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Gender-Education Content and Construction of Knowledge जेंडर-शिक्षा सामग्री और ज्ञान का निर्माण

Gender-Education Content and Construction of Knowledge – Inclusive curriculum and gender-sensitive knowledge building


1. प्रस्तावना

शिक्षा किसी भी समाज के विकास, उन्नति और मानव संसाधन निर्माण का सबसे महत्वपूर्ण आधार मानी जाती है। यह केवल किताबी ज्ञान या सूचनाएँ देने तक सीमित नहीं होती, बल्कि यह व्यक्ति के सोचने के तरीके, उसके दृष्टिकोण, जीवन मूल्यों, आत्मविश्वास, नेतृत्व क्षमता और समाज में उसकी भूमिका को भी गहराई से प्रभावित करती है। शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति यह सीखता है कि उसे अपने जीवन, परिवार, कार्यक्षेत्र और समाज में कैसे व्यवहार करना है और किस प्रकार अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करना है।

यदि हम शिक्षा को जेंडर के दृष्टिकोण से देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा सामग्री और ज्ञान का निर्माण केवल तटस्थ या निष्पक्ष प्रक्रिया नहीं है। इसमें हमेशा समाज की सांस्कृतिक मान्यताओं, परंपराओं, पितृसत्तात्मक विचारधाराओं और सत्ता संरचनाओं की छाया पड़ी रहती है। अक्सर यह देखा जाता है कि पाठ्यपुस्तकों, शिक्षण विधियों और विद्यालयी संस्कृति में वे विचार समाहित होते हैं जो जेंडर आधारित भेदभाव को बनाए रखते हैं और नई पीढ़ी के मन में इन्हीं भूमिकाओं को स्वाभाविक बना देते हैं।

इसका अर्थ यह है कि शिक्षा, जो समानता और न्याय का माध्यम बन सकती है, कभी-कभी पितृसत्तात्मक मूल्यों और जेंडर असमानता को पुनः सृजित करने का साधन बन जाती है। इसलिए यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि शिक्षा सामग्री और ज्ञान निर्माण में कौन-से ऐसे छिपे हुए संदेश हैं, जो विद्यार्थियों के भीतर जेंडर संबंधी दृष्टिकोण, सोच, आकांक्षाएँ और व्यवहारों को प्रभावित करते हैं। जब तक हम इन मुद्दों की गहन पड़ताल नहीं करेंगे, तब तक शिक्षा को वास्तव में समानता और सामाजिक न्याय का माध्यम नहीं बनाया जा सकता।

2. शिक्षा सामग्री में जेंडर पूर्वाग्रह

हमारे विद्यालयों और विश्वविद्यालयों की पाठ्यपुस्तकों में अक्सर देखा जाता है कि पुरुष पात्रों को ही नायक, वैज्ञानिक, नेता, खोजकर्ता, दार्शनिक, कवि और लेखक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। चित्रों में भी लड़कों को बाहर खेलते, प्रयोगशाला में प्रयोग करते या साहसिक कार्य करते दिखाया जाता है, जबकि लड़कियों को घर के कार्यों, रसोई या देखभाल के कार्यों तक सीमित किया जाता है। कहानियों और उदाहरणों में भी पुरानी पितृसत्तात्मक धारणाओं को अप्रत्यक्ष रूप से दोहराया जाता है, जैसे – बहादुरी, तर्क और बुद्धिमानी को पुरुषों से जोड़ना जबकि सहनशीलता, सुंदरता और त्याग को महिलाओं की विशेषता बताना। इस प्रकार के पूर्वाग्रह विद्यार्थियों के मन में यह स्थायी धारणा बना देते हैं कि समाज में पुरुषों का ही वर्चस्व है और महिलाओं की भूमिका केवल सीमित क्षेत्रों में ही है। परिणामस्वरूप, बालिकाओं का आत्मविश्वास कम होता है और वे अपने करियर विकल्पों को भी सीमित मानने लगती हैं, जबकि बालक यह मानने लगते हैं कि नेतृत्व और श्रेष्ठता उनका जन्मसिद्ध अधिकार है।

3. पाठ्यक्रम निर्माण और ज्ञान का ढाँचा

पाठ्यक्रम का निर्माण यह निर्धारित करता है कि विद्यार्थियों को क्या पढ़ाया जाएगा और क्या नहीं। यह एक सत्ता प्रक्रिया है, जिसमें यह तय किया जाता है कि किसका ज्ञान महत्वपूर्ण है और किसका नहीं। सामान्यतः देखा गया है कि पाठ्यक्रम में पश्चिमी विचारकों, पुरुष दार्शनिकों और वैज्ञानिकों को प्रमुखता से शामिल किया जाता है। महिलाओं के अनुभव, उनके ज्ञान और उनकी उपलब्धियों को या तो पाठ्यक्रम से बाहर रखा जाता है या बहुत सीमित रूप में और ‘हाशिये’ पर प्रस्तुत किया जाता है। उदाहरण के लिए, इतिहास की पुस्तकों में युद्ध, राजनीति और शासन के क्षेत्र में पुरुष शासकों का ही वर्णन होता है, जबकि महिलाओं के आंदोलनों, संघर्षों और नेतृत्व का विवरण या तो अनुपस्थित रहता है या संक्षिप्त। इससे विद्यार्थियों के मन में यह धारणा बनती है कि ज्ञान, विज्ञान, राजनीति और इतिहास पुरुषों द्वारा ही निर्मित और नियंत्रित किए गए हैं। इस प्रकार पाठ्यक्रम निर्माण की पूरी प्रक्रिया एक जेंडर पक्षपाती ज्ञान ढाँचे को जन्म देती है, जो समाज में असमानता को सशक्त बनाता है।

4. कक्षा में जेंडर निर्माण की प्रक्रिया

केवल पाठ्यक्रम ही नहीं, बल्कि कक्षा की प्रक्रियाएँ, शिक्षकों का व्यवहार और उनकी भाषा भी जेंडर निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उदाहरण के लिए, शिक्षक यदि कक्षा में लड़कियों से केवल घरेलू कार्यों, साज-सज्जा या भावनात्मक मुद्दों पर ही सवाल पूछें और लड़कों से विज्ञान, गणित और तार्किक विषयों पर प्रश्न करें, तो यह एक स्पष्ट संदेश देता है कि लड़कियाँ बौद्धिक या तकनीकी कार्यों के लिए सक्षम नहीं हैं। इसी प्रकार, यदि शिक्षक लड़कियों से ‘शांत, सुसंस्कृत और मर्यादित’ व्यवहार की अपेक्षा करें और लड़कों को ‘साहसी, आक्रामक और जोशीला’ बनने के लिए प्रेरित करें, तो यह जेंडर आधारित भूमिकाओं को और मजबूत करता है। यहाँ तक कि खेल, शारीरिक शिक्षा और विज्ञान प्रयोगशालाओं में भी बालकों को प्राथमिकता और अवसर अधिक दिए जाते हैं। इस प्रकार, कक्षा की दैनिक प्रक्रियाओं के माध्यम से भी जेंडर असमानता का निर्माण और पुनरुत्पादन होता है।

5. छिपा हुआ पाठ्यक्रम और जेंडर

‘छिपा हुआ पाठ्यक्रम’ (Hidden Curriculum) वह होता है जो औपचारिक रूप से पाठ्यक्रम में लिखा नहीं होता, लेकिन विद्यालय की संस्कृति, व्यवहार, प्रतीकों, नियमों और परंपराओं के माध्यम से विद्यार्थियों को सिखाया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि स्कूल की दीवारों पर केवल पुरुष वैज्ञानिकों, नेताओं और खिलाड़ियों के चित्र लगे हों; यदि स्कूल के उच्च प्रशासनिक पदों पर हमेशा पुरुष ही नियुक्त हों; यदि लड़कियों के खेल विकल्प सीमित कर दिए जाएँ; यदि स्कूल असेंबली में भी लड़कों को ही मंच संचालन का अवसर दिया जाए – तो ये सभी संकेत विद्यार्थियों को यह ‘छिपा हुआ पाठ’ पढ़ाते हैं कि समाज में नेतृत्व, विज्ञान, शक्ति और सार्वजनिक जीवन पुरुषों का ही क्षेत्र है। यह छिपा हुआ पाठ्यक्रम औपचारिक शिक्षा से भी अधिक गहरा प्रभाव डालता है क्योंकि यह विद्यार्थियों के अवचेतन में बैठकर उनके आत्मविश्वास, आकांक्षाओं और भविष्य की भूमिकाओं को प्रभावित करता है।

6. वैकल्पिक दृष्टिकोण और समाधान

जेंडर आधारित असमानता को समाप्त करने और शिक्षा को समावेशी बनाने के लिए कुछ ठोस प्रयास आवश्यक हैं:

1. जेंडर समावेशी पाठ्यक्रम निर्माण –

पाठ्यक्रम निर्माण की प्रक्रिया में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि महिलाओं के योगदान, उनके संघर्षों, उपलब्धियों और नेतृत्व को पाठ्यपुस्तकों में उचित स्थान दिया जाए। अक्सर इतिहास, राजनीति, विज्ञान, कला और साहित्य जैसे विषयों में पुरुषों की उपलब्धियाँ ही प्रमुखता से पढ़ाई जाती हैं, जबकि महिलाओं के योगदान को सीमित कर दिया जाता है। उदाहरण के लिए, विज्ञान की पुस्तकों में केवल पुरुष वैज्ञानिकों के नाम, खोज और सिद्धांत पढ़ाए जाते हैं, जबकि मैडम क्यूरी, रोशन आरा बेगम, अण्णा मणि, कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स जैसी महिलाओं के योगदान को भी विस्तार से शामिल किया जाना चाहिए। इसी प्रकार, साहित्य और कला में भी महिला लेखिकाओं, कवयित्रियों, चित्रकारों और समाज सुधारकों के कार्यों को सम्मान और स्थान देना चाहिए। इससे छात्र-छात्राओं दोनों में यह भावना विकसित होगी कि ज्ञान और नेतृत्व किसी एक जेंडर की बपौती नहीं, बल्कि सभी की साझी विरासत है।

2. शिक्षकों का जेंडर संवेदनशील प्रशिक्षण – 

शिक्षकों की भूमिका विद्यार्थियों के दृष्टिकोण और सोच को बनाने में अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। इसलिए शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में जेंडर समानता पर विशेष मॉड्यूल और कार्यशालाएँ आयोजित की जानी चाहिए। इन मॉड्यूल्स में यह बताया जाए कि किस प्रकार भाषा, उदाहरण, कहानियाँ, व्यवहार और कक्षा की दिनचर्या में अनजाने में जेंडर पूर्वाग्रह उत्पन्न हो जाते हैं। शिक्षकों को यह भी सिखाना जरूरी है कि वे लड़कियों और लड़कों दोनों को बराबरी के अवसर दें, उनकी क्षमताओं पर विश्वास जताएँ और उन्हें पारंपरिक जेंडर भूमिकाओं तक सीमित न रखें। जब शिक्षक स्वयं जेंडर संवेदनशील होंगे, तब ही वे विद्यार्थियों में समानता और सम्मान के मूल्यों को प्रभावी ढंग से विकसित कर सकेंगे।

3. पाठ्यपुस्तकों की समीक्षा और संशोधन –

समय-समय पर पाठ्यपुस्तकों, संदर्भ पुस्तकों, अभ्यास पुस्तकों और सहायक सामग्री की समीक्षा की जानी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनमें किसी भी प्रकार का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष जेंडर पूर्वाग्रह न हो। समीक्षा के दौरान यह देखा जाए कि चित्रों में केवल लड़के ही विज्ञान प्रयोगशाला में कार्यरत न दिखाए गए हों या लड़कियाँ केवल रसोई और घर के कामों तक सीमित न हों। उदाहरणों, कहानियों, कविताओं और प्रश्नों में भी महिलाओं को सक्षम, आत्मनिर्भर, वैज्ञानिक, नेता, सैनिक और उद्यमी के रूप में दर्शाना चाहिए। इस प्रकार के संशोधन पाठ्य सामग्री को संतुलित और समावेशी बनाएंगे, जिससे विद्यार्थियों में सकारात्मक और समान दृष्टिकोण विकसित होगा।

4. विद्यालय की संरचनाओं में बदलाव –

विद्यालय की प्रशासनिक, सांस्कृतिक, खेल और शैक्षणिक संरचनाओं में जेंडर समानता सुनिश्चित करना आवश्यक है। इसके लिए स्कूलों में लड़कियों को भी छात्र परिषद, विज्ञान क्लब, रोबोटिक्स, राष्ट्रीय सेवा योजना, राष्ट्रीय कैडेट कोर, मंच संचालन, डिबेट, मॉडल यूनाइटेड नेशंस, स्पोर्ट्स टीम और अन्य सभी नेतृत्व पदों पर अवसर दिया जाए। इसी प्रकार, विज्ञान प्रयोगशालाओं और तकनीकी कक्षाओं में भी लड़कियों की भागीदारी को प्रोत्साहित किया जाए। विद्यालय के वातावरण, नियमों और नीतियों को ऐसा बनाया जाए कि छात्राएँ अपने विचार निडरता से व्यक्त कर सकें और उनमें नेतृत्व क्षमता, आत्मविश्वास, नवाचार और निर्णय क्षमता का विकास हो।

5. विद्यार्थियों को आलोचनात्मक दृष्टि विकसित करने की प्रेरणा –

विद्यालय में विद्यार्थियों को जेंडर असमानता, लैंगिक न्याय, सामाजिक न्याय, मानवाधिकार और समानता जैसे विषयों पर चर्चा और संवाद के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। शिक्षकों को कक्षा में ऐसे प्रश्न उठाने चाहिए जो विद्यार्थियों को सोचने पर मजबूर करें कि क्यों समाज में लड़कियों और लड़कों के लिए अलग-अलग नियम और अपेक्षाएँ बन गई हैं। कक्षा में विचार-विमर्श, वाद-विवाद, समूह कार्य, परियोजना कार्य, नाटक और कहानी लेखन जैसी गतिविधियों के माध्यम से विद्यार्थियों में आलोचनात्मक दृष्टि का विकास किया जा सकता है। इससे वे न केवल अपनी कक्षा और स्कूल के माहौल को बेहतर बनाएंगे बल्कि बड़े होकर समाज में भी समानता और न्याय के लिए सक्रिय भूमिका निभा सकेंगे।

7. निष्कर्ष

शिक्षा सामग्री और ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया में जेंडर दृष्टिकोण का समावेश अत्यंत आवश्यक है। जब तक हम पाठ्यक्रम, शिक्षण पद्धति और कक्षा व्यवहार में निहित जेंडर पूर्वाग्रहों को पहचानकर उन्हें दूर नहीं करेंगे, तब तक समाज में वास्तविक समानता स्थापित नहीं हो सकेगी। शिक्षा का उद्देश्य केवल किताबी ज्ञान देना नहीं, बल्कि एक ऐसे समाज का निर्माण करना है जहाँ सभी व्यक्तियों को उनके जेंडर के आधार पर भेदभाव का सामना न करना पड़े और वे अपनी पूरी संभावनाओं के साथ विकास कर सकें। इसलिए प्रत्येक शिक्षक, पाठ्यक्रम विशेषज्ञ, लेखक और नीति निर्माता की जिम्मेदारी है कि वे ज्ञान निर्माण की इस प्रक्रिया को जेंडर न्यायसंगत और समावेशी बनाएँ ताकि शिक्षा अपने वास्तविक अर्थ में समाज को प्रगतिशील, समानतावादी और मानवीय बना सके।

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