प्राधिकरण की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है, जहाँ सत्ता प्राप्त करने वाले व्यक्ति या संस्थाएँ इसे जनता के हितों के बजाय अपने निजी स्वार्थों के लिए प्रयोग करती हैं। जब कोई सरकार, प्रशासक या अधिकारी अपने अधिकारों का प्रयोग अनुचित लाभ उठाने, विरोधियों को दबाने या भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के लिए करता है, तो इससे समाज में असंतोष और अविश्वास उत्पन्न होता है। उदाहरणस्वरूप, तानाशाही शासन में नागरिक अधिकारों का हनन, पुलिस तंत्र द्वारा अनुचित बल प्रयोग, और भ्रष्ट प्रशासनिक निर्णय प्राधिकरण के दुरुपयोग के स्पष्ट उदाहरण हैं, जो लोकतंत्र और कानून के शासन को कमजोर करते हैं।

2. लोकतंत्र का ह्रास (Decline of Democracy):

लोकतांत्रिक देशों में जब प्राधिकरण का अत्यधिक केंद्रीकरण हो जाता है, तो इससे लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक स्वतंत्रता पर खतरा उत्पन्न हो सकता है। जब सत्ता केवल कुछ व्यक्तियों या संस्थानों तक सीमित रह जाती है और जनप्रतिनिधित्व तथा जवाबदेही की प्रक्रिया कमजोर पड़ जाती है, तो लोकतंत्र अपने मूल स्वरूप से भटकने लगता है। कई देशों में देखने को मिला है कि सत्ता में बैठे नेता मीडिया, न्यायपालिका और प्रशासन को अपने नियंत्रण में लेकर लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर कर देते हैं, जिससे तानाशाही प्रवृत्तियाँ जन्म लेती हैं। उदाहरणस्वरूप, जब चुनावों में धांधली, विपक्ष को दबाने की कोशिशें और नागरिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया जाता है, तो यह लोकतंत्र के ह्रास का संकेत देता है।

3. वैधता पर प्रश्न (Questioning Legitimacy):

जब प्राधिकरण का उपयोग जनहित के खिलाफ किया जाता है, तो उसकी वैधता पर सवाल उठने लगते हैं। किसी भी शासन या संस्था की वैधता समाज की स्वीकृति पर निर्भर करती है, लेकिन जब नागरिकों को लगता है कि सरकार या प्राधिकरण उनकी आवश्यकताओं और अधिकारों की रक्षा करने में विफल हो रहा है, तो वे उसके प्रति अविश्वास प्रकट करने लगते हैं। उदाहरणस्वरूप, जब सरकारें तानाशाही नीतियों को लागू करती हैं, मानवाधिकारों का उल्लंघन करती हैं, या भ्रष्टाचार में लिप्त होती हैं, तो जनता का समर्थन कम होने लगता है और विरोध-प्रदर्शन, आंदोलन या क्रांति जैसी स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। हाल के वर्षों में कई देशों में भ्रष्ट और अलोकतांत्रिक सरकारों के खिलाफ जनता द्वारा किए गए प्रदर्शन इस समस्या को दर्शाते हैं।

4. सत्ता का केंद्रीकरण (Centralization of Power):

जब प्राधिकरण का अत्यधिक केंद्रीकरण हो जाता है, तो यह लोकतंत्र के लिए खतरा बन जाता है और भ्रष्टाचार, अधिनायकवाद तथा तानाशाही को बढ़ावा देता है। सत्ता का संतुलित वितरण किसी भी शासन प्रणाली के सुचारू संचालन के लिए आवश्यक होता है, लेकिन जब निर्णय लेने की शक्ति केवल कुछ व्यक्तियों या संस्थानों तक सीमित हो जाती है, तो नागरिक स्वतंत्रता और पारदर्शिता प्रभावित होती है। इसका परिणाम यह होता है कि सत्ता में बैठे लोग अपने पद का दुरुपयोग करने लगते हैं, जिससे प्रशासनिक भ्रष्टाचार, मीडिया पर नियंत्रण और विरोधियों के दमन जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। उदाहरणस्वरूप, जब कोई सरकार न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका पर पूरी तरह नियंत्रण स्थापित कर लेती है, तो वह जनहित की अनदेखी करने लगती है, जिससे जनता को अपनी आवाज उठाने के लिए आंदोलनों और विरोध प्रदर्शनों का सहारा लेना पड़ता है।

निष्कर्ष (Conclusion):

प्राधिकरण किसी भी समाज और शासन प्रणाली के प्रभावी और व्यवस्थित संचालन के लिए एक आवश्यक तत्व है। यह न केवल शक्ति और आदेश प्रदान करता है, बल्कि समाज में अनुशासन, स्थिरता और सुव्यवस्थित कार्यप्रणाली सुनिश्चित करता है। प्राधिकरण का प्रयोग कानूनी और नैतिक मानकों के अनुरूप होना चाहिए, ताकि नागरिकों में शासन के प्रति विश्वास बना रहे और सामाजिक समरसता बनी रहे। हालांकि, जब इसका दुरुपयोग किया जाता है या सत्ता अत्यधिक केंद्रित हो जाती है, तो यह लोकतांत्रिक मूल्यों, नागरिक स्वतंत्रता और मानवाधिकारों के लिए खतरा बन सकता है। इतिहास में कई उदाहरण मिलते हैं जहाँ अत्यधिक केंद्रीकरण और तानाशाही प्रवृत्तियों ने समाज में असंतोष और अस्थिरता उत्पन्न की है। इसलिए, प्राधिकरण को हमेशा पारदर्शिता, जवाबदेही और कानूनी सीमाओं के भीतर रहकर प्रयोग किया जाना चाहिए, ताकि यह जनकल्याण और न्यायसंगत शासन के उद्देश्यों की पूर्ति कर सके। जब प्राधिकरण जनता की भागीदारी, नैतिकता और उत्तरदायित्व के सिद्धांतों के आधार पर संचालित होता है, तभी यह समाज के सर्वांगीण विकास में सहायक बनता है।

 

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