Gender Issues in Curriculum: In the Culture: Gender and Institution पाठ्यक्रम में जेंडर मुद्दे: संस्कृति में जेंडर और संस्थान
1. प्रस्तावना
भारत जैसे बहु-सांस्कृतिक और बहु-जातीय समाज में जेंडर की अवधारणा केवल जैविक नहीं बल्कि सांस्कृतिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक आधारों पर भी निर्मित होती है। हमारी संस्कृति यह तय करती है कि पुरुष और महिला से किस प्रकार के व्यवहार, कार्य, व्यक्तित्व और भूमिका की अपेक्षा की जाएगी। बचपन से ही लड़के और लड़कियों के प्रति समाज का दृष्टिकोण भिन्न होता है, जैसे खिलौनों के चयन से लेकर उनके पहनावे, भाषा, व्यवहार और भविष्य के सपनों तक में अंतर दिखाई देता है।
इन सामाजिक अपेक्षाओं और मान्यताओं को संस्थाएँ – जैसे परिवार, विद्यालय, धर्म और मीडिया – और भी मजबूत बनाती हैं। यह देखा गया है कि शिक्षा प्रणाली और विशेष रूप से पाठ्यक्रम निर्माण में भी पितृसत्तात्मक सोच की गहरी छाप होती है। पाठ्यक्रम केवल ज्ञान का माध्यम नहीं होता बल्कि यह समाज की उन मूलभूत धारणाओं को भी विद्यार्थियों में स्थानांतरित करता है जो उनकी सोच, दृष्टिकोण और आत्म-परिभाषा को प्रभावित करती हैं।
इस लेख में हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि संस्कृति और संस्थान किस प्रकार जेंडर भूमिकाओं को तय करते हैं, और यह प्रक्रिया शिक्षा के पाठ्यक्रम में कैसे परिलक्षित होती है। साथ ही, यह भी विचार किया जाएगा कि इन पूर्वाग्रहों को तोड़कर पाठ्यक्रम को कैसे अधिक जेंडर समावेशी और समानतापूर्ण बनाया जा सकता है, ताकि शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य – व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास – पूर्ण हो सके।
2. संस्कृति में जेंडर की अवधारणा
2.1 संस्कृति और जेंडर
परिभाषा – संस्कृति समाज की वह व्यापक जीवन पद्धति है जिसमें लोगों के सोचने, बोलने, पहनने, व्यवहार करने, उत्सव मनाने, भोजन करने और रिश्ते निभाने के तरीके शामिल होते हैं। यह किसी भी समाज की पहचान बनाती है और उसमें व्याप्त मूल्यों, विश्वासों, परंपराओं, रीति-रिवाजों, कलाओं, धर्म और नैतिक मान्यताओं को दर्शाती है। संस्कृति व्यक्ति के जन्म से पहले से ही अस्तित्व में होती है और उसके जीवन भर के व्यवहार व सोच को आकार देती रहती है।
जेंडर की स्थिति – संस्कृति यह भी तय करती है कि किसी समाज में पुरुष और महिला की भूमिकाएँ, अधिकार और कर्तव्य क्या होंगे। उदाहरण के लिए, अधिकांश पारंपरिक संस्कृतियों में पुरुषों को परिवार के मुखिया, निर्णयकर्ता और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर माना जाता है, जबकि महिलाओं को घरेलू जिम्मेदारियों, बच्चों की परवरिश और पति का सहयोग करने वाली भूमिका में देखा जाता है।
इन भूमिकाओं को इतनी गहराई से समाज में स्थापित किया जाता है कि लोग उन्हें प्राकृतिक मान लेते हैं, जबकि वास्तव में ये केवल सांस्कृतिक निर्माण (cultural constructs) होते हैं। इसी कारण कई बार लड़कियाँ विज्ञान, खेल, या नेतृत्व जैसे क्षेत्रों में आगे बढ़ने से हिचकिचाती हैं क्योंकि संस्कृति ने उन्हें हमेशा सहयोगी भूमिका में ही दिखाया होता है।
इस प्रकार, संस्कृति जेंडर की परिभाषा को सीमित कर देती है और यह निर्धारित कर देती है कि कौन क्या कर सकता है और किसे क्या नहीं करना चाहिए। यही सांस्कृतिक धारणाएँ शिक्षा के पाठ्यक्रम और विद्यालयी जीवन में भी दिखाई देती हैं, जो आगे चलकर समाज में लिंग आधारित असमानता (gender inequality) को स्थायी बना देती हैं।
2.2 लिंग आधारित सामाजिक अपेक्षाएँ
हर समाज में बचपन से ही लड़कों और लड़कियों के प्रति भिन्न-भिन्न अपेक्षाएँ रखी जाती हैं। जैसे ही बच्चे का जन्म होता है, उसके लिंग के आधार पर उसके भविष्य, व्यवहार और व्यक्तित्व को लेकर समाज की सोच बन जाती है। उदाहरण स्वरूप –
लड़कों के लिए अपेक्षाएँ:
आत्मनिर्भर, मजबूत और साहसी बनना
करियर पर केंद्रित रहना
जोखिम उठाना, निर्णय लेना, नेतृत्व करना
लड़कियों के लिए अपेक्षाएँ:
आज्ञाकारी, शांत और सहनशील रहना
परिवार, विवाह और बच्चों पर केंद्रित रहना
सज्जनता, मर्यादा और सीमित भूमिकाओं में रहना
इन अपेक्षाओं के कारण लड़कों को शुरू से ही बाहरी दुनिया का सामना करने, निर्णय लेने, करियर बनाने और परिवार चलाने के लिए तैयार किया जाता है। उन्हें यह सिखाया जाता है कि वह परिवार के संरक्षक और कमाने वाले बनें। दूसरी ओर, लड़कियों को विनम्र, सहनशील, आज्ञाकारी और दूसरों का ध्यान रखने वाली भूमिकाओं में प्रशिक्षित किया जाता है। उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी महत्वाकांक्षाओं को सीमित रखें और परिवार की मर्यादा तथा प्रतिष्ठा को प्राथमिकता दें।
इसका सीधा प्रभाव उनकी शिक्षा और करियर विकल्पों पर पड़ता है। उदाहरण के लिए:
लड़कियाँ विज्ञान, गणित, इंजीनियरिंग, खेल या सेना जैसे क्षेत्रों में जाने से हिचकिचाती हैं क्योंकि उन्हें बचपन से बताया जाता है कि ये क्षेत्र लड़कों के लिए हैं।
लड़कों में सहनशीलता, देखभाल, भावनात्मक अभिव्यक्ति और घरेलू कार्यों के प्रति अरुचि पाई जाती है क्योंकि इन्हें ‘महिलाओं के कार्य’ समझा जाता है।
कई बार लड़कियाँ उच्च शिक्षा छोड़कर जल्दी विवाह कर लेती हैं, जबकि लड़कों को करियर में आगे बढ़ाने के लिए परिवार हर संभव प्रयास करता है।
इन सामाजिक अपेक्षाओं के कारण लिंग असमानता (gender inequality) की जड़ें और भी गहरी होती जाती हैं। बच्चे अपने वास्तविक व्यक्तित्व और रुचियों को विकसित करने की बजाय वही बनते हैं जो समाज उनसे बनना चाहता है। यही सोच शिक्षा व्यवस्था, पाठ्यक्रम और विद्यालयी जीवन में भी दिखाई देती है, जिससे एक पारंपरिक पितृसत्तात्मक ढांचा और अधिक मजबूत होता जाता है।
3. संस्थानों में जेंडर की भूमिका
हर समाज में कुछ प्रमुख संस्थाएँ होती हैं – जैसे परिवार, विद्यालय, धर्म और मीडिया – जो सामाजिक व्यवस्था और सांस्कृतिक मूल्यों को बनाए रखती हैं। ये संस्थाएँ जेंडर असमानता को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से स्थायी बना देती हैं। आइए इसे विस्तार से समझें:
3.1 परिवार
परिवार व्यक्ति का पहला सामाजिक संस्थान होता है जहाँ वह जेंडर की अवधारणाओं को सीखता है।
कार्य विभाजन: पारंपरिक परिवारों में कार्यों का विभाजन लिंग के आधार पर किया जाता है। लड़कों को बाहरी कार्य जैसे बाजार जाना, बैंक के काम करना, बिजली या मोबाइल जैसे उपकरणों का प्रयोग करना सिखाया जाता है। इसके विपरीत, लड़कियों को रसोई, सफाई, सिलाई, छोटे बच्चों की देखभाल जैसे घरेलू कार्यों में प्रशिक्षित किया जाता है। यह कार्य विभाजन बच्चों के मन में यह धारणा स्थापित कर देता है कि पुरुषों का कार्य बाहर और महिलाओं का घर के अंदर सीमित है।
शिक्षा की प्राथमिकता: कई परिवार लड़कियों की शिक्षा को केवल विवाह तक सीमित रखते हैं। उनका मानना होता है कि लड़की को इतना पढ़ा दो कि अच्छा रिश्ता मिल जाए। वहीं, लड़कों की पढ़ाई को परिवार का भविष्य और सामाजिक प्रतिष्ठा माना जाता है। लड़कों की कोचिंग, तकनीकी शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए परिवार अतिरिक्त निवेश करता है।
इस प्रकार परिवार में ही जेंडर भेदभाव की नींव रख दी जाती है, जो बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण पर गहरा प्रभाव डालती है।
3.2 विद्यालय
विद्यालय सामाजिककरण का दूसरा प्रमुख संस्थान है। यहाँ भी जेंडर भेदभाव कई रूपों में दिखाई देता है:
पाठ्यक्रम सामग्री: अधिकांश किताबों में नायक पुरुष होते हैं। वैज्ञानिक, खोजकर्ता, नेता, डॉक्टर, इंजीनियर आदि उदाहरणों में पुरुषों का ही वर्चस्व होता है। महिलाएँ केवल पारंपरिक भूमिकाओं में दिखाई देती हैं जैसे – माँ, बहन, शिक्षिका या नर्स। इससे लड़कियों के मन में यह धारणा बनती है कि बड़े और महत्वपूर्ण कार्य पुरुषों के ही होते हैं।
विषय चयन: विद्यालयों में विज्ञान, गणित और तकनीकी विषय लड़कों के लिए माने जाते हैं जबकि गृह विज्ञान, कला, नृत्य, संगीत जैसे विषयों को लड़कियों के लिए उचित समझा जाता है। इससे लड़कियों की महत्वाकांक्षाएँ सीमित होती हैं और लड़के मानते हैं कि तकनीकी और नेतृत्व के क्षेत्र उनके लिए ही बने हैं।
इसके अलावा, विद्यालयों में खेलकूद, प्रयोगशालाओं और विज्ञान क्लबों जैसी गतिविधियों में भी लड़कियों की भागीदारी कम देखी जाती है। यह अंतर उनकी आत्मछवि और आत्मविश्वास पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।
3.3 धर्म
धर्म भी जेंडर असमानता को बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभाता है।
पुरुष प्रधानता: अधिकतर धार्मिक ग्रंथों, पूजा विधियों और धर्म संस्थानों में पुरुषों का प्रभुत्व होता है। पुजारी, मौलवी, ग्रंथी जैसे धार्मिक नेतृत्व के पद पुरुषों के पास होते हैं।
महिलाओं की भूमिका: महिलाओं को पूजा, व्रत, अनुष्ठान करने की अनुमति तो होती है परंतु उनका नेतृत्व सीमित रहता है। कुछ धार्मिक परंपराओं में महिलाओं का मंदिर प्रवेश तक वर्जित रहता है। इससे समाज में यह संदेश जाता है कि धार्मिक नेतृत्व और अधिकार पुरुषों तक ही सीमित हैं।
3.4 मीडिया
मीडिया – जैसे टीवी, फिल्में, विज्ञापन, सोशल मीडिया – जेंडर भूमिकाओं को व्यापक स्तर पर स्थापित करने का कार्य करते हैं।
विज्ञापन और फिल्में: अधिकतर विज्ञापनों में महिलाओं को सुंदरता, सौम्यता, परिवार, रसोई और बच्चों की देखभाल से जोड़ा जाता है। सौंदर्य प्रसाधनों, डिटर्जेंट, रसोई गैस, कपड़ों के विज्ञापन में महिलाएँ ही दिखाई जाती हैं।
पुरुषों की छवि: फिल्मों और विज्ञापनों में पुरुषों को ताकत, साहस, निर्णय क्षमता और सफलता का प्रतीक दिखाया जाता है। वह हीरो, रक्षक, नेता और विजेता के रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं।
यह मीडिया छवि बच्चों और युवाओं के मन में यह सोच मजबूत कर देती है कि पुरुष ही निर्णयकर्ता, रक्षक और कमाने वाले होते हैं जबकि महिलाएँ सुंदर, सज्जन और दूसरों की सेवा करने के लिए होती हैं।
इस प्रकार, परिवार, विद्यालय, धर्म और मीडिया जैसी संस्थाएँ मिलकर जेंडर असमानता को निरंतर बनाए रखती हैं। यह संस्थागत भेदभाव बच्चों की सोच, व्यवहार, शिक्षा और करियर के विकल्पों को सीमित कर देता है, जिससे समाज में पितृसत्तात्मक ढांचा और भी मजबूत होता जाता है।
4. पाठ्यक्रम में जेंडर मुद्दे
4.1 पाठ्यक्रम की संरचना में जेंडर भेदभाव
पाठ्यक्रम, जिसे शिक्षा का मूल आधार माना जाता है, उसमें भी जेंडर आधारित भेदभाव गहराई से समाया हुआ है।
इतिहास की पुस्तकों में: यदि हम इतिहास के पाठ्यक्रम पर दृष्टि डालें तो पाएंगे कि उसमें राष्ट्र निर्माण, युद्ध, विज्ञान, राजनीति, शासन व्यवस्था जैसे विषयों में पुरुषों की उपलब्धियों को ही केंद्र में रखा गया है। उदाहरण के लिए, स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह जैसे नेताओं के योगदान को विस्तार से पढ़ाया जाता है लेकिन उसी आंदोलन में शामिल महिलाओं – जैसे अरुणा आसफ अली, मातंगिनी हाजरा, उदा देवी, रानी लक्ष्मीबाई – के संघर्षों को बहुत संक्षिप्त रूप में या कभी-कभी तो बिल्कुल भी शामिल नहीं किया जाता।
महिलाओं की अनदेखी: विज्ञान, समाज सुधार, राजनीति, साहित्य और अन्य क्षेत्रों में महिलाओं की उपलब्धियाँ पाठ्यक्रम में न के बराबर होती हैं। इससे विद्यार्थियों के मन में यह धारणा बनती है कि समाज के विकास में पुरुषों का ही योगदान महत्वपूर्ण रहा है और महिलाओं की भूमिका गौण रही है, जबकि वास्तविकता यह है कि हर क्षेत्र में महिलाओं का योगदान भी उतना ही महत्वपूर्ण रहा है।
4.2 भाषा और उदाहरणों में जेंडर पूर्वाग्रह
पाठ्यपुस्तकों में प्रयुक्त भाषा भी जेंडर असमानता को बढ़ावा देती है।
उदाहरण स्वरूप, अक्सर किताबों में वाक्य इस प्रकार होते हैं – “डॉक्टर अपने मरीज को सलाह देता है…” यहाँ डॉक्टर के लिए पुरुषवाचक सर्वनाम का प्रयोग किया गया है, जिससे यह धारणा बनती है कि डॉक्टर होना पुरुषों का ही कार्य है।
इसी प्रकार, अध्यापक, वैज्ञानिक, नेता, खिलाड़ी जैसे शब्दों के उदाहरण भी अधिकतर पुरुषों से ही जोड़े जाते हैं। लड़कियों के उदाहरण घरेलू कार्यों, सज्जनता, सहनशीलता और पारिवारिक भूमिकाओं तक सीमित रहते हैं। इससे बच्चों के मन में यह सोच बनती है कि बड़े और महत्वाकांक्षी कार्य केवल पुरुषों के लिए होते हैं।
4.3 विद्यालयी गतिविधियों में भेदभाव
विद्यालय की सह-पाठयक्रम गतिविधियों में भी जेंडर आधारित भेदभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
खेल: लड़कों को क्रिकेट, फुटबॉल, कबड्डी जैसे खेलों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। लड़कियों को नृत्य, पीटी, योग या सीमित शारीरिक गतिविधियों में भाग लेने के लिए कहा जाता है। इससे लड़कियों में आत्मविश्वास और शारीरिक दक्षता का विकास सीमित रह जाता है।
विज्ञान प्रयोग: विज्ञान प्रयोगशालाओं में भी लड़कों को उपकरणों के संचालन और प्रयोगों का नेतृत्व करने के अधिक अवसर दिए जाते हैं। लड़कियाँ प्रायः केवल सहायक की भूमिका में ही रहती हैं।
नेतृत्व के अवसर: स्कूल कैप्टन, हाउस कैप्टन, विज्ञान क्लब प्रेसिडेंट, डिबेट टीम लीडर जैसे पदों पर लड़कों का वर्चस्व अधिक देखने को मिलता है। इससे लड़कियों में नेतृत्व क्षमता, निर्णय शक्ति और आत्मनिर्भरता का विकास नहीं हो पाता।
इस प्रकार, पाठ्यक्रम की सामग्री, भाषा और विद्यालयी गतिविधियों में व्याप्त जेंडर पूर्वाग्रह विद्यार्थियों के मन में यह सोच विकसित कर देता है कि समाज में पुरुष ही प्रधान हैं और महिलाओं की भूमिका सीमित है। यदि हमें समानता और समावेशिता वाला समाज बनाना है तो पाठ्यक्रम में व्याप्त इन भेदभावपूर्ण तत्वों को पहचानकर उनमें आवश्यक परिवर्तन करना अनिवार्य है।
5. संस्कृति, संस्थान और पाठ्यक्रम के आपसी संबंध
संस्कृति और पाठ्यक्रम का संबंध
संस्कृति किसी भी समाज की जीवनशैली, विश्वासों, मूल्यों, परंपराओं और व्यवहारों का समूह होती है। पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय इन सभी सांस्कृतिक तत्वों का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। पाठ्यक्रम निर्माता, शिक्षक, शिक्षाविद् और नीति निर्माता भी उसी समाज और संस्कृति का हिस्सा होते हैं। उनके सोचने का तरीका, उनकी प्राथमिकताएँ, और उनका दृष्टिकोण उसी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से प्रभावित होता है जिसमें वे पले-बढ़े हैं। उदाहरण के लिए, यदि किसी समाज में पुरुषों को ही नेतृत्व का स्थान दिया जाता है, तो पाठ्यक्रम में भी वही दृष्टिकोण परिलक्षित होगा और महिलाओं के योगदान को या तो गौण माना जाएगा या बिल्कुल ही नजरअंदाज कर दिया जाएगा। इस प्रकार, पाठ्यक्रम समाज की संस्कृति को प्रतिबिंबित करने वाला एक दर्पण होता है, जो यह दिखाता है कि समाज किसे महत्वपूर्ण मानता है और किसे नहीं।
संस्थान और संस्कृति का संबंध
संस्थान जैसे परिवार, विद्यालय, धार्मिक संस्थाएँ, मीडिया और अन्य सामाजिक संगठन भी संस्कृति के संवाहक और पोषक होते हैं। विद्यालय केवल ज्ञान देने का माध्यम नहीं है, बल्कि यह समाज की सांस्कृतिक धारणाओं, मान्यताओं और मूल्यों को बच्चों के भीतर स्थापित करने का एक प्रमुख उपकरण होता है। परिवार में बच्चों को जो संस्कार और धारणाएँ दी जाती हैं, वे भी पाठ्यक्रम में उनकी सीखने की दिशा को प्रभावित करती हैं। मीडिया द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम, विज्ञापन और समाचार भी जेंडर भूमिकाओं को प्रोत्साहित करते हैं। जब ये सभी संस्थान किसी विशेष प्रकार की जेंडर धारणा को बढ़ावा देते हैं, तो पाठ्यक्रम भी उसी का समर्थन करने लगता है। इस प्रकार, संस्थान और पाठ्यक्रम मिलकर संस्कृति को पुनः स्थापित और स्थायी बनाते हैं।
पाठ्यक्रम और जेंडर असमानता
पाठ्यक्रम का निर्माण जिस प्रकार से किया जाता है, उसमें यह देखा जाता है कि कौन-कौन से विषय शामिल किए जाएँ और किन उदाहरणों को प्रस्तुत किया जाए। जब पाठ्यक्रम में पुरुषों के नेतृत्व, उपलब्धियों और साहसिक कार्यों पर ही अधिक बल दिया जाता है तथा महिलाओं की उपलब्धियों का समुचित उल्लेख नहीं होता, तो यह जेंडर असमानता को वैधता प्रदान करता है। बच्चे जब विद्यालयों में इसी प्रकार के पाठ्यक्रम को पढ़ते हैं, तो उनकी सोच में भी यही धारणा विकसित होती है कि पुरुष ही श्रेष्ठ और नेतृत्व के योग्य हैं, जबकि महिलाओं का कार्यक्षेत्र सीमित है। इस प्रकार, पाठ्यक्रम केवल ज्ञान देने का माध्यम नहीं रह जाता, बल्कि वह समाज की असमानताओं को बनाए रखने और नई पीढ़ी के मानस में गहराई से बैठाने का कार्य भी करता है।
6. जेंडर असमानता के प्रभाव
6.1 लड़कियों पर प्रभाव
आत्मविश्वास की कमी
जब लड़कियों को लगातार यह महसूस कराया जाता है कि वे लड़कों से कमतर हैं या उनकी भूमिका सीमित है, तो उनके आत्मसम्मान और आत्मविश्वास पर गहरा प्रभाव पड़ता है। विद्यालय में यदि उन्हें नेतृत्व के अवसर, मंच पर बोलने, या विज्ञान-गणित जैसी कठिन समझी जाने वाली विषयों में प्रोत्साहन नहीं दिया जाता, तो वे स्वयं को कमजोर और अयोग्य मानने लगती हैं। इससे उनका व्यक्तित्व विकास भी बाधित होता है।
STEM क्षेत्रों में कम भागीदारी
जेंडर असमानता का प्रत्यक्ष प्रभाव विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित (STEM) जैसे क्षेत्रों में दिखाई देता है। लड़कियों को बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि ये क्षेत्र लड़कों के लिए उपयुक्त हैं, जिससे उनका आत्मविश्वास और रुचि दोनों प्रभावित होते हैं। परिणामस्वरूप, उच्च शिक्षा और करियर में STEM क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी नगण्य रहती है, जिससे समाज भी उनकी क्षमताओं से वंचित रह जाता है।
सीमित करियर विकल्प
लड़कियों पर सामाजिक और सांस्कृतिक दबाव के कारण उनके करियर विकल्प सीमित हो जाते हैं। उन्हें पारंपरिक भूमिकाओं जैसे शिक्षिका, नर्स, या गृहिणी तक ही सीमित कर दिया जाता है, जबकि उनके भीतर भी वैज्ञानिक, इंजीनियर, सेना अधिकारी या व्यवसायी बनने की अद्भुत संभावनाएँ होती हैं। यह न केवल व्यक्तिगत विकास को बाधित करता है बल्कि समाज के समग्र विकास को भी प्रभावित करता है।
निर्णय लेने की क्षमता का विकास नहीं होना
जब लड़कियों को बचपन से ही महत्वपूर्ण निर्णयों से अलग रखा जाता है, चाहे वह परिवार के छोटे निर्णय हों या करियर से जुड़े बड़े निर्णय, तो उनकी निर्णय लेने की क्षमता विकसित नहीं हो पाती। उन्हें हमेशा दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिससे आत्मनिर्भरता का भाव कम होता है और वे जीवन के महत्वपूर्ण मोड़ों पर आत्मविश्वास से निर्णय नहीं ले पातीं।
6.2 लड़कों पर प्रभाव
भावनात्मक विकास में कमी
जेंडर असमानता केवल लड़कियों को ही नहीं, बल्कि लड़कों को भी प्रभावित करती है। लड़कों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे हमेशा मजबूत, कठोर और भावनाओं को व्यक्त न करने वाले बनें। इसके कारण उनका भावनात्मक विकास रुक जाता है और वे अपनी समस्याओं को खुलकर किसी से साझा नहीं कर पाते, जिससे मानसिक स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
संवेदनशीलता का अभाव
जब लड़कों को यह सिखाया जाता है कि रोना या सहानुभूति दिखाना कमजोरी है, तो उनके भीतर दूसरों के प्रति संवेदनशीलता का अभाव होने लगता है। यह सामाजिक रिश्तों को प्रभावित करता है और उनके व्यक्तित्व में कठोरता और आक्रामकता का विकास हो सकता है, जो परिवार, कार्यस्थल और समाज में संघर्ष उत्पन्न कर सकता है।
पितृसत्तात्मक सोच का मजबूत होना
लड़कों को यह सिखाया जाता है कि वे लड़कियों से श्रेष्ठ हैं और सभी महत्वपूर्ण निर्णय लेने का अधिकार उन्हें ही है। यह सोच पितृसत्तात्मक व्यवस्था को और अधिक मजबूत करती है। परिणामस्वरूप, वे समानता, सम्मान और सहयोग की भावना से दूर हो जाते हैं, जिससे समाज में लैंगिक भेदभाव की जड़ें और गहरी हो जाती हैं।
7. समाधान: पाठ्यक्रम में जेंडर समानता के उपाय
7.1 पाठ्यक्रम में सुधार
पाठ्यक्रम में सुधार करना अत्यंत आवश्यक है ताकि उसमें महिलाओं के योगदान, संघर्षों और उपलब्धियों को उचित स्थान मिल सके। इतिहास, राजनीति, विज्ञान, साहित्य, कला – सभी विषयों में ऐसी महिला हस्तियों के उदाहरण शामिल किए जाएँ जिन्होंने समाज को दिशा दी। विज्ञान, गणित और तकनीकी विषयों में महिला वैज्ञानिकों, गणितज्ञों और अभियंताओं की जीवन कहानियाँ और कार्यों को शामिल करने से लड़कियों में प्रेरणा और आत्मविश्वास का विकास होगा, जबकि लड़कों में सम्मान की भावना उत्पन्न होगी।
7.2 शिक्षकों का जेंडर सेंसिटाइजेशन
शिक्षक कक्षा का नेतृत्व करते हैं और विद्यार्थियों की सोच को आकार देते हैं। इसलिए उनका जेंडर सेंसिटाइजेशन प्रशिक्षण अत्यंत महत्वपूर्ण है। उन्हें यह सिखाया जाए कि भाषा, उदाहरण, गतिविधियाँ, कक्षा प्रबंधन और प्रोत्साहन में जेंडर संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाएँ। यदि शिक्षक कक्षा में समानता का वातावरण बनाएंगे, तो विद्यार्थी भी वही व्यवहार अपने जीवन में उतारेंगे।
7.3 पाठ्यपुस्तकों की समीक्षा
पाठ्यपुस्तकों की भाषा, चित्रण, उदाहरण और कहानियों में छिपे जेंडर पूर्वाग्रह को पहचानना और हटाना आवश्यक है। ऐसी सामग्री विकसित करनी चाहिए जो जेंडर न्यूट्रल हो और जिसमें सभी को समान रूप से प्रस्तुत किया जाए। इससे विद्यार्थियों के मन में यह धारणा बनेगी कि समाज के निर्माण और विकास में सभी का समान योगदान है।
7.4 विद्यालयी नीतियाँ
विद्यालयों में ऐसी नीतियाँ बनाई जाएँ जिनसे खेल, विज्ञान प्रयोगशालाओं, क्लबों, मंच गतिविधियों, छात्र परिषद और अन्य सभी क्षेत्रों में लड़के और लड़कियाँ समान रूप से भाग ले सकें। काउंसलिंग, मोटिवेशनल सेशन, पोस्टर, वर्कशॉप आदि के माध्यम से जेंडर समानता की समझ और सम्मान की भावना विकसित की जाए। इससे विद्यालय एक आदर्श सामाजिक वातावरण का निर्माण करेगा।
7.5 समुदाय और अभिभावकों की भागीदारी
केवल विद्यालय ही नहीं, बल्कि समुदाय और अभिभावक भी इस दिशा में अपनी भूमिका निभाएँ। अभिभावकों को जागरूक किया जाए कि लड़कियों की शिक्षा, स्वास्थ्य और करियर उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने लड़कों के। यदि परिवार और समाज का दृष्टिकोण बदलेगा तो पाठ्यक्रम में किए गए सुधारों का वास्तविक प्रभाव बच्चों के जीवन में दिखाई देगा।
8. निष्कर्ष
संस्कृति, संस्थान और पाठ्यक्रम – ये तीनों तत्व मिलकर समाज की संरचना और उसकी सोच को आकार देते हैं। जब संस्कृति में जेंडर असमानता की गहराई हो, संस्थान उस असमानता को बनाए रखें और पाठ्यक्रम उसमें निहित पूर्वाग्रहों को वैधता प्रदान करे, तो यह भेदभाव और भी मजबूत होता चला जाता है। यही कारण है कि लड़कियाँ आत्मविश्वास की कमी, सीमित अवसरों और संकुचित करियर विकल्पों का सामना करती हैं, जबकि लड़कों में भी संवेदनशीलता, सहानुभूति और समानता की भावना का अभाव देखा जाता है। यदि हमें एक ऐसा समाज बनाना है जिसमें सभी को बराबरी का अधिकार मिले और प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता का पूर्ण विकास कर सके, तो इसके लिए पाठ्यक्रम में व्यापक बदलाव लाना अनिवार्य है।
पाठ्यक्रम को इस प्रकार से तैयार किया जाना चाहिए जिसमें जेंडर समानता को केन्द्रीय स्थान दिया जाए। शिक्षण विधियों में भी बदलाव लाकर, शिक्षकों को जेंडर सेंसिटिव बनाकर और संस्थागत नीतियों को समानता की दिशा में परिवर्तित कर हम एक सकारात्मक परिवर्तन की ओर अग्रसर हो सकते हैं। साथ ही, सामाजिक सोच में भी यह परिवर्तन जरूरी है कि लड़कियाँ किसी से कम नहीं हैं और लड़कों को भी भावनाओं की अभिव्यक्ति, सहयोग और सम्मान का पाठ पढ़ाया जाए। जेंडर समावेशी पाठ्यक्रम ही वह माध्यम है जिससे बच्चों में समानता, सहयोग, सम्मान, संवेदनशीलता और समावेशिता के मूल्य विकसित हो सकते हैं। जब शिक्षा में समता होगी, तभी समाज में भी वास्तविक समानता और न्याय की स्थापना संभव होगी। यह बदलाव केवल पाठ्यक्रम का नहीं, बल्कि सोच, दृष्टिकोण और व्यवहार का भी होना चाहिए, तभी एक समावेशी, न्यायपूर्ण और सशक्त समाज का निर्माण संभव होगा।
Read more....
Post a Comment