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Theories of Representation प्रतिनिधित्व के सिद्धांत

✦ प्रस्तावना (Introduction)


लोकतंत्र की नींव जिन अवधारणाओं पर टिकी होती है, उनमें से ‘प्रतिनिधित्व’ एक अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत है। यह वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से आम नागरिक शासन की प्रक्रिया में भागीदारी करता है। आधुनिक लोकतंत्रों में सभी नागरिकों का प्रत्यक्ष रूप से शासन में शामिल होना संभव नहीं होता, इसलिए वे अपने अधिकारों और मतों के माध्यम से ऐसे प्रतिनिधियों का चयन करते हैं, जो उनकी इच्छाओं, समस्याओं, आवश्यकताओं और हितों को विधायी संस्थाओं में प्रस्तुत करते हैं। यह प्रक्रिया न केवल जनभागीदारी का प्रतीक है, बल्कि शासन को वैधता और नैतिकता भी प्रदान करती है। प्रतिनिधित्व का स्वरूप क्या हो, प्रतिनिधि की भूमिका कैसी होनी चाहिए, और वह किसके प्रति उत्तरदायी हो—इन प्रश्नों को लेकर अनेक राजनीतिक सिद्धांत विकसित हुए हैं। इन सिद्धांतों का उद्देश्य प्रतिनिधित्व की प्रकृति, कार्यप्रणाली और सीमाओं को स्पष्ट करना होता है।

1. न्यासीय सिद्धांत (Trustee Theory)


यह सिद्धांत एडमंड बर्क जैसे विचारकों द्वारा प्रतिपादित किया गया था, जिन्होंने यह तर्क दिया कि एक बार जब जनता किसी व्यक्ति को अपना प्रतिनिधि चुन लेती है, तो उस व्यक्ति को अपने विवेक, ज्ञान और अनुभव के आधार पर निर्णय लेने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। प्रतिनिधि को केवल जनता की आकांक्षाओं का दास नहीं माना जा सकता, बल्कि उसे देश और समाज के व्यापक हित में निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए।

इस सिद्धांत के अनुसार, प्रतिनिधि को एक न्यासी (Trustee) के रूप में देखा जाता है, जिसे जनहित के संरक्षण की जिम्मेदारी सौंपी गई है। यदि कभी जनमत और राष्ट्रीय हित के बीच विरोधाभास उत्पन्न होता है, तो प्रतिनिधि को अपने विवेक का प्रयोग करते हुए राष्ट्रहित में निर्णय लेना चाहिए। बर्क ने यह स्पष्ट किया कि प्रतिनिधियों को केवल लोकप्रिय मत के अनुसार चलने से बचना चाहिए, क्योंकि इससे निर्णयों की गुणवत्ता प्रभावित हो सकती है। यह सिद्धांत लोकतंत्र को विवेकशील और दीर्घकालिक दृष्टिकोण से संचालित करने की वकालत करता है।

2. प्रतिनिधि सिद्धांत (Delegate Theory)


यह सिद्धांत प्रतिनिधि की भूमिका को एक ‘शुद्ध प्रवक्ता’ या ‘दूत’ के रूप में परिभाषित करता है। इस विचारधारा के अनुसार, प्रतिनिधि की कोई स्वतंत्र सोच या विवेक नहीं होना चाहिए, बल्कि उसे अपने मतदाताओं के आदेशों और इच्छाओं का अक्षरशः पालन करना चाहिए। जनता को निर्णय लेने का पूरा अधिकार है और प्रतिनिधि मात्र उनका कार्यान्वयन करता है।

इस सिद्धांत में नागरिकों की जन-इच्छा को सर्वोच्च माना गया है। प्रतिनिधि केवल एक संचार माध्यम होता है, जो मतदाताओं की भावनाओं, मांगों और नीतिगत रुझानों को बिना किसी व्यक्तिगत व्याख्या के संसद या विधान मंडल तक पहुँचाता है। इस विचार का आधार यह है कि सत्ता का वास्तविक स्रोत जनता है, और प्रतिनिधि केवल उस सत्ता का उपयोग जनता के हित में करने का माध्यम है। हालांकि, आलोचकों का तर्क है कि यह सिद्धांत जमीनी वास्तविकताओं की उपेक्षा करता है, क्योंकि कई बार जनता सभी पहलुओं को नहीं समझ पाती और प्रतिनिधियों को जटिल नीतिगत फैसलों के लिए स्वतंत्रता की आवश्यकता होती है।

3. जनहितकारी सिद्धांत (Mandate Theory)


यह सिद्धांत लोकतंत्र को राजनीतिक दल आधारित प्रणाली मानता है। इसके अनुसार, जब कोई मतदाता किसी दल के प्रत्याशी को वोट देता है, तो वह केवल व्यक्ति को नहीं बल्कि उस दल की नीतियों, कार्यक्रमों और घोषणापत्र को स्वीकार करता है। इसलिए प्रतिनिधियों को अपने दल की नीति और घोषणाओं के अनुसार ही कार्य करना चाहिए।

इस सिद्धांत में ‘जनादेश (Mandate)’ का विचार केंद्रीय है। चुनाव में पार्टी को प्राप्त बहुमत केवल सत्ता की अनुमति नहीं देता, बल्कि यह इस बात की स्वीकृति भी है कि जनता ने उस पार्टी की विचारधारा को स्वीकार कर लिया है। अतः चुने गए प्रतिनिधियों का नैतिक और राजनीतिक कर्तव्य है कि वे पार्टी की नीतियों का पालन करें। इस सिद्धांत से लोकतंत्र में स्थिरता और उत्तरदायित्व बढ़ता है। हालांकि, इसमें प्रतिनिधियों की व्यक्तिगत विवेक-शक्ति सीमित हो जाती है, जिससे कभी-कभी जमीनी मुद्दों पर लचीलापन नहीं रह पाता।

4. पुनः उत्तरदायी सिद्धांत (Resemblance Theory)


यह सिद्धांत समावेशी और समानतामूलक लोकतंत्र की अवधारणा पर आधारित है। इसके अनुसार, प्रतिनिधित्व का अर्थ केवल राजनीतिक निर्णयों को लेना नहीं है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना है कि विधायिका में समाज के सभी वर्गों – जैसे महिलाएं, दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक – का उचित और समान प्रतिनिधित्व हो। प्रतिनिधि यदि उसी पृष्ठभूमि से आते हैं, जिस वर्ग का वे प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, तो वे उनकी समस्याओं और जरूरतों को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं।

यह सिद्धांत उन ऐतिहासिक अन्यायों और सामाजिक असमानताओं की भरपाई करने का एक उपाय है, जिन्हें सदियों तक उपेक्षित रखा गया। आरक्षण नीति, महिला आरक्षण विधेयक, और सामाजिक न्याय से जुड़े उपाय इसी सिद्धांत से प्रेरित हैं। इस विचारधारा के अंतर्गत लोकतंत्र को केवल संख्यात्मक नहीं, बल्कि गुणात्मक प्रतिनिधित्व देने वाला तंत्र माना जाता है। आलोचकों का कहना है कि केवल सामाजिक पृष्ठभूमि से जुड़ाव प्रतिनिधि की योग्यता की गारंटी नहीं होता, लेकिन यह सिद्धांत विविधता और सहभागिता को सशक्त करता है।

5. मिश्रित सिद्धांत (Mixed Theory)


मिश्रित सिद्धांत आधुनिक लोकतंत्र की जटिलता को स्वीकार करते हुए एक समन्वित दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। यह विभिन्न सिद्धांतों—जैसे न्यासीय, प्रतिनिधि, जनादेश और पुनः उत्तरदायी सिद्धांत—के सकारात्मक पक्षों को मिलाकर संतुलित प्रतिनिधित्व का सुझाव देता है।

इस सिद्धांत में यह माना गया है कि कोई भी एकल सिद्धांत लोकतंत्र की सभी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकता, इसलिए प्रतिनिधि को कुछ स्थितियों में जनता की इच्छा के अनुसार कार्य करना चाहिए, कुछ में अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिए, और साथ ही पार्टी अनुशासन और सामाजिक विविधता को भी ध्यान में रखना चाहिए। यह सिद्धांत न तो जनमत की उपेक्षा करता है, न ही प्रतिनिधि की स्वतंत्रता को पूरी तरह नकारता है। यह व्यवहारिकता, लचीलापन और जिम्मेदारी को महत्व देता है और आज के समय में इसे सबसे प्रासंगिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण माना जाता है।

निष्कर्ष (Conclusion)


प्रतिनिधित्व के विभिन्न सिद्धांत लोकतंत्र की परिकल्पना को व्याख्यायित करते हैं और यह स्पष्ट करते हैं कि जनप्रतिनिधियों की भूमिका मात्र विधायी प्रक्रिया तक सीमित नहीं है, बल्कि वे जन आकांक्षाओं के संवाहक, नीति-निर्माण के भागीदार और लोकतांत्रिक मूल्यों के संरक्षक होते हैं। जहां एक ओर न्यासीय सिद्धांत प्रतिनिधि के विवेक और नैतिक निर्णयों पर बल देता है, वहीं प्रतिनिधि सिद्धांत जनता की इच्छाओं की पूर्ण अभिव्यक्ति की बात करता है। जनादेश सिद्धांत दलों की नीति-आधारित उत्तरदायित्व को केंद्र में रखता है, जबकि पुनः उत्तरदायी सिद्धांत सामाजिक न्याय और समावेशिता की मांग करता है। अंततः, मिश्रित सिद्धांत सभी दृष्टिकोणों को समाहित कर एक ऐसा प्रतिनिधित्व प्रस्तुत करता है जो विवेक, उत्तरदायित्व, जनहित और समावेशन का संतुलन बनाए रखता है।

भारतीय संदर्भ में देखा जाए तो देश की सामाजिक विविधता, राजनीतिक बहुलता और जातिगत संरचना के कारण मिश्रित सिद्धांत ही सबसे उपयुक्त सिद्धांत माना जा सकता है। यह हमारे लोकतंत्र को अधिक समावेशी, संवेदनशील और सशक्त बनाता है।

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