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Sovereignty संप्रभुता

Sovereignty | संप्रभुता

संप्रभुता (Sovereignty) राजनीति विज्ञान की एक मौलिक अवधारणा है, जो किसी राज्य की पूर्ण स्वतंत्रता, सर्वोच्च सत्ता, और निर्णय लेने की क्षमता को दर्शाती है। यह राज्य को न केवल आंतरिक शासन में स्वायत्त बनाती है, बल्कि बाहरी हस्तक्षेप से मुक्त रहने का अधिकार भी प्रदान करती है। संप्रभुता का तात्पर्य उस अधिकार से है, जिसके अंतर्गत कोई राज्य अपने भू-भाग के भीतर सभी निर्णय स्वतंत्र रूप से ले सकता है और अपनी नीतियों का निर्माण कर सकता है। राजनीतिक चिंतकों और विद्वानों ने संप्रभुता की परिभाषा और इसकी प्रकृति पर व्यापक अध्ययन किए हैं। जॉन ऑस्टिन के अनुसार, संप्रभुता विधि का वह सर्वोच्च स्रोत है, जिसके आदेश को अंतिम और बाध्यकारी माना जाता है। वहीं, जीन बोडां ने इसे एक स्थायी और पूर्ण शक्ति के रूप में देखा, जो किसी राज्य की प्रशासनिक और विधायी संप्रभुता को सुनिश्चित करती है। आधुनिक संदर्भ में संप्रभुता को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया जाता है—आंतरिक संप्रभुता, जो किसी देश के भीतर कानून बनाने और शासन करने से संबंधित होती है, और बाह्य संप्रभुता, जो किसी राष्ट्र की स्वतंत्रता और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में उसकी स्वायत्तता को परिभाषित करती है। संप्रभुता की अवधारणा समय के साथ विकसित हुई है और इसके स्वरूप में बदलाव आया है। वैश्वीकरण, अंतरराष्ट्रीय संगठन, और बहुराष्ट्रीय समझौतों के कारण आज राज्य की संप्रभुता पूर्णतः असीमित नहीं रह गई है। विभिन्न राजनीतिक सिद्धांतों और ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर संप्रभुता के विभिन्न रूपों और उसकी सीमाओं का अध्ययन किया जाता है, जिससे स्पष्ट होता है कि यह एक गतिशील अवधारणा है, जो समय और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होती रहती 

है।

संप्रभुता की परिभाषा (Definitions of Sovereignty):

1. जीन बोडिन (Jean Bodin):

जीन बोडिन ने अपनी पुस्तक "Six Books of the Republic" में संप्रभुता को "राज्य का सर्वोच्च, निरंकुश और स्थायी अधिकार" कहा। उनके अनुसार, संप्रभुता कानून बनाने और उन्हें लागू करने की शक्ति है।

2. थॉमस हॉब्स (Thomas Hobbes):

अपनी पुस्तक "Leviathan" में हॉब्स ने कहा कि संप्रभुता एक ऐसी शक्ति है जो सामाजिक अनुबंध के माध्यम से राज्य को प्रजा की सुरक्षा और शांति के लिए सर्वोच्च अधिकार प्रदान करती है।

3. जॉन लॉक (John Locke):

अपनी पुस्तक "Two Treatises of Government" में लॉक ने संप्रभुता को सीमित और प्रजा की सहमति पर आधारित बताया। उनके अनुसार, शासक की शक्ति को कानून और नैतिकता के दायरे में रहना चाहिए।

4. जॉन ऑस्टिन (John Austin):

ऑस्टिन ने अपनी पुस्तक "The Province of Jurisprudence Determined" में संप्रभुता को "एक राजनीतिक समाज में सर्वोच्च शक्ति" के रूप में परिभाषित किया। 

संप्रभुता के प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं (Major  Elements of Sovereignty):

1. सर्वोच्चता (Supremacy):

संप्रभुता की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि किसी भी राज्य के पास अपने क्षेत्र में पूर्ण और सर्वोच्च अधिकार होता है। इसका अर्थ यह है कि उस राज्य की राजनीतिक, कानूनी और प्रशासनिक सत्ता पर किसी अन्य आंतरिक या बाहरी शक्ति का नियंत्रण नहीं होता। एक संप्रभु राज्य में सरकार के निर्णय अंतिम और बाध्यकारी होते हैं, और वे किसी अन्य शक्ति द्वारा निरस्त नहीं किए जा सकते। यह सर्वोच्चता विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसी संस्थाओं के रूप में कार्यान्वित होती है, जो राज्य के कानूनों और नीतियों को लागू करती हैं।

2. स्वतंत्रता (Independence):

संप्रभुता का एक अनिवार्य पहलू राज्य की स्वतंत्रता है, जिसका अर्थ यह है कि वह अपने आंतरिक और बाहरी मामलों में स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने के लिए सक्षम होता है। यह स्वतंत्रता राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मामलों में भी लागू होती है। किसी संप्रभु राज्य पर किसी अन्य देश, संगठन या संस्था का कोई दबाव या प्रभुत्व नहीं होना चाहिए। हालांकि, वैश्विक संदर्भ में संप्रभुता पूर्णतः निरंकुश नहीं होती, क्योंकि कई बार राज्य आपसी सहयोग और अंतरराष्ट्रीय संधियों के माध्यम से अपनी स्वतंत्रता को सीमित करने के लिए स्वेच्छा से तैयार होते हैं।

3. वैधता (Legitimacy):

किसी भी राज्य की संप्रभुता तभी प्रभावी मानी जाती है जब उसे जनता और कानून द्वारा मान्यता प्राप्त हो। वैधता का तात्पर्य यह है कि राज्य की सत्ता को नागरिकों और अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा स्वीकार किया जाता है। किसी शासन व्यवस्था की शक्ति तभी स्थायी रह सकती है जब वह विधिक और नैतिक रूप से वैध हो। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सरकार की वैधता चुनावों और जनसमर्थन पर निर्भर करती है, जबकि अधिनायकवादी प्रणालियों में इसे शक्ति और नियंत्रण द्वारा बनाए रखा जाता है।

4. अनविभाज्यता (Indivisibility):

संप्रभुता को विभाजित नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह राज्य की एकीकृत और अखंड शक्ति को दर्शाती है। इसका अर्थ यह है कि चाहे किसी देश में संघीय शासन प्रणाली हो, जहां विभिन्न स्तरों पर प्रशासनिक शक्तियां वितरित की जाती हैं, फिर भी संप्रभुता का अंतिम स्रोत राज्य ही रहता है। उदाहरण के लिए, भारत एक संघीय गणराज्य है, जहां केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का बंटवारा किया गया है, लेकिन संप्रभुता संपूर्ण रूप से राष्ट्र में निहित रहती है।

5. सार्वभौमिकता (Universality):

संप्रभुता की शक्ति राज्य के पूरे क्षेत्र और वहां रहने वाले प्रत्येक नागरिक, संस्था और संगठन पर लागू होती है। इसका अर्थ यह है कि राज्य के कानूनों और नीतियों का पालन सभी नागरिकों, सरकारी संस्थाओं, निजी संगठनों और अन्य निकायों को करना होता है। कोई भी व्यक्ति या संस्था राज्य की संप्रभुता से परे नहीं हो सकती। यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय संगठनों की उपस्थिति के बावजूद, राज्य अपनी नीतियों और कानूनों को लागू करने के लिए स्वतंत्र होता है, जब तक कि वह अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन न करे।

6. अंतरराष्ट्रीय मान्यता (International Recognition):

किसी भी राज्य की संप्रभुता पूर्ण रूप से प्रभावी तभी होती है जब उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त होती है। अन्य राष्ट्रों द्वारा मान्यता प्राप्त होना किसी राज्य की स्वतंत्र सत्ता के अस्तित्व को पुष्ट करता है और उसे वैश्विक समुदाय में भाग लेने की अनुमति देता है। संप्रभुता की यह विशेषता महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय संबंधों, कूटनीति, व्यापार और वैश्विक समझौतों में भागीदारी के लिए अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति आवश्यक होती है।

7. कानून निर्माण की शक्ति (Power to Make Laws):

संप्रभुता का एक और महत्वपूर्ण तत्व यह है कि एक संप्रभु राज्य को कानून बनाने, उन्हें लागू करने और उनके पालन को सुनिश्चित करने की अंतिम शक्ति प्राप्त होती है। राज्य अपनी आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुसार नीतियों का निर्धारण करता है और उन्हें लागू करता है। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका मिलकर इस शक्ति का संचालन करती हैं। कानूनों का निर्माण राज्य की संप्रभुता का एक महत्वपूर्ण प्रमाण होता है, क्योंकि यह शासन और व्यवस्था की स्थिरता को सुनिश्चित करता है।


संप्रभुता के प्रमुख सिद्धांत (Major Principles of Sovereignty):

संप्रभुता की अवधारणा को विभिन्न राजनीतिक सिद्धांतों और दृष्टिकोणों के माध्यम से समझा गया है। यह न केवल किसी राज्य की स्वतंत्रता और सर्वोच्चता को परिभाषित करती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि सत्ता का प्रयोग कैसे और किसके द्वारा किया जाता है। संप्रभुता के विभिन्न सिद्धांत निम्नलिखित हैं:

1. आंतरिक संप्रभुता (Internal Sovereignty):

यह सिद्धांत राज्य की संप्रभुता को उसकी भौगोलिक सीमाओं के भीतर सर्वोच्च और अंतिम अधिकार के रूप में परिभाषित करता है। इसका अर्थ है कि राज्य के भीतर कोई भी संस्था—चाहे वह सरकार हो, न्यायपालिका हो, या नागरिक हों—राज्य की संप्रभुता को चुनौती नहीं दे सकते। राज्य का शासन अपने कानूनों, नीतियों और निर्णयों को लागू करने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र होता है, और इनका पालन सभी आंतरिक संस्थाओं पर अनिवार्य होता है।

उदाहरण:

भारत के संदर्भ में, संविधान के अनुसार संसद और राष्ट्रपति मिलकर कानून निर्माण की प्रक्रिया को संचालित करते हैं और संप्रभुता का अनुपालन सुनिश्चित करते हैं।

2. बाह्य संप्रभुता (External Sovereignty):

बाह्य संप्रभुता का तात्पर्य किसी राज्य की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वतंत्रता और मान्यता से है। यह सुनिश्चित करता है कि कोई अन्य राष्ट्र, संगठन, या शक्ति किसी स्वतंत्र राज्य के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। यह संप्रभुता अंतरराष्ट्रीय कानूनों और संधियों के अनुसार कार्य करते हुए भी अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने पर आधारित होती है।

उदाहरण:

भारत संयुक्त राष्ट्र का सदस्य होते हुए भी अपने आंतरिक मामलों में पूर्णतः स्वतंत्र है और अपनी विदेश नीति स्वयं तय करता है।

3. लोकतांत्रिक संप्रभुता (Democratic Sovereignty):

इस सिद्धांत के अनुसार, जनता ही संप्रभु शक्ति का वास्तविक स्रोत होती है। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में शासन प्रणाली इस सिद्धांत पर आधारित होती है कि सरकार और प्रशासन केवल जनता की इच्छाओं के अनुरूप कार्य करेंगे। यह लोकतांत्रिक व्यवस्था की मूलभूत अवधारणा को दर्शाता है, जिसमें जनता अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करके सत्ता को नियंत्रित करती है।

उदाहरण:

भारत में लोकतंत्र के आधार पर नागरिक चुनावों के माध्यम से अपने प्रतिनिधियों का चयन करते हैं, जो सरकार चलाते हैं और नीति निर्माण करते हैं।

4. आधिकारिक संप्रभुता (Legal Sovereignty):

यह सिद्धांत कानूनी संप्रभुता पर केंद्रित है, जिसमें कानून निर्माण और उनका क्रियान्वयन सर्वोच्च होता है। विधायिका द्वारा पारित कानून संप्रभुता का एक अभिन्न हिस्सा होते हैं, और इनका पालन करना सभी नागरिकों, संस्थानों और सरकारी निकायों के लिए अनिवार्य होता है। यह सिद्धांत उन राज्यों में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है जहां शासन संविधान पर आधारित होता है।

उदाहरण:

भारत में संसद द्वारा बनाए गए कानून संप्रभुता का प्रतीक हैं, और देश के सभी नागरिकों को इनका पालन करना आवश्यक होता है।

5. राजनीतिक संप्रभुता (Political Sovereignty):

राज्य की वास्तविक शक्ति उन राजनीतिक संस्थाओं में निहित होती है, जो शासन को संचालित करती हैं और निर्णय लेने की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यह संप्रभुता सरकार, राजनीतिक दलों, प्रशासकीय संस्थाओं और जनप्रतिनिधियों के अधिकार को रेखांकित करती है, जो नीति निर्माण और क्रियान्वयन में संलग्न होते हैं।

उदाहरण:

भारत में प्रधानमंत्री, मंत्रिमंडल, और संसद की भूमिका राजनीतिक संप्रभुता को दर्शाती है, क्योंकि वे देश के प्रशासन और निर्णय लेने की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

6. सार्वभौमिक संप्रभुता (Universal Sovereignty):

यह सिद्धांत कानूनी और राजनीतिक संप्रभुता से परे जाकर नैतिकता, न्याय, और मानवीय मूल्यों की सार्वभौमिकता को स्वीकार करता है। इसके अनुसार, किसी भी राज्य को अपनी नीतियों और निर्णयों में मानवीय मूल्यों और नैतिक सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। यह अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानूनों और वैश्विक न्याय प्रणाली की संकल्पना से जुड़ा हुआ है।

उदाहरण:

यदि किसी देश में मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है, तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय और संगठन उस पर हस्तक्षेप कर सकते हैं, जैसा कि कई वैश्विक संधियों और मानवाधिकार घोषणाओं में देखा जाता है।

7. संविधानात्मक संप्रभुता (Constitutional Sovereignty):

संविधानात्मक संप्रभुता का तात्पर्य इस सिद्धांत से है कि किसी भी राष्ट्र में संविधान सर्वोच्च होता है और सभी सरकारी निकायों, नागरिकों, और संस्थानों को इसके दायरे में रहकर कार्य करना होता है। यह सिद्धांत संवैधानिक लोकतंत्रों में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जहां शासन व्यवस्था संविधान के अनुसार संचालित होती है।

उदाहरण:

भारत में संविधान को सर्वोच्च कानून का दर्जा प्राप्त है, और देश की संप्रभुता संविधान द्वारा निर्देशित होती है। सभी सरकारी संस्थाओं और नागरिकों को संवैधानिक प्रावधानों का पालन करना अनिवार्य होता है।

संप्रभुता से जुड़े विवाद और चुनौतियाँ (Disputes and Challenges Related to Sovereignty):

संप्रभुता एक राष्ट्र की स्वतंत्रता और सर्वोच्चता को दर्शाती है, लेकिन बदलते वैश्विक परिदृश्य में इसे कई आंतरिक और बाह्य चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। विभिन्न राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक कारणों के चलते कई बार संप्रभुता पर प्रश्नचिह्न लग जाते हैं। इस संदर्भ में संप्रभुता से जुड़ी कुछ प्रमुख चुनौतियाँ निम्नलिखित हैं:

1. वैश्वीकरण (Globalization):

वैश्वीकरण के बढ़ते प्रभाव के कारण राष्ट्रीय संप्रभुता सीमित होती जा रही है। आर्थिक, राजनीतिक और तकनीकी क्षेत्र में देशों की आपसी निर्भरता बढ़ने से सरकारों की स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित हो रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएँ (जैसे—विश्व व्यापार संगठन (WTO), अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF), और विश्व बैंक) तथा वैश्विक बाजार नीतियाँ संप्रभुता को चुनौती देती हैं।

उदाहरण:

बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ कई बार सरकार की नीतियों को प्रभावित करती हैं, जिससे किसी देश के आर्थिक निर्णय पूरी तरह स्वतंत्र नहीं रह जाते।

2. अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप (International Intervention):

संप्रभुता की एक बड़ी चुनौती अंतरराष्ट्रीय संगठनों और शक्तिशाली देशों द्वारा किसी राष्ट्र के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप है। कई बार संयुक्त राष्ट्र (UN), मानवाधिकार संगठन, और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) किसी देश की संप्रभुता को दरकिनार कर हस्तक्षेप करते हैं, खासकर जब किसी देश में मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है या राजनीतिक अस्थिरता बढ़ जाती है।

उदाहरण:

सीरिया, इराक और अफगानिस्तान में बाहरी देशों का सैन्य हस्तक्षेप संप्रभुता के उल्लंघन का उदाहरण है।

3. सीमा विवाद (Border Disputes):

सीमा विवाद बाह्य संप्रभुता के लिए सबसे बड़ी चुनौती माने जाते हैं। जब दो या अधिक देश किसी विशेष क्षेत्र पर अपना अधिकार जताते हैं, तो इससे टकराव उत्पन्न होता है और अंतरराष्ट्रीय संबंध प्रभावित होते हैं। कई बार ऐसे विवाद सशस्त्र संघर्ष का रूप भी ले सकते हैं।

उदाहरण:

भारत और चीन के बीच अरुणाचल प्रदेश तथा लद्दाख क्षेत्र में सीमा विवाद लंबे समय से चला आ रहा है, जिससे दोनों देशों के संबंध प्रभावित होते रहते हैं।

4. आंतरिक अस्थिरता (Internal Instability):

किसी भी देश में यदि आंतरिक स्तर पर अस्थिरता बनी रहती है, तो इससे उसकी संप्रभुता कमजोर हो सकती है। अलगाववादी आंदोलन, सशस्त्र विद्रोह, जातीय संघर्ष और आतंकवाद संप्रभुता के लिए गंभीर चुनौती पेश करते हैं। यदि सरकार अपने ही क्षेत्र में कानून और व्यवस्था बनाए रखने में विफल रहती है, तो बाहरी शक्तियाँ इसका लाभ उठाकर हस्तक्षेप कर सकती हैं।

उदाहरण:

कश्मीर और उत्तर-पूर्वी भारत में अलगाववादी गतिविधियाँ भारतीय संप्रभुता के लिए चुनौती बनी रहती हैं, जिससे सरकार को सुरक्षा और प्रशासनिक स्तर पर सख्त कदम उठाने पड़ते हैं।

संप्रभुता के प्रमुख प्रकार (Types of Sovereignty):

संप्रभुता एक व्यापक राजनीतिक अवधारणा है, जो विभिन्न संदर्भों में भिन्न-भिन्न रूप ले सकती है। विभिन्न राजनीतिक विचारकों और संवैधानिक संरचनाओं के आधार पर इसे कई प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है। संप्रभुता के कुछ प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं:

1. विधायी संप्रभुता (Legislative Sovereignty):

इस प्रकार की संप्रभुता में राज्य की विधायिका को कानून बनाने की सर्वोच्च शक्ति प्राप्त होती है। यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी अन्य संस्था, चाहे वह कार्यपालिका हो या न्यायपालिका, विधायिका के निर्णयों को पलट नहीं सकती। विधायी संप्रभुता का मुख्य उद्देश्य कानून निर्माण, संशोधन और निरसन की स्वतंत्रता प्रदान करना है।

उदाहरण:

ब्रिटेन की संसद पूर्ण विधायी संप्रभुता का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। वहाँ संसद जो भी कानून बनाती है, वह सर्वोच्च होता है और किसी भी न्यायालय या अन्य संस्था द्वारा उसे अमान्य नहीं किया जा सकता।

2. लोकतांत्रिक संप्रभुता (Democratic Sovereignty):

यह संप्रभुता लोकतंत्र की अवधारणा पर आधारित है, जहाँ जनता को सर्वोच्च शक्ति का स्रोत माना जाता है। नागरिकों को अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करने का अधिकार प्राप्त होता है, जो उनके हितों की रक्षा करते हुए शासन करते हैं। इस प्रणाली में सरकार जनता की इच्छा के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य होती है।

उदाहरण:

भारत में संसदीय लोकतंत्र के तहत नागरिक अपने प्रतिनिधियों को चुनकर सत्ता में भेजते हैं। सरकार को जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप कार्य करना पड़ता है, अन्यथा अगले चुनावों में उसे सत्ता से हटाया जा सकता है।

3. नैतिक संप्रभुता (Moral Sovereignty):

नैतिक संप्रभुता उस सिद्धांत को दर्शाती है, जिसमें राज्य केवल कानूनी शक्ति तक सीमित नहीं रहता, बल्कि उसे नैतिकता, मानवाधिकारों और सामाजिक न्याय के उच्च मानकों का पालन करना होता है। यह संप्रभुता किसी भी शासन को केवल शक्ति-आधारित नहीं, बल्कि नैतिक जिम्मेदारी-आधारित बनाती है।

उदाहरण:

कई देशों में मानवाधिकार आयोग और सामाजिक न्याय प्रणाली नैतिक संप्रभुता को बनाए रखने का कार्य करते हैं, ताकि अल्पसंख्यकों और वंचित वर्गों के अधिकारों की रक्षा की जा सके।

4. कानूनी संप्रभुता (Legal Sovereignty):

कानूनी संप्रभुता का अर्थ यह है कि किसी राज्य में जो भी विधिक नियम और कानून बनाए जाते हैं, वे सर्वोच्च होते हैं और सभी नागरिकों व संस्थानों को उनका पालन करना आवश्यक होता है। यह सुनिश्चित करता है कि न्यायिक और प्रशासनिक कार्य संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार हों।

उदाहरण:

संविधान की सर्वोच्चता वाले देश, जैसे भारत और अमेरिका, कानूनी संप्रभुता का पालन करते हैं, जहाँ सभी सरकारी निर्णय और नीतियाँ संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप होती हैं।

5. राजनीतिक संप्रभुता (Political Sovereignty):

राजनीतिक संप्रभुता उस वास्तविक शक्ति को इंगित करती है, जिसके द्वारा शासन का संचालन होता है। यह कानूनी संप्रभुता से अलग होती है क्योंकि इसमें सरकार, राजनीतिक दलों, और प्रशासनिक निकायों की भूमिका प्रमुख होती है। हालाँकि कानूनी रूप से विधायिका सर्वोच्च हो सकती है, लेकिन वास्तविक नियंत्रण राजनीतिक संस्थाओं के पास होता है।

उदाहरण:

भारत में प्रधानमंत्री, मंत्रिमंडल और विभिन्न राजनीतिक दलों की भूमिका राजनीतिक संप्रभुता का परिचायक है, क्योंकि वे नीति निर्माण और प्रशासनिक निर्णयों में प्रमुख भूमिका निभाते हैं।

6. लोकप्रिय संप्रभुता (Popular Sovereignty):

इस संप्रभुता के अनुसार, संप्रभु शक्ति जनता में निहित होती है। यह लोकतांत्रिक संप्रभुता से मेल खाती है लेकिन इसमें जनता की सीधी भागीदारी को अधिक महत्व दिया जाता है, जैसे कि जनमत संग्रह (Referendum) और प्रत्यक्ष लोकतंत्र।

उदाहरण:

स्विट्ज़रलैंड में कई महत्वपूर्ण नीतिगत निर्णयों के लिए जनमत संग्रह कराया जाता है, जिससे नागरिक सीधे नीतिगत फैसलों में भाग लेते हैं।

7. आर्थिक संप्रभुता (Economic Sovereignty):

आर्थिक संप्रभुता का अर्थ है कि किसी राष्ट्र के पास अपनी आर्थिक नीतियों को स्वतंत्र रूप से निर्धारित करने का अधिकार हो। इसमें कराधान, व्यापार नीति, औद्योगिक विकास, और संसाधनों के उपयोग से जुड़े फैसले शामिल होते हैं। हालाँकि वैश्वीकरण और अंतरराष्ट्रीय व्यापार समझौतों ने आर्थिक संप्रभुता को सीमित कर दिया है।

उदाहरण:

भारत ने 1991 में आर्थिक उदारीकरण की नीति अपनाई, जिससे वैश्विक बाजार से जुड़ाव बढ़ा, लेकिन इससे आर्थिक संप्रभुता पर भी कुछ हद तक प्रभाव पड़ा।

8. संघीय संप्रभुता (Federal Sovereignty):

संघीय संप्रभुता उन देशों में लागू होती है जहाँ सरकार दो या अधिक स्तरों में विभाजित होती है, जैसे कि केंद्र और राज्य सरकारें। हालाँकि संप्रभुता का अंतिम केंद्र संविधान होता है, लेकिन विभिन्न स्तरों की सरकारों को अपने अधिकार क्षेत्रों में स्वायत्तता प्राप्त होती है।

उदाहरण:

संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत में संघीय संरचना के तहत केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का बंटवारा होता है, जिससे राज्यों को सीमित स्वायत्तता मिलती है।

9. धार्मिक संप्रभुता (Religious Sovereignty):

यह संप्रभुता धर्म-आधारित शासन प्रणालियों में देखी जाती है, जहाँ धार्मिक संस्थाएँ या धार्मिक सिद्धांत शासन प्रणाली को नियंत्रित करते हैं। यह मुख्य रूप से धर्मतांत्रिक (Theocratic) सरकारों में लागू होती है।

उदाहरण:

सऊदी अरब और ईरान में इस्लामी कानून (शरिया) के आधार पर शासन होता है, जिससे धार्मिक संप्रभुता लागू होती है।

संप्रभुता के आधुनिक संदर्भ

आधुनिक युग में, संप्रभुता की अवधारणा में कई बदलाव हुए हैं।

1. वैश्वीकरण का प्रभाव:

अंतरराष्ट्रीय संगठनों जैसे संयुक्त राष्ट्र, विश्व व्यापार संगठन (WTO) आदि ने राज्यों की बाहरी संप्रभुता पर प्रभाव डाला है।

2. मानवाधिकार और संप्रभुता:

आज, राज्य की संप्रभुता मानवाधिकारों के पालन से जुड़ी है। यदि कोई राज्य मानवाधिकारों का उल्लंघन करता है, तो अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप की संभावना बढ़ जाती है।

3. डिजिटल युग में संप्रभुता:

साइबर सुरक्षा, डेटा सुरक्षा, और ऑनलाइन गतिविधियों के बढ़ते प्रभाव ने संप्रभुता की नई चुनौतियों को जन्म दिया है।

निष्कर्ष

संप्रभुता एक गतिशील अवधारणा है, जो समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती है। जहां पहले इसे पूर्ण और निरंकुश माना जाता था, वहीं आज यह सीमित और उत्तरदायी हो गई है। यह केवल राज्य की स्वतंत्रता को परिभाषित करती है, बल्कि उसकी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को भी दर्शाती है। विभिन्न पुस्तकों और सिद्धांतों के माध्यम से यह स्पष्ट होता है कि संप्रभुता केवल अधिकार का प्रतीक नहीं है, बल्कि नैतिकता और कानून का अनुपालन भी है।

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