Ashtanga Yoga of Patanjali: Yama, Niyama, Asana, Pranayama, Pratyahara, Dharana, Dhyana, Samadhi पतंजलि का अष्टांग योग: आत्मविकास और आध्यात्मिक प्रबोधन की सीढ़ियाँ
प्रस्तावना (Introduction):
योग भारत की प्राचीन संस्कृति और दर्शन की एक अद्वितीय और कालजयी धरोहर है, जो केवल शारीरिक क्रियाओं या व्यायामों का समुच्चय नहीं, बल्कि जीवन के सम्पूर्ण आयामों को संतुलित और समरस बनाने की वैज्ञानिक प्रक्रिया है। इसका उद्देश्य केवल रोगमुक्त या लचीला शरीर प्राप्त करना नहीं है, बल्कि यह मनुष्य की चेतना को जाग्रत कर उसे आत्म-ज्ञान और ब्रह्म-ज्ञान की दिशा में अग्रसर करना है। महर्षि पतंजलि ने योग के इस मार्ग को एक सुव्यवस्थित और सूत्रबद्ध रूप में प्रस्तुत किया, जिसे 'अष्टांग योग' कहा गया। 'अष्टांग' का अर्थ है – आठ अंगों से युक्त मार्ग, जो साधक को बाह्य आचरण से लेकर अंतःकरण की पूर्ण शुद्धि और आत्मसाक्षात्कार तक ले जाता है। ये आठ अंग – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि – न केवल आचरण और शरीर को अनुशासित करते हैं, बल्कि मानसिक स्थिरता और आत्मिक शुद्धता की ओर भी मार्गदर्शन करते हैं। वर्तमान समय, जहाँ व्यक्ति तनाव, चिंता, और असंतुलन से जूझ रहा है, अष्टांग योग जीवन को एक नई दिशा देने वाला एक सक्षम साधन सिद्ध हो सकता है। यह साधक को बाह्य विकर्षणों से हटाकर आंतरिक चेतना की ओर ले जाता है, जिससे वह न केवल मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ होता है, बल्कि आध्यात्मिक ऊँचाइयों को भी स्पर्श करता है। अष्टांग योग की यह पद्धति जीवन को समग्रता में जीने की कला सिखाती है – एक ऐसा जीवन जो संयम, शांति, साधना और समर्पण से परिपूर्ण हो।
1. यम (Yama) – सामाजिक जीवन का नैतिक आधार
अष्टांग योग का पहला चरण 'यम' है, जो हमारे सामाजिक और नैतिक जीवन की नींव है। यह वह चरण है जो व्यक्ति को बाह्य जीवन में संयम, अनुशासन और नैतिक शुद्धता का मार्ग दिखाता है। यम उन नियमों का समुच्चय है, जिनका पालन करके कोई भी साधक अपने सामाजिक व्यवहार को संतुलित कर सकता है। यह न केवल दूसरों के साथ सह-अस्तित्व की भावना को प्रबल करता है, बल्कि व्यक्ति के भीतर सहिष्णुता, धैर्य और करुणा जैसे गुणों का विकास करता है। यम के पाँच सिद्धांत व्यक्ति को बाहरी संसार से संतुलन बनाते हुए भी अपने आंतरिक स्वरूप की ओर अग्रसर करते हैं।
1. अहिंसा (Ahimsa):
अहिंसा, यम का पहला और सबसे महत्वपूर्ण अंग है, जो संपूर्ण योग साधना की बुनियाद है। यह केवल किसी को शारीरिक कष्ट न पहुँचाने की नीति नहीं है, बल्कि सोच, भावना, शब्द और कर्म – सभी स्तरों पर दूसरों को किसी भी प्रकार की हानि न पहुँचाने का संकल्प है। एक सच्चा अहिंसक व्यक्ति अपने व्यवहार में दया, सहानुभूति और सहिष्णुता को स्थान देता है। वह किसी भी परिस्थिति में क्रोध, द्वेष या प्रतिशोध से प्रेरित नहीं होता। अहिंसा केवल निष्क्रियता नहीं, बल्कि प्रेम, करुणा और ममत्व की सक्रिय अभिव्यक्ति है, जो व्यक्ति को मानव मात्र के प्रति संवेदनशील बनाती है।
2. सत्य (Satya):
सत्य, जीवन की आत्मा है। इसका अर्थ केवल सच बोलना नहीं है, बल्कि अपने विचारों, भावनाओं और कार्यों में पूर्ण ईमानदारी और पारदर्शिता बनाए रखना भी है। सत्य का पालन करने वाला व्यक्ति न तो छल-कपट करता है और न ही किसी भी प्रकार के दिखावे में विश्वास रखता है। उसका जीवन अपने आप में एक खुली पुस्तक होता है, जिससे दूसरों को भी सत्य की प्रेरणा मिलती है। सत्य की साधना व्यक्ति को आत्मबोध, साहस और स्पष्टता प्रदान करती है। यह आध्यात्मिक यात्रा की अनिवार्य शर्त है क्योंकि बिना सत्य के कोई आत्मज्ञान नहीं संभव।
3. अस्तेय (Asteya):
अस्तेय का तात्पर्य है – चोरी न करना, परंतु यह केवल भौतिक वस्तुओं की चोरी तक सीमित नहीं है। इसका व्यापक अर्थ है – किसी के विचार, श्रम, समय या अवसर को भी अनुचित रूप से ग्रहण न करना। यह गुण व्यक्ति के भीतर संतोष, मर्यादा और न्याय का भाव उत्पन्न करता है। अस्तेय का पालन करने वाला व्यक्ति दूसरों की वस्तुओं या उपलब्धियों पर नज़र नहीं डालता, बल्कि स्वयं के परिश्रम और संसाधनों से जीवन यापन करना चाहता है। यह भावना व्यक्ति को मानसिक शांति और आत्म-सम्मान देती है तथा लोभ और तुलना की प्रवृत्तियों से मुक्त करती है।
4. ब्रह्मचर्य (Brahmacharya):
ब्रह्मचर्य का सामान्य अर्थ इंद्रियों पर संयम रखना है, परंतु इसका गूढ़ अर्थ इससे कहीं अधिक व्यापक और गहरा है। यह विचारों की पवित्रता, भावनाओं की निर्मलता और जीवन की दिशा को ईश्वर की ओर केंद्रित करने की साधना है। ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला व्यक्ति अपनी ऊर्जा को व्यर्थ की वासनाओं में न गंवाकर उसे ज्ञान, सेवा और ध्यान की दिशा में लगाता है। यह साधक को मानसिक संतुलन, स्थिरता और आध्यात्मिक गहराई प्रदान करता है। ब्रह्मचर्य वह शक्ति है जो व्यक्ति को आत्मसंयम से परमचेतना तक की यात्रा में समर्थ बनाती है।
5. अपरिग्रह (Aparigraha):
अपरिग्रह जीवन में अनावश्यक संग्रह की प्रवृत्ति का त्याग है। यह भोग-विलास, लालच और अनियंत्रित इच्छाओं से स्वयं को मुक्त करने की प्रेरणा देता है। अपरिग्रह का अभ्यास साधक को सादगी, स्वतंत्रता और वैराग्य की ओर ले जाता है। यह समझ पैदा होती है कि भौतिक वस्तुएँ केवल आवश्यकता तक ही सीमित होनी चाहिए, अन्यथा वे मनुष्य को बाँधने लगती हैं। जब व्यक्ति संग्रह की प्रवृत्ति छोड़ देता है, तब उसका मन हल्का और स्पष्ट होता है, जिससे वह आत्मनिरीक्षण और साधना के लिए अधिक सक्षम बनता है। यह गुण व्यक्ति को अंतर्मुखी बनाकर आत्मा की खोज की दिशा में अग्रसर करता है।
2. नियम (Niyama) – आंतरिक अनुशासन और आत्मविकास की दिशा
अष्टांग योग का दूसरा अंग ‘नियम’ है, जो बाह्य जीवन से भीतर की यात्रा की शुरुआत करता है। यम जहाँ सामाजिक आचरण से जुड़ा हुआ है, वहीं नियम का संबंध आत्म-अनुशासन, आंतरिक शुद्धता और आत्मिक उन्नति से है। ये नियम व्यक्ति को आत्मनिरीक्षण, आत्मनियंत्रण और आध्यात्मिक प्रगति की ओर प्रेरित करते हैं। नियमों का पालन साधक को आत्मविकास की दिशा में ले जाता है, जिससे वह अपने जीवन को अधिक अनुशासित, केंद्रित और सकारात्मक बना पाता है। नियम के पाँच अंग हैं, जो क्रमशः शारीरिक और मानसिक शुद्धि से लेकर ईश्वर से तादात्म्य तक की राह प्रशस्त करते हैं।
1. शौच (Shaucha):
शौच का तात्पर्य केवल शरीर की सफाई से नहीं है, बल्कि मन, वचन और आत्मा की पवित्रता से भी है। बाह्य शौच में शरीर, वस्त्र, और पर्यावरण की स्वच्छता आती है, जो स्वास्थ्य और स्फूर्ति के लिए आवश्यक है। वहीं आंतरिक शौच में नकारात्मक विचारों, ईर्ष्या, क्रोध, लोभ, और मोह जैसे मानसिक विकारों से मुक्ति का अभ्यास होता है। जब व्यक्ति भीतर और बाहर दोनों स्तरों पर शुद्ध होता है, तब वह अधिक स्पष्टता, संतुलन और शांति का अनुभव करता है। शौच साधक को आत्मानुभूति के लिए उपयुक्त मानसिक और भावनात्मक भूमि प्रदान करता है।
2. संतोष (Santosha):
संतोष वह गुण है जो व्यक्ति को वर्तमान में पूर्णता का अनुभव कराता है। यह बाहरी उपलब्धियों से अधिक आंतरिक स्वीकार्यता पर आधारित होता है। संतोष का अभ्यास करने वाला व्यक्ति जीवन की प्रत्येक परिस्थिति को एक अवसर के रूप में स्वीकार करता है, और निरंतर शिकायत की बजाय आभार की भावना में जीता है। संतोष मन को स्थिरता, सादगी और प्रसन्नता की ओर ले जाता है। यह इच्छाओं के अनियंत्रित प्रवाह को रोककर साधक को भीतर की ओर मोड़ता है, जहाँ उसे आत्मा की पूर्णता का बोध होता है। यह योगिक जीवन का अनिवार्य स्तंभ है।
3. तप (Tapa):
तप का अर्थ है – आत्मसंयम, अनुशासन और कठिन परिस्थितियों में भी लक्ष्य के प्रति अडिग रहना। यह एक ऐसा आंतरिक ज्वालामुखी है, जो साधक के भीतर की दुर्बलताओं को जलाकर उसमें शक्ति, धैर्य और संकल्प का संचार करता है। तप का अभ्यास व्यक्ति को जीवन के हर क्षेत्र में दृढ़ बनाता है, चाहे वह शारीरिक साधना हो, मानसिक अनुशासन हो या आध्यात्मिक साधना। यह वह शक्ति है जो आत्मा को उसकी सीमाओं से परे उठाकर दिव्यता की ओर ले जाती है। तप वह अग्नि है जिसमें अहंकार, आलस्य और मोह की अशुद्धियाँ जलती हैं और शुद्ध चेतना प्रकट होती है।
4. स्वाध्याय (Swadhyaya):
स्वाध्याय का तात्पर्य है – आत्मज्ञान की प्राप्ति हेतु शास्त्रों, वेदों, उपनिषदों, और अन्य आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन। यह केवल बौद्धिक जानकारी नहीं, बल्कि अपने भीतर झाँकने का अभ्यास है। स्वाध्याय के माध्यम से साधक यह समझता है कि वह कौन है, उसका उद्देश्य क्या है, और उसे किस दिशा में अग्रसर होना है। यह अभ्यास व्यक्ति को अहंकार से मुक्त करता है और आत्म-साक्षात्कार की राह पर अग्रसर करता है। स्वाध्याय आत्मा को पोषण देने वाला ज्ञान है, जो भीतर की रोशनी को प्रज्वलित करता है।
5. ईश्वर प्रणिधान (Ishwar Pranidhan):
ईश्वर प्रणिधान का अर्थ है – अपनी सभी क्रियाओं, भावनाओं और परिणामों को ईश्वर को समर्पित कर देना। यह अहंकार का पूर्ण त्याग है, जहाँ साधक यह स्वीकार करता है कि वह केवल माध्यम है और अंतिम सत्ता ईश्वर की है। जब व्यक्ति अपने प्रयासों के फल की चिंता छोड़े बिना कर्म करता है, और उसे ईश्वर की इच्छा मानकर स्वीकार करता है, तब वह सच्चे आत्मसमर्पण की अवस्था को प्राप्त करता है। ईश्वर प्रणिधान से विश्वास, समर्पण और शांति की भावना विकसित होती है, जो जीवन को सरल और समर्पणमय बना देती है। यह योग का चरम बिंदु है, जहाँ साधक और ईश्वर में भेद समाप्त हो जाता है।
3. आसन (Asana) – शरीर और मन की स्थिरता का माध्यम
आसन योग का वह चरण है जहाँ साधक अपने शरीर को स्थिर और आरामदायक स्थिति में रखता है। यह केवल शारीरिक क्रियाएँ या कसरत नहीं हैं, बल्कि आत्मिक साधना की मजबूत नींव है। "स्थिरसुखमासनम्" के अनुसार, वह आसन जो लंबे समय तक बिना असहजता के बनाए रखा जा सके, वही सच्चा योगिक आसन है। आसन का नियमित अभ्यास शरीर को सुदृढ़, लचीला और संतुलित बनाता है। यह शरीर की सभी मांसपेशियों, जोड़ों और आंतरिक अंगों पर सकारात्मक प्रभाव डालता है। जब शरीर स्थिर होता है, तब मन भी धीरे-धीरे शांत और एकाग्र होने लगता है। यही स्थिरता और संतुलन साधक को ध्यान की गहराइयों में उतरने में सहायता करता है। आसनों के माध्यम से व्यक्ति बाहरी हलचल से हटकर अपने भीतर की दुनिया में प्रवेश करने लगता है, जहाँ आत्मिक शांति और स्थायित्व का अनुभव होता है।
4. प्राणायाम (Pranayama) – प्राणशक्ति का जागरण और नियंत्रण
प्राणायाम का शाब्दिक अर्थ है – "प्राण" अर्थात् जीवनशक्ति और "आयाम" अर्थात् विस्तार या नियंत्रण। यह योग का वह चरण है जिसमें साधक अपनी श्वास प्रक्रिया के माध्यम से प्राणशक्ति का नियंत्रण और जागरण करता है। श्वास के लयबद्ध संचालन से मन की चंचलता पर अंकुश लगता है और शरीर में ऊर्जा का प्रवाह संतुलित होता है।
प्राणायाम के तीन मुख्य भाग होते हैं:
पूरक (Inhalation): श्वास को गहराई से भरना, जिससे जीवनशक्ति का संचार हो।
कुंभक (Retention): श्वास को रोककर प्राणशक्ति को संचित करना, जिससे भीतर ऊर्जा का केंद्र मजबूत हो।
रेचक (Exhalation): श्वास को धीरे-धीरे और नियंत्रित ढंग से बाहर निकालना, जिससे शरीर और मन से विषाक्तता निकलती है।
प्राणायाम न केवल फेफड़ों और हृदय की क्षमता को बढ़ाता है, बल्कि यह मानसिक स्पष्टता, भावनात्मक संतुलन और आत्मिक चेतना को भी विकसित करता है। यह ध्यान के लिए आवश्यक मानसिक अवस्था की तैयारी करता है।
5. प्रत्याहार (Pratyahara) – इंद्रियों का संयम और आत्म-अवलोकन
प्रत्याहार अष्टांग योग का वह चरण है जहाँ साधक अपनी इंद्रियों को बाहरी विषय-वस्तुओं से हटाकर भीतर की ओर मोड़ता है। यह एक प्रकार का आत्म-अवलोकन है, जिसमें व्यक्ति बाह्य आकर्षणों से दूर होकर अपने अंदर झाँकने लगता है। सामान्यतः हमारी पाँचों इंद्रियाँ – नेत्र, कान, नाक, जीभ, और त्वचा – बाहरी जगत की ओर आकर्षित रहती हैं। प्रत्याहार के अभ्यास से ये इंद्रियाँ नियंत्रित होती हैं और मन अंतर्मुखी बनता है। यह साधक को ध्यान और आत्मचिंतन के लिए अनुकूल अवस्था में लाता है। प्रत्याहार से मन पर इंद्रियों का प्रभाव कम होता है और आत्मा के सच्चे स्वरूप का अनुभव संभव होता है। यह अभ्यास मानसिक संकल्प शक्ति को दृढ़ करता है और साधक को आत्म-ज्ञान की ओर प्रेरित करता है।
6. धारणा (Dharana) – मन की एकाग्रता की प्रथम सीढ़ी
धारणा वह स्थिति है जहाँ साधक अपने मन को किसी एक बिंदु, मंत्र, प्रतीक या विचार पर केंद्रित करता है। यह अभ्यास मन को भटकने से रोकता है और उसे एक दिशा में स्थिर करता है। हमारा मन स्वभावतः चंचल होता है, वह बार-बार विचारों में उलझता रहता है। धारणा के माध्यम से इसे अनुशासित किया जाता है। जब व्यक्ति नियमित रूप से किसी एक चीज़ पर ध्यान केंद्रित करता है, तो उसकी एकाग्रता शक्ति बढ़ती है और वह ध्यान के गहरे स्तर में प्रवेश करने के लिए तैयार होता है।
धारणा से न केवल मानसिक अनुशासन विकसित होता है, बल्कि यह आत्मविश्वास, स्मरण शक्ति और बौद्धिक स्पष्टता को भी सशक्त करता है। यह वह सीढ़ी है जिससे होकर ध्यान और समाधि की ऊँचाइयों तक पहुँचा जा सकता है।
7. ध्यान (Dhyana) – आत्मा से साक्षात्कार की अवस्था
ध्यान, योग का अत्यंत सूक्ष्म और गहन अभ्यास है, जिसमें साधक निरंतर एक बिंदु पर मन को स्थिर करता है और बाहरी एवं आंतरिक विकर्षणों से मुक्त होकर आत्मिक चेतना से जुड़ने लगता है। ध्यान कोई प्रयास नहीं, बल्कि एक स्वाभाविक अवस्था है जो धारणा की निरंतरता से उत्पन्न होती है। इसमें मन में विचारों की लहरें शांति पाने लगती हैं और साधक वर्तमान क्षण में पूरी तरह उपस्थित होता है।
ध्यान से मानसिक तनाव दूर होता है, चित्त शुद्ध होता है और अंतःकरण में शांति का संचार होता है। यह आत्मा के साथ एक गहरा संवाद है, जो अंततः आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान की ओर ले जाता है। ध्यान व्यक्ति को उसकी वास्तविक पहचान से परिचित कराता है और जीवन को अर्थपूर्ण बनाता है।
8. समाधि (Samadhi) – परम चेतना में विलय
समाधि अष्टांग योग की अंतिम और सर्वोच्च अवस्था है, जहाँ साधक अपने अहंकार, विचार और शारीरिक बोध से परे जाकर ब्रह्म से एकात्मता का अनुभव करता है। यह आत्म-साक्षात्कार की चरम अवस्था है। समाधि में साधक का चित्त पूर्ण रूप से शांत और निर्विकल्प होता है। वहाँ कोई द्वैत नहीं होता – न साधक, न साधना और न साध्य। केवल शुद्ध चेतना शेष रह जाती है। यह वह अवस्था है जहाँ आत्मा और परमात्मा का भेद समाप्त हो जाता है। समाधि से व्यक्ति जीवन के सत्य को अनुभव करता है – अनंत शांति, आनंद और मुक्तता। यह मोक्ष की स्थिति है, जहाँ जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिलती है। यही योग का परम उद्देश्य है – ब्रह्म के साथ पूर्ण एकत्व।
निष्कर्ष (Conclusion):
महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग केवल योगाभ्यास की एक पद्धति मात्र नहीं है, बल्कि यह मानव जीवन को सम्पूर्णता की ओर ले जाने वाली एक सुव्यवस्थित और वैज्ञानिक प्रणाली है। यह योग मार्ग केवल शरीर को स्वस्थ और मन को शांत रखने का माध्यम नहीं है, बल्कि यह आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की साधना भी है। अष्टांग योग के आठ अंग – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि – क्रमशः साधक को बाहरी अनुशासन से लेकर आंतरिक शुद्धता और आध्यात्मिक जागरूकता की ओर ले जाते हैं। इन आठ सोपानों के माध्यम से व्यक्ति अपने जीवन को संयमित, संतुलित और सार्थक बनाता है। यम और नियम के द्वारा वह सामाजिक और व्यक्तिगत अनुशासन को अपनाता है; आसन और प्राणायाम से शारीरिक स्वास्थ्य और ऊर्जावान चित्त प्राप्त करता है; प्रत्याहार, धारणा और ध्यान द्वारा मन और इंद्रियों पर नियंत्रण प्राप्त करता है; और अंत में समाधि द्वारा आत्मा के शुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है। आज के युग में, जहाँ व्यक्ति बाहरी आकर्षणों, भौतिक प्रतिस्पर्धा और मानसिक तनावों से घिरा हुआ है, अष्टांग योग एक सशक्त साधन के रूप में उभरता है जो उसे भीतर की ओर लौटने, आत्मनिरीक्षण करने और आत्मविकास की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। यह योग मार्ग न केवल शरीर और मन को स्वस्थ बनाता है, बल्कि जीवन के उद्देश्य को भी स्पष्ट करता है। अतः अष्टांग योग एक ऐसा दिव्य मार्ग है जो साधक को आत्म-नियंत्रण, अंतःशुद्धि और परम शांति की ओर ले जाता है। यह जीवन के हर क्षेत्र – व्यक्तिगत, सामाजिक, मानसिक, और आध्यात्मिक – में संतुलन और समरसता स्थापित करने में सक्षम है। यदि इसे निष्ठा और नियमितता से अपनाया जाए, तो यह साधक को न केवल आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाता है, बल्कि मोक्ष – पूर्ण स्वतंत्रता और अनंत शांति – का अनुभव भी कराता है।
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