Behaviorism in Political Science राजनीति विज्ञान में व्यवहारवाद
राजनीति विज्ञान में व्यवहारवाद (Behaviorism) 20वीं सदी के मध्य में एक प्रभावशाली प्रवृत्ति के रूप में उभरा, जिसका उद्देश्य इस क्षेत्र को अधिक वैज्ञानिक और अनुभवजन्य आधार प्रदान करना था। इस दृष्टिकोण ने राजनीति के अध्ययन में केवल सैद्धांतिक और दार्शनिक पहलुओं पर निर्भर रहने की बजाय ठोस प्रमाणों, अनुभवजन्य अनुसंधान और वास्तविक व्यवहार पर जोर दिया। परंपरागत रूप से, राजनीति विज्ञान मुख्यतः आदर्शवादी और संस्थागत अध्ययन पर केंद्रित था। इसमें राजनीतिक सिद्धांतों, शासन प्रणालियों, और विचारधाराओं का मूल्यांकन अधिकतर दार्शनिक विमर्श के आधार पर किया जाता था। हालांकि, 20वीं शताब्दी के मध्य, विशेष रूप से द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, यह महसूस किया जाने लगा कि केवल आदर्शों और परिकल्पनाओं के आधार पर राजनीति को समझना अधूरा हो सकता है। वैश्विक स्तर पर राजनीतिक घटनाओं और प्रक्रियाओं में हो रहे परिवर्तनों ने यह स्पष्ट कर दिया कि राजनीति विज्ञान को वैज्ञानिक अनुशासन के रूप में विकसित करने के लिए प्रमाण-आधारित और व्यवहार-केंद्रित दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। यही सोच व्यवहारवाद के रूप में विकसित हुई, जिसमें राजनीति के अध्ययन में मात्रात्मक अनुसंधान, सांख्यिकी, सर्वेक्षण, तथा व्यक्तियों और समूहों के वास्तविक राजनीतिक व्यवहार के विश्लेषण पर जोर दिया गया। यह दृष्टिकोण न केवल राजनीति विज्ञान को अधिक व्यावहारिक और वस्तुनिष्ठ बनाने में सहायक बना, बल्कि इसने राजनीतिक प्रक्रियाओं को समझने और व्याख्या करने के नए तरीके भी प्रस्तुत किए।
व्यवहारवाद की परिभाषाएं (Definitions of Behavioralism):
प्रमुख विद्वानों द्वारा व्यवहारवाद (Behavioralism) की परिभाषाएँ:
डेविड ईस्टन (David Easton) –
"व्यवहारवाद राजनीति विज्ञान में अनुसंधान की एक दृष्टि और पद्धति है, जो अनुभवजन्य डेटा और वैज्ञानिक तरीकों के उपयोग पर बल देता है।"
रॉबर्ट ए. डाहल (Robert A. Dahl) –
"व्यवहारवाद राजनीति विज्ञान को वैज्ञानिक और मात्रात्मक बनाने की प्रक्रिया है, जिसमें राजनीतिक प्रक्रियाओं का अध्ययन वास्तविक अवलोकन और विश्लेषण के आधार पर किया जाता है।"
हेर्बर्ट साइमन (Herbert Simon) –
"व्यवहारवाद निर्णय लेने की प्रक्रिया को समझने और तर्कसंगत व्यवहार का विश्लेषण करने की एक पद्धति है, जो राजनीति विज्ञान को एक वैज्ञानिक अनुशासन के रूप में स्थापित करती है।"
कार्ल डब्ल्यू. डच (Karl W. Deutsch) –
"व्यवहारवाद राजनीति के अध्ययन में पारंपरिक आदर्शवाद से हटकर प्रमाण-आधारित अनुसंधान को अपनाने की एक प्रवृत्ति है, जो मात्रात्मक विधियों और सांख्यिकी का उपयोग करती है।"
चार्ल्स ई. मेरियम (Charles E. Merriam) –
"व्यवहारवाद राजनीतिक घटनाओं और संस्थानों के अध्ययन में वैज्ञानिक पद्धति, अनुभवजन्य शोध, और निष्पक्ष विश्लेषण पर बल देने वाला दृष्टिकोण है।"
व्यवहारवाद का विकास (Development of Behavioralism):
व्यवहारवादी दृष्टिकोण 1920 और 1930 के दशक में उस समय ध्यान आकर्षित करने लगा जब विद्वानों ने राजनीति विज्ञान को अधिक अनुभवजन्य और वैज्ञानिक बनाने का प्रयास किया। हालांकि, इसका वास्तविक प्रभाव द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, विशेष रूप से 1950 और 1960 के दशक में देखने को मिला, जब यह राजनीति विज्ञान में एक प्रमुख पद्धति बन गया। इस अवधि में पारंपरिक, दार्शनिक और संस्थागत अध्ययनों से हटकर एक अधिक व्यवस्थित विश्लेषण की ओर रुझान हुआ, जिसमें अवलोकन, डेटा संग्रह और मात्रात्मक तकनीकों के आधार पर राजनीतिक व्यवहार को समझने पर जोर दिया गया। व्यक्तियों और समूहों की राजनीतिक प्रक्रियाओं में सहभागिता को समझने की बढ़ती रुचि ने इस व्यवहारवादी पद्धति को व्यापक रूप से स्वीकार्य बना दिया।
चार्ल्स ई. मेरियम, डेविड ईस्टन और रॉबर्ट ए. डाल जैसे विद्वानों ने इस दृष्टिकोण को आकार देने और आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने यह तर्क दिया कि राजनीति विज्ञान को मात्र सैद्धांतिक धारणाओं तक सीमित न रखते हुए वास्तविक राजनीतिक क्रियाओं, जनमत, नेतृत्व प्रक्रियाओं और चुनावी व्यवहार के अध्ययन पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। उनके कार्यों ने नए अनुसंधान उपकरणों, जैसे सर्वेक्षणों और सांख्यिकीय मॉडलों के विकास में योगदान दिया, जिससे राजनीतिक पैटर्न का अधिक सटीक विश्लेषण संभव हो सका। मनोविज्ञान, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र जैसी अन्य शाखाओं से अंतर्दृष्टि लेकर व्यवहारवादी दृष्टिकोण ने राजनीति विज्ञान को एक अधिक डेटा-आधारित और अंतःविषय क्षेत्र में बदल दिया। इसके अनुभवजन्य सत्यापन और पूर्वानुमान क्षमताओं ने शासन, नीतिनिर्माण और राजनीतिक भागीदारी की गहरी समझ को संभव बनाया, जिससे राजनीतिक विश्लेषण को अधिक वस्तुनिष्ठ और समकालीन मुद्दों के लिए प्रासंगिक बनाया जा सका।
व्यवहारवाद के मुख्य कारण (Main Causes of Behavioralism):
1. पारंपरिक दृष्टिकोण की सीमाएं (Limitations of the Traditional Approach):
राजनीति विज्ञान का पारंपरिक अध्ययन मुख्य रूप से दार्शनिक, आदर्शवादी और संस्थागत था, जो शासन प्रणालियों, राजनीतिक विचारधाराओं और संविधान की संरचना पर केंद्रित रहता था। इस दृष्टिकोण में राजनीतिक व्यवहार, निर्णय-निर्माण की प्रक्रियाओं, और आम नागरिकों की भागीदारी का गहन विश्लेषण नहीं किया जाता था। चूंकि यह दृष्टिकोण व्यवहारिक और अनुभवजन्य साक्ष्यों पर आधारित नहीं था, इसलिए यह राजनीतिक घटनाओं और समस्याओं की सटीक व्याख्या करने में सीमित था। जैसे-जैसे राजनीति जटिल होती गई, पारंपरिक दृष्टिकोण की व्यावहारिक और वास्तविक मुद्दों को हल करने में असमर्थता स्पष्ट होने लगी, जिससे एक नए, वैज्ञानिक दृष्टिकोण की आवश्यकता महसूस हुई।
2. वैज्ञानिक दृष्टिकोण की मांग (Demand for a Scientific Approach):
20वीं शताब्दी में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के तेजी से विकास ने अनुसंधान में आंकड़ों, अनुभवजन्य साक्ष्यों, और मात्रात्मक विधियों के उपयोग को बढ़ावा दिया। सामाजिक विज्ञानों में भी यह धारणा मजबूत हुई कि अध्ययन की प्रक्रिया वैज्ञानिक होनी चाहिए, जिससे ठोस निष्कर्ष निकाले जा सकें। राजनीति विज्ञान में गुणात्मक के बजाय मात्रात्मक अनुसंधान की मांग बढ़ने लगी, ताकि राजनीतिक व्यवहार और प्रक्रियाओं को वैज्ञानिक रूप से समझा जा सके। इस बदलाव के कारण राजनीतिक घटनाओं के अध्ययन में सांख्यिकीय विश्लेषण, सर्वेक्षण, चुनावी आंकड़ों और अन्य डेटा-संचालित तकनीकों का उपयोग बढ़ा, जिससे व्यवहारवाद को मजबूती मिली।
3. द्वितीय विश्व युद्ध का प्रभाव (Impact of World War II):
द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) के बाद वैश्विक राजनीति में व्यापक बदलाव आए। इस युद्ध ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों, शक्ति संतुलन, प्रचार तंत्र, जनमत निर्माण, और नीतिगत निर्णयों की भूमिका को उजागर किया। इसके परिणामस्वरूप, राजनीति विज्ञान में यह समझ बढ़ी कि केवल संस्थागत ढांचे या आदर्शवादी विचारधाराओं को समझने से राजनीतिक वास्तविकताओं की पूरी व्याख्या नहीं की जा सकती। युद्ध के बाद, जनसामान्य की राजनीतिक भागीदारी, जनमत निर्माण, प्रचार के प्रभाव, और चुनावी व्यवहार जैसे पहलुओं का गहराई से अध्ययन आवश्यक हो गया। लोकतांत्रिक और अधिनायकवादी शासन प्रणालियों के बीच अंतर को बेहतर तरीके से समझने, राजनीतिक प्रचार के प्रभाव का विश्लेषण करने, और युद्ध के बाद की दुनिया में नई राजनीतिक प्रवृत्तियों को पहचानने के लिए व्यवहारवादी दृष्टिकोण की ओर झुकाव बढ़ा। इन सभी कारणों ने व्यवहारवाद को राजनीति विज्ञान में एक मजबूत और प्रभावशाली प्रवृत्ति के रूप में स्थापित किया। इस दृष्टिकोण ने न केवल राजनीति के अध्ययन को अधिक वैज्ञानिक बनाया, बल्कि इसने राजनीतिक घटनाओं, निर्णय-निर्माण प्रक्रियाओं, और जनसामान्य के राजनीतिक व्यवहार को समझने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
व्यवहारवाद के प्रमुख सिद्धांत (Major Principles of Behavioralism):
व्यवहारवाद राजनीति विज्ञान को अधिक वैज्ञानिक, अनुभवजन्य और वस्तुनिष्ठ बनाने की प्रवृत्ति है। यह दृष्टिकोण राजनीति के अध्ययन में केवल सैद्धांतिक और दार्शनिक पहलुओं पर निर्भर रहने की बजाय व्यक्तिगत और समूहगत राजनीतिक गतिविधियों, सांख्यिकीय विश्लेषण, और वास्तविक डेटा के आधार पर अध्ययन करने पर बल देता है। निम्नलिखित सिद्धांत इसके आधारभूत तत्वों को स्पष्ट करते हैं:
1. अनुभवजन्यता (Empiricism):
व्यवहारवाद का मूल सिद्धांत यह है कि राजनीति विज्ञान का अध्ययन केवल सैद्धांतिक अवधारणाओं और आदर्शवादी विचारों पर आधारित नहीं होना चाहिए, बल्कि इसे मापने योग्य आंकड़ों, ठोस प्रमाणों और अनुभवजन्य अनुसंधान के आधार पर किया जाना चाहिए। इसका उद्देश्य राजनीति विज्ञान को वैज्ञानिक अनुशासन के रूप में विकसित करना है, जहां अवलोकन, प्रयोग, और मात्रात्मक शोध विधियों के माध्यम से राजनीतिक घटनाओं का विश्लेषण किया जाता है। व्यवहारवाद इस विचार को बढ़ावा देता है कि राजनीतिक सिद्धांतों और निष्कर्षों की वैधता तब तक स्वीकार्य नहीं हो सकती जब तक वे ठोस प्रमाणों और वास्तविक डेटा पर आधारित न हों।
2. सांख्यिकीय विश्लेषण (Statistical Analysis):
व्यवहारवादी दृष्टिकोण राजनीति विज्ञान को मात्रात्मक और विश्लेषणात्मक पद्धति के माध्यम से अधिक सटीक और वैज्ञानिक बनाने पर बल देता है। राजनीतिक प्रक्रियाओं, चुनावी व्यवहार, जनमत और नीतिगत प्रभावों को समझने के लिए सांख्यिकीय उपकरणों, गणितीय मॉडलों और डेटा-संचालित तरीकों का उपयोग किया जाता है।
सर्वेक्षण (Surveys): लोगों के राजनीतिक झुकाव, चुनावी व्यवहार और नीतियों पर प्रभाव को समझने के लिए सर्वेक्षण डेटा एकत्र किया जाता है।
मतदान विश्लेषण (Voting Analysis): चुनाव परिणामों और मतदाताओं के व्यवहार का विश्लेषण करने के लिए सांख्यिकीय तकनीकों का उपयोग किया जाता है।
डेटा मॉडलिंग (Data Modeling): राजनीतिक प्रवृत्तियों और भविष्यवाणियों को बेहतर ढंग से समझने के लिए गणितीय और सांख्यिकीय मॉडल बनाए जाते हैं।
इस दृष्टिकोण का उद्देश्य राजनीति को केवल अवधारणाओं और तर्कों के बजाय प्रमाण और वास्तविकता के आधार पर समझना है।
3. मानवीय व्यवहार का अध्ययन (Study of Human Behaviour):
व्यवहारवाद केवल संस्थाओं, संविधानों और राजनीतिक विचारधाराओं के अध्ययन तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह व्यक्तियों और समूहों के वास्तविक राजनीतिक व्यवहार पर ध्यान केंद्रित करता है। यह समझने का प्रयास करता है कि लोग राजनीतिक रूप से कैसे सोचते हैं, उनके निर्णय लेने की प्रक्रिया क्या है, और वे अलग-अलग परिस्थितियों में कैसे प्रतिक्रिया देते हैं। राजनीतिक प्रक्रियाओं और नीतियों के प्रभाव को समझने के लिए जनमत, समूह गतिशीलता, और सामाजिक प्रभावों का गहन अध्ययन किया जाता है।
इसके लिए मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय सिद्धांतों का उपयोग किया जाता है, जिससे राजनीतिक व्यवहार को बेहतर तरीके से समझा जा सके। इस दृष्टिकोण का मुख्य लक्ष्य यह स्पष्ट करना है कि राजनीति केवल नियमों और विचारों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह वास्तविक मानव क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं से भी प्रभावित होती है।
4. मूल्य-तटस्थता (Value Neutrality):
व्यवहारवाद अनुसंधान में तटस्थता और निष्पक्षता को बनाए रखने पर जोर देता है। इसका तात्पर्य यह है कि किसी भी राजनीतिक घटना या नीति का अध्ययन करते समय व्यक्तिगत भावनाओं, विचारधाराओं या पूर्वाग्रहों को शोध में शामिल नहीं किया जाना चाहिए। अनुसंधान केवल तथ्यों और निष्पक्ष आंकड़ों पर आधारित होना चाहिए। राजनीति वैज्ञानिक को अपने अध्ययन में वस्तुनिष्ठता (Objectivity) बनाए रखनी चाहिए और किसी भी राजनीतिक विचारधारा या पक्षपात से बचना चाहिए। इसके लिए डेटा-संचालित और प्रमाण-आधारित अनुसंधान पद्धतियों को अपनाया जाता है।
इसका मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि राजनीतिक अनुसंधान वैज्ञानिक तरीके से किया जाए, जिससे निष्कर्ष निष्पक्ष और भरोसेमंद हों।
5. अंतःविषयता (Interdisciplinary Approach):
व्यवहारवादी दृष्टिकोण राजनीति विज्ञान को एक स्वतंत्र अध्ययन क्षेत्र के रूप में सीमित नहीं रखता, बल्कि यह विभिन्न सामाजिक विज्ञानों के साथ इसे जोड़कर देखने की वकालत करता है।
समाजशास्त्र (Sociology): समाज और राजनीतिक प्रक्रियाओं के बीच संबंधों को समझने के लिए समाजशास्त्र का उपयोग किया जाता है।
मनोविज्ञान (Psychology): लोगों के राजनीतिक निर्णय और मतदाताओं के व्यवहार को समझने के लिए मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों का सहारा लिया जाता है।
अर्थशास्त्र (Economics): नीतिगत निर्णयों और आर्थिक नीतियों के राजनीतिक प्रभाव का विश्लेषण किया जाता है।
नृविज्ञान (Anthropology): विभिन्न संस्कृतियों और समुदायों में राजनीतिक संरचनाओं को समझने के लिए नृविज्ञान का अध्ययन किया जाता है।
इस समग्र दृष्टिकोण का उद्देश्य राजनीतिक घटनाओं और व्यवहार को अधिक व्यापक और बहुआयामी रूप में समझना है ताकि निष्कर्ष अधिक सटीक और व्यावहारिक हों।
व्यवहारवाद के प्रमुख सिद्धांतकार (Key Theorists of Behavioralism):
व्यवहारवाद को एक संगठित अध्ययन पद्धति के रूप में विकसित करने में कई विद्वानों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इन्होंने राजनीति विज्ञान को अधिक वैज्ञानिक, अनुभवजन्य और विश्लेषणात्मक बनाने पर बल दिया। इन प्रमुख सिद्धांतकारों के योगदान को नीचे विस्तार से प्रस्तुत किया गया है:
1. डेविड ईस्टन (David Easton):
डेविड ईस्टन को राजनीतिक प्रणाली (Political System) के व्यवहारवादी अध्ययन का अग्रणी विद्वान माना जाता है। उन्होंने राजनीति विज्ञान को संगठित और वैज्ञानिक अनुशासन के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया। ईस्टन ने राजनीति विज्ञान को केवल संस्थाओं और विचारधाराओं के अध्ययन तक सीमित रखने की बजाय इसे राजनीतिक प्रक्रियाओं और व्यवहारों के अनुभवजन्य विश्लेषण की ओर उन्मुख किया।उन्होंने राजनीतिक जीवन को एक समग्र प्रणाली (System) के रूप में देखने का प्रस्ताव रखा, जहां विभिन्न तत्व एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं। उनके अनुसार, राजनीति को समझने के लिए हमें इनपुट (Input) और आउटपुट (Output) प्रक्रियाओं का अध्ययन करना चाहिए, जो कि समाज और राजनीतिक प्रणाली के बीच संबंधों को स्पष्ट करता है। ईस्टन का मॉडल व्यवहारवादी राजनीति विज्ञान में व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है, खासकर नीतिगत निर्णयों और राजनीतिक स्थिरता के अध्ययन में।
2. गैब्रियल आलमंड (Gabriel Almond):
गैब्रियल आलमंड ने राजनीति विज्ञान में राजनीतिक संस्कृति (Political Culture) और व्यवहारवाद के बीच संबंधों को स्थापित करने का कार्य किया। उन्होंने राजनीतिक प्रणालियों के अध्ययन में राजनीतिक संस्कृति और संरचनात्मक-कार्यात्मक दृष्टिकोण (Structural-Functional Approach) को अपनाया।उनके अनुसार, किसी भी राजनीतिक प्रणाली को समझने के लिए यह आवश्यक है कि हम उस समाज की राजनीतिक संस्कृति, विश्वासों, दृष्टिकोणों और व्यवहारों का गहन अध्ययन करें। उन्होंने राजनीतिक संस्कृति को तीन प्रकारों में विभाजित किया:
1. परंपरागत राजनीतिक संस्कृति (Parochial Political Culture) - जहां नागरिकों की राजनीतिक गतिविधियों में भागीदारी कम होती है।
2. आधिपत्यवादी राजनीतिक संस्कृति (Subject Political Culture) - जहां नागरिक राजनीतिक गतिविधियों में सीमित रूप से भाग लेते हैं।
3. सहभागी राजनीतिक संस्कृति (Participant Political Culture) - जहां नागरिक सक्रिय रूप से राजनीति में भाग लेते हैं।
आलमंड का दृष्टिकोण राजनीतिक व्यवहार को संस्कृति और सामाजिक संरचनाओं के संदर्भ में समझने पर जोर देता है।
3. हर्बर्ट साइमन (Herbert Simon):
हर्बर्ट साइमन ने प्रशासन और निर्णय-निर्माण (Decision-Making) प्रक्रियाओं में व्यवहारवादी दृष्टिकोण को लागू किया और इसे राजनीति विज्ञान तथा सार्वजनिक प्रशासन के अध्ययन में वैज्ञानिक आधार प्रदान किया। उन्होंने "सीमित बुद्धिमत्ता (Bounded Rationality)" की अवधारणा प्रस्तुत की, जिसके अनुसार मनुष्य सभी निर्णय पूरी तरह से तर्कसंगत (Rational) होकर नहीं लेता, बल्कि वह अपनी संज्ञानात्मक सीमाओं के कारण व्यावहारिक और संतोषजनक निर्णय (Satisficing Decisions) लेता है। उनके अनुसार, प्रशासनिक निर्णय-निर्माण केवल नियमों और नीतियों पर आधारित नहीं होता, बल्कि यह व्यक्तिगत और सामूहिक व्यवहारों से भी प्रभावित होता है। साइमन का दृष्टिकोण सार्वजनिक नीति और प्रशासनिक सुधारों के अध्ययन में मौलिक योगदान देता है।उन्होंने संगठनों में सूचना प्रवाह, संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं और प्रबंधकीय व्यवहार पर भी व्यापक शोध किया।
4. चार्ल्स मेरियम (Charles Merriam):
चार्ल्स मेरियम को आधुनिक व्यवहारवादी आंदोलन (Modern Behavioral Movement) का प्रारंभिक प्रेरणा स्रोत माना जाता है। उन्होंने राजनीति विज्ञान में अनुभवजन्यता (Empiricism) और मात्रात्मक अनुसंधान विधियों (Quantitative Research Methods) को अपनाने पर बल दिया। मेरियम ने पारंपरिक राजनीति विज्ञान की आलोचना करते हुए कहा कि यह केवल दार्शनिक, कानूनी और संस्थागत अध्ययन तक सीमित है, जबकि इसे मानव व्यवहार और अनुभवजन्य डेटा के आधार पर विकसित किया जाना चाहिए। उन्होंने राजनीति विज्ञान में सांख्यिकीय विश्लेषण और सर्वेक्षण विधियों को अपनाने की वकालत की।मेरियम का मानना था कि राजनीति विज्ञान को अन्य सामाजिक विज्ञानों, जैसे कि मनोविज्ञान, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के साथ मिलाकर अध्ययन किया जाना चाहिए।उन्होंने व्यवहारवाद को एक व्यापक और वैज्ञानिक अनुशासन के रूप में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
व्यवहारवाद की विशेषताएं (Characteristics of Behavioralism):
व्यवहारवाद राजनीति विज्ञान को एक अधिक वैज्ञानिक, अनुभवजन्य और विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण प्रदान करता है। इसका मुख्य उद्देश्य राजनीतिक घटनाओं और व्यवहारों को वस्तुनिष्ठ डेटा, सांख्यिकीय विश्लेषण और अनुसंधान पद्धतियों के माध्यम से समझना है। निम्नलिखित विशेषताएं इसे पारंपरिक दृष्टिकोण से अलग बनाती हैं:
1. वैज्ञानिक पद्धति का उपयोग (Use of Scientific Method):
व्यवहारवाद राजनीतिक घटनाओं के अध्ययन में वैज्ञानिक अनुसंधान पद्धतियों के उपयोग पर बल देता है। इसमें राजनीति का विश्लेषण केवल सैद्धांतिक या दार्शनिक अवधारणाओं पर आधारित न होकर प्रायोगिक और अनुभवजन्य अनुसंधान के माध्यम से किया जाता है। राजनीति विज्ञान में डेटा संग्रह, सांख्यिकीय तकनीकों, सर्वेक्षण विधियों और गणितीय मॉडलों का उपयोग किया जाता है। इस दृष्टिकोण का उद्देश्य राजनीतिक प्रक्रियाओं को वस्तुनिष्ठ और मापने योग्य बनाना है, ताकि निष्कर्ष अधिक विश्वसनीय और प्रमाण-आधारित हों।
2. व्यक्तियों और समूहों पर केंद्रित अध्ययन (Focus on Individuals and Groups):
व्यवहारवादी दृष्टिकोण का मुख्य ध्यान व्यक्तियों और समूहों के वास्तविक राजनीतिक व्यवहार पर होता है, न कि केवल राजनीतिक संस्थानों या विचारधाराओं पर। यह अध्ययन करता है कि नागरिक, राजनेता, ब्यूरोक्रेट, और विभिन्न सामाजिक समूह राजनीतिक निर्णयों और नीतियों को कैसे प्रभावित करते हैं। इसके तहत जनमत सर्वेक्षण, चुनावी व्यवहार, राजनीतिक सहभागिता और सामाजिक प्रभावों का विश्लेषण किया जाता है। संस्थागत संरचनाओं की तुलना में यह अधिक व्यक्तिगत और सामूहिक व्यवहार को प्राथमिकता देता है, जिससे राजनीति का अधिक व्यावहारिक और यथार्थवादी अध्ययन संभव हो पाता है।
3. तथ्य और प्रमाण-आधारित अनुसंधान (Fact-Based and Empirical Research):
व्यवहारवादी दृष्टिकोण राजनीतिक घटनाओं और प्रक्रियाओं का अध्ययन केवल सैद्धांतिक अवधारणाओं और आदर्शों के आधार पर नहीं करता, बल्कि इसे मापने योग्य आंकड़ों और ठोस प्रमाणों पर आधारित किया जाता है। इसमें राजनीतिक घटनाओं के विश्लेषण के लिए मात्रात्मक डेटा और सांख्यिकीय तकनीकों का उपयोग किया जाता है। किसी भी राजनीतिक सिद्धांत या निष्कर्ष की वैधता तब तक स्वीकार्य नहीं होती जब तक वह वास्तविक आंकड़ों और ठोस प्रमाणों पर आधारित न हो। यह दृष्टिकोण राजनीतिक अनुसंधान को अधिक निष्पक्ष, वैज्ञानिक और विश्वसनीय बनाता है।
4. अनुसंधान में नवीन उपकरणों और विधियों का प्रयोग (Use of Advanced Research Tools and Methods):
व्यवहारवाद ने राजनीति विज्ञान के अध्ययन में नवीनतम अनुसंधान विधियों और तकनीकों को अपनाने पर जोर दिया है।
सर्वेक्षण पद्धति (Survey Method): जनमत, चुनावी प्रवृत्तियों और राजनीतिक विचारों को समझने के लिए व्यापक स्तर पर जनसर्वेक्षण किए जाते हैं।
सांख्यिकीय विश्लेषण (Statistical Analysis): डेटा के गहन विश्लेषण के लिए सांख्यिकीय तकनीकों, जैसे कि रिग्रेशन एनालिसिस, कोरिलेशन, और डेटा मॉडलिंग का उपयोग किया जाता है।
गणितीय मॉडल (Mathematical Models): राजनीतिक व्यवहार की भविष्यवाणी करने और निर्णय-निर्माण प्रक्रियाओं को समझने के लिए गणितीय मॉडल विकसित किए जाते हैं।
समय-शृंखला विश्लेषण (Time-Series Analysis): राजनीतिक घटनाओं और नीतिगत परिवर्तनों का विश्लेषण करने के लिए समय-आधारित डेटा का अध्ययन किया जाता है।
इस विशेषता के कारण व्यवहारवाद ने राजनीति विज्ञान को अधिक व्यवस्थित, मात्रात्मक और अनुसंधान-आधारित अनुशासन बनाने में योगदान दिया।
5. राजनीति विज्ञान और अन्य सामाजिक विज्ञानों के बीच समन्वय (Interdisciplinary Approach):
व्यवहारवादी दृष्टिकोण राजनीति विज्ञान को अन्य सामाजिक विज्ञानों के साथ जोड़कर देखने की वकालत करता है।राजनीतिक घटनाओं और व्यवहारों को बेहतर ढंग से समझने के लिए समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र और नृविज्ञान के सिद्धांतों और अनुसंधान पद्धतियों का उपयोग किया जाता है।
मनोविज्ञान (Psychology): मतदाताओं के निर्णय-निर्माण व्यवहार और राजनीतिक संचार को समझने में मदद करता है।
अर्थशास्त्र (Economics): नीतिगत निर्णयों और सरकार की आर्थिक नीतियों के प्रभावों का विश्लेषण करता है।
समाजशास्त्र (Sociology): राजनीतिक विचारधाराओं, सामाजिक आंदोलनों और सत्ता-संबंधी संरचनाओं को समझने में सहायक होता है।
इस अंतःविषय (Interdisciplinary) दृष्टिकोण के कारण व्यवहारवाद राजनीति विज्ञान को एक व्यापक और गहन अध्ययन क्षेत्र के रूप में प्रस्तुत करता है।
6. मूल्य-तटस्थता और निष्पक्षता (Value Neutrality and Objectivity):
व्यवहारवादी दृष्टिकोण राजनीतिक घटनाओं और प्रक्रियाओं के अध्ययन में निष्पक्षता (Objectivity) और मूल्य-तटस्थता (Value Neutrality) बनाए रखने पर जोर देता है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि राजनीतिक अनुसंधान व्यक्तिगत विचारों, विश्वासों और पूर्वाग्रहों से मुक्त हो। शोधकर्ता को किसी भी राजनीतिक विचारधारा या पूर्व-निर्धारित मान्यताओं से प्रभावित हुए बिना केवल तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर निष्कर्ष निकालने चाहिए। यह दृष्टिकोण राजनीति विज्ञान को अधिक वैज्ञानिक और निष्पक्ष बनाने में मदद करता है।
व्यवहारवाद की सीमाएँ (Limitations of Behavioralism):
हालाँकि व्यवहारवाद ने राजनीति विज्ञान में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया, लेकिन इसके कुछ महत्वपूर्ण सीमाएँ और आलोचनाएँ भी हैं। कई विद्वानों का मानना है कि यह दृष्टिकोण राजनीतिक घटनाओं और प्रक्रियाओं को पूरी तरह से समझाने में सक्षम नहीं है। इसकी प्रमुख आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं:
1. मूल्यों और नैतिकता की उपेक्षा (Neglect of Values and Ethics):
व्यवहारवाद को इस आधार पर आलोचना का सामना करना पड़ा कि यह राजनीतिक अध्ययन में नैतिकता और मूल्यों को पर्याप्त महत्व नहीं देता। यह दृष्टिकोण केवल तथ्यों, आंकड़ों और अनुभवजन्य अनुसंधान पर केंद्रित रहता है और राजनीतिक प्रक्रियाओं में नैतिकता, सामाजिक न्याय और मूल्यों की भूमिका को अनदेखा कर देता है। राजनीतिक निर्णय-निर्माण में नैतिकता और आदर्शों का महत्वपूर्ण स्थान होता है, लेकिन व्यवहारवाद इस पहलू पर ध्यान नहीं देता।आलोचकों का मानना है कि राजनीति केवल मात्रात्मक डेटा और वैज्ञानिक विधियों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें नैतिकता, आदर्श, और सामाजिक मूल्य भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
2. अत्यधिक वैज्ञानिक और यांत्रिक दृष्टिकोण (Overly Scientific and Mechanical Approach):
व्यवहारवादी दृष्टिकोण पर यह आरोप लगाया जाता है कि यह राजनीति की जटिलता और गतिशीलता को पूरी तरह समझने में असफल रहता है। राजनीति केवल संख्याओं, आंकड़ों और मात्रात्मक अनुसंधान तक सीमित नहीं है; यह एक सामाजिक प्रक्रिया है, जो भावनाओं, विचारधाराओं, और सामाजिक संरचनाओं से प्रभावित होती है। राजनीतिक निर्णय-निर्माण में मनुष्य के मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक और सामाजिक पहलुओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, जिसे मात्र वैज्ञानिक विधियों और सांख्यिकीय विश्लेषण से पूरी तरह नहीं समझा जा सकता। व्यवहारवाद ने राजनीतिक घटनाओं का अध्ययन वैज्ञानिक बनाने की कोशिश की, लेकिन आलोचकों का मानना है कि राजनीति विज्ञान में केवल वैज्ञानिक विधियाँ पर्याप्त नहीं हैं, बल्कि गुणात्मक दृष्टिकोण और व्याख्यात्मक तरीकों की भी आवश्यकता होती है।
3. सांस्कृतिक और स्थानीय संदर्भों की उपेक्षा (Neglect of Cultural and Local Contexts):
व्यवहारवादी दृष्टिकोण को इस बात के लिए भी आलोचना झेलनी पड़ी कि यह स्थानीय राजनीतिक संदर्भों और सांस्कृतिक विशेषताओं को उचित महत्व नहीं देता। व्यवहारवाद मुख्य रूप से पश्चिमी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं पर केंद्रित रहा है और यह अन्य गैर-पश्चिमी देशों की राजनीतिक वास्तविकताओं को समझने में असमर्थ रहा है। राजनीतिक व्यवहार को प्रभावित करने में सांस्कृतिक परंपराएँ, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और सामाजिक संरचनाएँ भी महत्वपूर्ण होती हैं, लेकिन व्यवहारवाद इन पहलुओं को पर्याप्त रूप से शामिल नहीं करता। प्रत्येक समाज की राजनीतिक प्रणाली और व्यवहार अलग-अलग होते हैं, इसलिए सभी राजनीतिक घटनाओं को एक ही वैज्ञानिक पद्धति से नहीं समझा जा सकता।
4. वास्तविक राजनीतिक समस्याओं का समाधान प्रदान करने में असफलता (Failure to Address Practical Political Problems):
व्यवहारवादी दृष्टिकोण पर यह भी आरोप लगाया गया कि यह सैद्धांतिक अनुसंधान और डेटा विश्लेषण तक सीमित रह गया और व्यावहारिक राजनीतिक समस्याओं के समाधान में योगदान नहीं दे सका। व्यवहारवाद ने राजनीतिक प्रक्रियाओं और व्यवहारों का विश्लेषण करने के लिए वैज्ञानिक उपकरणों का उपयोग किया, लेकिन यह नीति निर्माण, प्रशासनिक सुधारों, और राजनीतिक संघर्षों के समाधान में प्रभावी नहीं रहा। इसका मुख्य उद्देश्य राजनीतिक घटनाओं का विश्लेषण करना था, लेकिन इसने लोकतंत्र, शासन व्यवस्था, सत्ता संतुलन और नीति निर्माण से जुड़े व्यावहारिक पहलुओं को नज़रअंदाज कर दिया। आलोचकों का मानना है कि राजनीति केवल अध्ययन और विश्लेषण का विषय नहीं है, बल्कि यह एक क्रियात्मक प्रक्रिया भी है, जिसमें प्रभावी नीतियों और समाधानों की आवश्यकता होती है।
5. ऐतिहासिक और दार्शनिक दृष्टिकोण की अनदेखी (Neglect of Historical and Philosophical Perspectives):
व्यवहारवादी दृष्टिकोण को आलोचना का सामना इस कारण से भी करना पड़ा कि यह राजनीति के ऐतिहासिक और दार्शनिक पहलुओं को पर्याप्त महत्व नहीं देता। राजनीति केवल वर्तमान घटनाओं और आंकड़ों का विषय नहीं है; इसे इतिहास और दर्शन की पृष्ठभूमि में समझना आवश्यक होता है।व्यवहारवाद ने पारंपरिक राजनीतिक सिद्धांतों, विचारधाराओं और दार्शनिक दृष्टिकोणों को अस्वीकार कर दिया, लेकिन आलोचकों का मानना है कि राजनीतिक घटनाओं को पूरी तरह से समझने के लिए ऐतिहासिक संदर्भ और दार्शनिक आधार महत्वपूर्ण हैं। उदाहरण के लिए, लोकतंत्र, समाजवाद, राष्ट्रवाद और पूंजीवाद जैसे राजनीतिक विचार ऐतिहासिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि से जुड़े हुए हैं, जिन्हें केवल मात्रात्मक अनुसंधान के आधार पर नहीं समझा जा सकता।
निष्कर्ष (Conclusion):
हालाँकि व्यवहारवाद को कई आलोचनाओं का सामना करना पड़ा, लेकिन इसके बावजूद, इसने राजनीति विज्ञान को एक अधिक वैज्ञानिक और व्यवस्थित अनुशासन के रूप में विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसने पारंपरिक सैद्धांतिक और दार्शनिक दृष्टिकोणों से हटकर राजनीति को अनुभवजन्य और विश्लेषणात्मक रूप देने का प्रयास किया। व्यवहारवाद के कारण राजनीति विज्ञान में अनुसंधान की गुणवत्ता में सुधार हुआ और अध्ययन अधिक तथ्य-आधारित और वस्तुनिष्ठ (Objective) बना। इस दृष्टिकोण ने राजनीतिक प्रक्रियाओं और घटनाओं को समझने के लिए आधुनिक अनुसंधान पद्धतियों, जैसे कि सांख्यिकीय विश्लेषण, सर्वेक्षण विधियों और तुलनात्मक अध्ययन को प्रोत्साहित किया। इसने राजनीति को केवल सिद्धांतों और विचारधाराओं तक सीमित रखने के बजाय इसे एक व्यावहारिक विज्ञान के रूप में विकसित किया, जो वास्तविक डेटा और प्रमाणों के आधार पर राजनीतिक घटनाओं का विश्लेषण करता है। इसके परिणामस्वरूप, राजनीति विज्ञान को अन्य सामाजिक विज्ञानों, जैसे कि मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और संचार अध्ययन, के साथ जोड़ा गया, जिससे यह एक अंतःविषय (Interdisciplinary) अनुशासन बन गया। इस दृष्टिकोण ने न केवल राजनीतिक व्यवहार को समझने में मदद की, बल्कि नीति निर्माण, सार्वजनिक राय, चुनावी प्रक्रियाओं और प्रशासनिक निर्णय-निर्माण में भी नई अंतर्दृष्टि प्रदान की। अंततः, व्यवहारवाद ने राजनीति विज्ञान में एक सशक्त अनुसंधान परंपरा स्थापित की और इसे अधिक व्यवस्थित, अनुभवजन्य और वैज्ञानिक अनुशासन के रूप में विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। हालाँकि इसकी कुछ सीमाएँ थीं, लेकिन इसने भविष्य में उत्तर-व्यवहारवाद (Post-Behavioralism) जैसे नए दृष्टिकोणों के विकास का मार्ग भी प्रशस्त किया, जिसने राजनीति के अध्ययन में मूल्यों और सामाजिक संदर्भों को पुनः महत्व देने पर बल दिया।
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