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Government of India Act, 1919 भारत शासन अधिनियम, 1919

Government of India Act, 1919 | भारत शासन अधिनियम, 1919 - Introduction, Features, Dyarchy, Impact on Indian Politics & British Rule

प्रस्तावना (Introduction):

भारत शासन अधिनियम, 1919, जिसे मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार (Montagu-Chelmsford Reforms) भी कहा जाता है, ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय प्रशासन में परिवर्तन लाने के उद्देश्य से लागू किया गया एक महत्वपूर्ण अधिनियम था। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य भारत में प्रशासनिक व्यवस्था में भारतीयों की भागीदारी बढ़ाना था, हालांकि यह भागीदारी सीमित थी। इसने द्वैध शासन (Dyarchy) की प्रणाली की शुरुआत की, जिसके तहत प्रांतीय प्रशासन को दो भागों में विभाजित किया गया।

पहले भाग में आरक्षित विषय (Reserved Subjects) थे, जिनमें कानून-व्यवस्था, पुलिस, भूमि राजस्व और न्याय व्यवस्था जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र आते थे। इनका नियंत्रण पूरी तरह से ब्रिटिश अधिकारियों और गवर्नर के पास था। दूसरे भाग में हस्तांतरित विषय (Transferred Subjects) शामिल थे, जिनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, स्थानीय स्वशासन, कृषि और सार्वजनिक कार्यों जैसी जिम्मेदारियां थीं। इन विषयों का प्रशासन भारतीय मंत्रियों को सौंपा गया, जो प्रांतीय विधानमंडलों के प्रति उत्तरदायी थे।

हालांकि, इस अधिनियम के अंतर्गत भारतीयों को प्रशासन में भागीदारी का अवसर दिया गया, लेकिन वास्तविक सत्ता ब्रिटिश अधिकारियों के हाथों में ही बनी रही। गवर्नर के पास वीटो शक्ति थी, जिससे वह किसी भी निर्णय को रद्द कर सकता था। इसके अलावा, केंद्र सरकार पर ब्रिटिश संसद और वायसराय का पूर्ण नियंत्रण बना रहा। इस कारण भारतीय नेताओं ने इस प्रणाली की आलोचना की और इसे अपूर्ण सुधार करार दिया।

फिर भी, यह अधिनियम भारत में स्वशासन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। इसने भारतीयों को प्रशासनिक अनुभव प्राप्त करने का अवसर दिया और आगे चलकर 1935 के भारत शासन अधिनियम तथा स्वतंत्रता संग्राम की आधारशिला तैयार करने में सहायक बना। इस सुधार ने भारतीय राजनीति में जागरूकता बढ़ाई और स्वराज की मांग को और अधिक सशक्त किया।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (Historical Background):

1919 का भारत शासन अधिनियम ब्रिटिश सरकार द्वारा 1917 में की गई उस घोषणा का परिणाम था, जिसमें भारत को धीरे-धीरे स्वशासन की ओर अग्रसर करने का आश्वासन दिया गया था। इस अधिनियम का उद्देश्य भारतीयों को प्रशासन में अधिक भागीदारी देने का था, लेकिन वास्तविक शक्ति अब भी ब्रिटिश सरकार और गवर्नर-जनरल के हाथों में केंद्रित रही।

इस अधिनियम के तहत प्रांतीय शासन में द्वैध शासन (Dyarchy) की व्यवस्था लागू की गई, जिसमें प्रशासन को दो भागों—हस्तांतरित विषय और आरक्षित विषय—में विभाजित किया गया। शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, और स्थानीय स्वशासन जैसे विषय भारतीय मंत्रियों को सौंपे गए, लेकिन पुलिस, वित्त, न्याय और राजस्व जैसे महत्वपूर्ण विषय ब्रिटिश अधिकारियों के नियंत्रण में ही रहे।

यद्यपि यह सुधार भारतीयों को विधायी प्रक्रियाओं में भाग लेने का अवसर प्रदान करता था, फिर भी उनकी शक्ति सीमित थी। गवर्नर को वीटो का अधिकार था, और ब्रिटिश अधिकारी किसी भी नीतिगत निर्णय को अपनी इच्छा से बदल सकते थे। इसके अतिरिक्त, केंद्र सरकार पर पूरी तरह से ब्रिटिश संसद और वायसराय का नियंत्रण बना रहा, जिससे भारतीयों की राजनीतिक स्वतंत्रता सीमित ही रही।

इस अधिनियम ने स्वशासन की दिशा में एक प्रारंभिक कदम जरूर उठाया, लेकिन भारतीय नेताओं और जनता ने इसे अपर्याप्त माना। इसके परिणामस्वरूप भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और अधिक संगठित हुआ, और 1920 के असहयोग आंदोलन को बल मिला। आगे चलकर, इसी अधिनियम की कमियों को दूर करने के लिए 1935 का भारत शासन अधिनियम लागू किया गया, जिसने भारतीय राजनीति में और अधिक स्वतंत्रता प्रदान करने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

मुख्य प्रावधान (Main Provisions):

1. द्वैध शासन (Dyarchy) की व्यवस्था:

इस अधिनियम के तहत प्रांतीय शासन को दो भागों में बांटा गया:

स्थानांतरित विषय (Transferred Subjects):

भारत में प्रांतीय प्रशासन को आंशिक रूप से भारतीय मंत्रियों के नियंत्रण में देने की प्रक्रिया के तहत कुछ विषयों को स्थानांतरित किया गया। 1919 के भारत सरकार अधिनियम (Government of India Act, 1919) के तहत द्वैध शासन (Dyarchy) प्रणाली लागू की गई, जिसमें प्रशासन को दो भागों में विभाजित किया गया—स्थानांतरित और आरक्षित विषय। स्थानांतरित विषयों का नियंत्रण भारतीय मंत्रियों के पास था, जो प्रांतीय विधान परिषद (Legislative Council) के प्रति उत्तरदायी होते थे। यह कदम भारतीय नेताओं को प्रशासन में भागीदारी देने और स्वशासन की ओर बढ़ने के उद्देश्य से उठाया गया था।

इन विषयों में शामिल थे:

स्वास्थ्य: अस्पतालों, प्राथमिक चिकित्सा सेवाओं और सार्वजनिक स्वास्थ्य योजनाओं का संचालन।

शिक्षा: प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा, साथ ही तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा का प्रबंधन।

कृषि: किसानों की सहायता, सिंचाई, कृषि अनुसंधान और कृषि उत्पादन को बढ़ावा देना।

स्थानीय स्वशासन: नगर पालिकाओं और जिला परिषदों की स्थापना एवं संचालन।

सार्वजनिक कार्य: सड़कें, जल आपूर्ति, बिजली और संचार सेवाओं का विकास।

हालांकि, मंत्रियों को इन विषयों पर निर्णय लेने का अधिकार था, लेकिन उनके पास पूर्ण स्वतंत्रता नहीं थी क्योंकि बजट और प्रशासनिक नियंत्रण पर ब्रिटिश अधिकारियों का प्रभाव बना रहता था।

आरक्षित विषय (Reserved Subjects):

आरक्षित विषय वे थे, जिन पर भारतीय मंत्रियों को कोई नियंत्रण नहीं था। इनका प्रशासन ब्रिटिश गवर्नर और उनकी कार्यकारी परिषद (Executive Council) के अधीन था। यह परिषद सीधे ब्रिटिश सरकार को उत्तरदायी थी। इन विषयों को आरक्षित रखने का मुख्य कारण यह था कि ब्रिटिश प्रशासन भारतीयों को महत्वपूर्ण और संवेदनशील विषयों की जिम्मेदारी सौंपने को तैयार नहीं था। ब्रिटिश सरकार यह सुनिश्चित करना चाहती थी कि राजनीतिक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर उनका पूर्ण नियंत्रण बना रहे।

इन विषयों में शामिल थे:

पुलिस: कानून व्यवस्था बनाए रखना, अपराधों की रोकथाम और दंड प्रक्रिया का क्रियान्वयन।

वित्त: करों का संग्रह, राजस्व प्रबंधन और बजट निर्माण।

भूमि राजस्व: भू-राजस्व नीति निर्धारण, भूमि कर और पट्टे की व्यवस्था।

कानून और न्याय: न्यायपालिका, दंड संहिता, और विधायी संरचना का नियंत्रण।

संचार एवं परिवहन: रेलवे, टेलीग्राफ और डाक सेवाओं का प्रबंधन।

ब्रिटिश सरकार ने इन विषयों पर अपना अधिकार बनाए रखा ताकि वे भारत में अपने शासन को मजबूत रख सकें और किसी भी प्रकार की राजनीतिक अस्थिरता से बचा जा सके।इस व्यवस्था के कारण भारतीय मंत्रियों को सीमित अधिकार प्राप्त हुए, जिससे भारतीय नेताओं में असंतोष बढ़ा और स्वशासन की मांग तेज हो गई। इसी असंतोष ने आगे चलकर 1935 के भारत सरकार अधिनियम और अंततः भारत की स्वतंत्रता की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

2. केंद्रीय व्यवस्थाओं में कोई विशेष परिवर्तन नहीं (No Significant Change in Central Administration):

ब्रिटिश शासन के अधीन केंद्रीय प्रशासन की मूल संरचना में कोई बड़ा बदलाव नहीं किया गया। गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद में भारतीयों को शामिल करने की प्रक्रिया जरूर शुरू हुई, लेकिन उनकी भूमिका केवल परामर्श देने तक सीमित रही। प्रशासनिक निर्णय लेने की वास्तविक शक्ति ब्रिटिश अधिकारियों के हाथों में ही केंद्रित रही। भारतीय सदस्यों को केवल सांकेतिक भागीदारी दी गई, जिससे वे नीति-निर्माण की प्रक्रिया में कोई प्रभावी योगदान नहीं दे सके।

इसके अलावा, कानूनों और प्रशासनिक सुधारों पर अंतिम निर्णय ब्रिटिश सरकार ही लेती रही, जिससे भारतीय जनता में असंतोष बढ़ता गया। धीरे-धीरे यह एहसास मजबूत हुआ कि केवल प्रतिनिधित्व से कोई सार्थक परिवर्तन नहीं होगा, बल्कि स्वशासन की आवश्यकता है। इसी पृष्ठभूमि में भारतीय नेताओं और समाज सुधारकों ने अधिक राजनीतिक अधिकारों की मांग को गति दी, जो आगे चलकर राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन का आधार बनी।

3. विधानमंडल (Legislature) का पुनर्गठन: 

केंद्रीय विधानमंडल (Central Legislature) को अधिक प्रभावी बनाने के उद्देश्य से इसे द्विसदनीय प्रणाली में विभाजित किया गया। इसके तहत:

वायसराय की कार्यकारी परिषद (Executive Council) –

यह उच्च सदन के रूप में कार्य करती थी और मुख्य रूप से ब्रिटिश अधिकारियों तथा नामांकित सदस्यों से मिलकर बनी थी। इस परिषद के पास नीति निर्धारण और प्रशासनिक निर्णयों में महत्त्वपूर्ण अधिकार थे।

इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल (Imperial Legislative Council) –

इसे निम्न सदन के रूप में स्थापित किया गया, जिसमें भारतीयों को सीमित संख्या में प्रतिनिधित्व दिया गया। हालाँकि, इस परिषद की शक्तियाँ बहुत सीमित थीं, और यह मुख्य रूप से ब्रिटिश प्रशासन द्वारा तय किए गए कानूनों की समीक्षा तक ही सीमित थी।

इस पुनर्गठन के अंतर्गत भारतीयों को पहली बार सीमित मताधिकार प्रदान किया गया, जिससे एक निश्चित वर्ग को चुनावों में भाग लेने का अवसर मिला। हालाँकि, यह अधिकार केवल संपत्ति, शिक्षा और कर भुगतान जैसी योग्यताओं पर आधारित था, जिससे अधिकांश भारतीय जनता मतदान प्रक्रिया से बाहर रह गई।

इसके अतिरिक्त, यह पहली बार था जब महिलाओं को भी सीमित मताधिकार दिया गया, जो भारतीय समाज में एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन का संकेत था। हालाँकि, यह अधिकार केवल कुछ शर्तों के तहत ही लागू हुआ और व्यापक स्तर पर महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को बढ़ावा देने में अभी और समय लगा। फिर भी, इस सुधार को राजनीतिक चेतना बढ़ाने और भविष्य में व्यापक लोकतांत्रिक अधिकारों की मांग की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना गया।

4. अलग निर्वाचन प्रणाली (Communal Representation) का विस्तार:

ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की नीति को और अधिक विस्तारित किया, जिससे विभिन्न समुदायों के लिए पृथक निर्वाचन प्रणाली को लागू किया गया। पहले जहां यह सुविधा केवल मुस्लिम समुदाय तक सीमित थी, वहीं अब इसे सिखों, ईसाइयों, एंग्लो-इंडियन्स और कुछ विशिष्ट व्यापारी वर्गों तक भी बढ़ा दिया गया। इसके तहत, इन समुदायों के सदस्य केवल अपने ही समुदाय के उम्मीदवारों के लिए मतदान कर सकते थे और उनके लिए आरक्षित सीटों पर चुनाव लड़ सकते थे।

इस नीति का प्रभाव भारतीय समाज की एकता पर गहरा पड़ा। पृथक निर्वाचन प्रणाली ने विभिन्न धार्मिक और सामाजिक समूहों के बीच अलगाव को और अधिक मजबूत किया, जिससे राष्ट्रीय एकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इससे भारतीय राजनीति में सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिला, क्योंकि विभिन्न समुदायों ने अपने हितों की रक्षा के लिए अलग-अलग राजनीतिक दावेदारी शुरू कर दी।

हालाँकि, ब्रिटिश सरकार ने इसे अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा के रूप में प्रस्तुत किया, लेकिन वास्तव में यह ‘फूट डालो और राज करो’ नीति का एक हिस्सा था। इस प्रणाली के कारण राष्ट्रीय आंदोलन भी प्रभावित हुआ, क्योंकि राजनीतिक संघर्ष अब केवल ब्रिटिश शासन के खिलाफ ही नहीं, बल्कि विभिन्न समुदायों के आपसी हितों के टकराव की दिशा में भी बढ़ने लगा। आगे चलकर, यही नीति भारत के विभाजन की पृष्ठभूमि तैयार करने में भी एक महत्वपूर्ण कारक बनी।

5. भारत में पहली बार जनमत संग्रह (Public Opinion) की अवधारणा:

भारत में पहली बार जनता की राय को प्रशासनिक सुधारों का आधार बनाने की दिशा में कदम उठाया गया। ब्रिटिश सरकार को यह निर्देश दिया गया कि वह भारतीय समाज की आवश्यकताओं और अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए नीतिगत सुधारों को लागू करे। हालाँकि, यह प्रक्रिया पूरी तरह लोकतांत्रिक नहीं थी और केवल सीमित वर्गों की राय तक सीमित रही।

इस अवधारणा के तहत विभिन्न प्रांतों और क्षेत्रों से जनता की प्रतिक्रिया प्राप्त करने की व्यवस्था की गई, लेकिन आम जनता की भागीदारी अत्यंत सीमित थी। केवल संपन्न और शिक्षित वर्गों को ही अपनी राय व्यक्त करने का अवसर मिला, जिससे यह प्रणाली व्यापक स्तर पर जनता की वास्तविक इच्छाओं का प्रतिनिधित्व नहीं कर पाई।

इसके बावजूद, यह कदम राजनीतिक जागरूकता बढ़ाने और भारतीयों को प्रशासनिक प्रक्रिया में शामिल करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण शुरुआत थी। इस पहल ने भारतीय नेताओं को अपनी आवाज उठाने और सरकार को सुधारों की दिशा में मजबूर करने का अवसर दिया। आगे चलकर, यही विचारधारा स्वतंत्रता संग्राम में व्यापक जनभागीदारी और लोकतांत्रिक अधिकारों की मांग का आधार बनी।

1919 अधिनियम की सीमाएँ (Limitations of Act 1919):

1. द्वैध शासन की विफलता (Failure of Dyarchy):

भारत शासन अधिनियम, 1919 के तहत लागू की गई द्वैध शासन प्रणाली (Dyarchy) सफल नहीं हो पाई। इस प्रणाली में प्रांतीय शासन को दो भागों में विभाजित किया गया—स्थानांतरित विषय (Transferred Subjects) और आरक्षित विषय (Reserved Subjects)। भारतीय मंत्रियों को स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि और स्थानीय प्रशासन जैसे स्थानांतरित विषयों का प्रभार दिया गया, लेकिन वे पूरी तरह स्वतंत्र नहीं थे क्योंकि वित्तीय संसाधनों और प्रशासनिक अधिकारों पर ब्रिटिश गवर्नर और उनकी कार्यकारी परिषद का नियंत्रण था। इसके अलावा, आरक्षित विषय, जैसे कि पुलिस, वित्त और कानून-व्यवस्था, पूरी तरह ब्रिटिश प्रशासन के अधीन रहे।

जब भी भारतीय मंत्री कोई नीतिगत निर्णय लेने का प्रयास करते, ब्रिटिश गवर्नर अपने विशेषाधिकारों का उपयोग कर हस्तक्षेप कर सकते थे। इससे भारतीय नेताओं को लगा कि उनके पास केवल नाममात्र की सत्ता है, जबकि वास्तविक शक्ति ब्रिटिश अधिकारियों के पास ही बनी रही। इस निराशाजनक व्यवस्था के कारण द्वैध शासन पूरी तरह विफल हो गया और भारतीयों में असंतोष और बढ़ा।

2. भारतीयों में असंतोष (Rise of Indian Discontent):

अधिनियम 1919 के लागू होने के बाद भारतीयों को उम्मीद थी कि उन्हें अधिक स्वायत्तता और प्रशासन में वास्तविक भागीदारी मिलेगी। लेकिन इस अधिनियम में भारतीयों को केवल सीमित अधिकार दिए गए और महत्वपूर्ण निर्णयों पर उनका कोई प्रभाव नहीं था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सहित कई संगठनों ने इस अधिनियम की आलोचना की और इसे "अधूरा और निराशाजनक" बताया।

महात्मा गांधी और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों ने महसूस किया कि यह अधिनियम ब्रिटिश शासन को मजबूत करने और भारतीयों को वास्तविक स्वशासन से वंचित रखने का एक तरीका मात्र था। इसी कारण 1920 में असहयोग आंदोलन (Non-Cooperation Movement) की शुरुआत हुई, जिसमें लाखों भारतीयों ने ब्रिटिश सरकार के प्रति असहयोग दिखाया और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया। भारतीयों की स्वतंत्रता की आकांक्षाओं को अधिनियम 1919 पूरा नहीं कर सका, जिससे राष्ट्रीय आंदोलन और अधिक तीव्र हो गया।

3. सांप्रदायिकता को बढ़ावा (Encouragement of Communalism):

अधिनियम 1919 में अलग निर्वाचन प्रणाली (Separate Electorates) को जारी रखा गया, जिससे सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिला। इस प्रणाली के तहत विभिन्न धार्मिक और सामाजिक समूहों के लिए अलग-अलग चुनावी व्यवस्थाएं बनाई गईं। विशेष रूप से, मुस्लिमों, सिखों और अन्य अल्पसंख्यक समूहों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था ने हिंदू-मुस्लिम एकता को कमजोर किया।

ब्रिटिश सरकार ने जानबूझकर इस प्रणाली को जारी रखा ताकि भारतीय समाज में "फूट डालो और राज करो" (Divide and Rule) की नीति को लागू किया जा सके। इसने भारतीय समाज में धार्मिक भेदभाव को गहरा किया और स्वतंत्रता संग्राम में एकता बनाए रखने में बाधा उत्पन्न की। बाद में, इसी सांप्रदायिक विभाजन ने भारत के विभाजन (Partition) की नींव भी रखी।

4. अधिनियम में स्वशासन का स्पष्ट लक्ष्य नहीं था (No Clear Objective of Self-Government):

1919 का भारत शासन अधिनियम ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों को स्वशासन (Self-Government) की दिशा में एक कदम के रूप में प्रस्तुत किया गया था, लेकिन इसमें कहीं भी पूर्ण स्वराज (Complete Independence) का स्पष्ट उल्लेख नहीं था। ब्रिटिश सरकार ने यह संकेत दिया कि भविष्य में भारतीयों को और अधिक अधिकार दिए जाएंगे, लेकिन कोई ठोस समय-सीमा या कार्ययोजना निर्धारित नहीं की गई।

इस अधिनियम में स्वशासन के लिए कोई ठोस रणनीति न होने के कारण भारतीयों को महसूस हुआ कि यह केवल एक राजनीतिक चाल है, जिससे वे ब्रिटिश शासन के अंतर्गत ही बने रहें। इस अधिनियम की अस्पष्टता और इसकी सीमाओं ने भारतीयों में निराशा उत्पन्न की और स्वतंत्रता संग्राम को और अधिक तेज कर दिया। यही कारण है कि 1935 में एक नए भारत शासन अधिनियम, 1935 को लागू करना पड़ा, जिसमें प्रांतीय स्वायत्तता (Provincial Autonomy) का प्रावधान किया गया, लेकिन तब भी भारतीयों की स्वशासन की मांग पूरी तरह पूरी नहीं हुई।

भारत शासन अधिनियम 1919 के प्रभाव (Effects of India Government Act 1919):

भारत शासन अधिनियम, 1919 के लागू होने के बाद भारतीय समाज और राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा। इस अधिनियम ने भले ही भारतीय प्रशासन में आंशिक सुधार किए, लेकिन यह जनता की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा। प्रांतीय स्तर पर मंत्रियों को कुछ विषयों का नियंत्रण दिया गया, लेकिन महत्वपूर्ण विषयों पर अभी भी ब्रिटिश गवर्नर और उनकी कार्यकारी परिषद का प्रभुत्व बना रहा। इससे भारतीय नेताओं में असंतोष बढ़ा, क्योंकि उन्हें वास्तविक सत्ता हस्तांतरण का अनुभव नहीं हुआ।

अधिनियम की सीमाओं और ब्रिटिश सरकार की हठधर्मिता के कारण 1920 में महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन (Non-Cooperation Movement) शुरू हुआ। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस अधिनियम को "अपूर्ण और निराशाजनक" करार दिया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ व्यापक जनआंदोलन की शुरुआत की। कांग्रेस और अन्य राजनीतिक संगठनों ने इस अधिनियम को मात्र एक दिखावटी सुधार बताया, जो भारतीयों को वास्तविक अधिकार देने के बजाय ब्रिटिश नियंत्रण को बनाए रखने का एक साधन था।

इस अधिनियम के कारण भारतीय राजनीति में ब्रिटिश सरकार के प्रति अविश्वास और विरोध की भावना और अधिक प्रबल हो गई। असंतोष के चलते राष्ट्रीय आंदोलन तेज हुआ, जिससे ब्रिटिश सरकार को आगे सुधार करने के लिए बाध्य होना पड़ा। अंततः, 1935 में भारत शासन अधिनियम, 1935 लागू किया गया, जिसमें प्रांतीय स्वायत्तता की व्यवस्था की गई और केंद्र में एक संघीय सरकार की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया। हालांकि, यह भी पूर्ण स्वराज की मांग को पूरा नहीं कर सका, जिससे स्वतंत्रता संग्राम और अधिक सशक्त हुआ और 1947 में भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई।

निष्कर्ष (Conclusion):

भारत शासन अधिनियम, 1919, भारतीय प्रशासन में सुधार लाने और स्वशासन की ओर बढ़ने का एक महत्वपूर्ण प्रयास था। इस अधिनियम के माध्यम से द्वैध शासन (Dyarchy) की व्यवस्था लागू की गई, जिसके तहत प्रांतीय शासन को दो भागों में विभाजित किया गया—स्थानांतरित और आरक्षित विषय। यह भारतीयों को प्रशासन में अधिक भागीदारी देने का पहला औपचारिक प्रयास था।

हालांकि, यह अधिनियम भारतीय जनता की अपेक्षाओं को पूरी तरह पूरा करने में असफल रहा। भारतीय नेताओं को दिए गए अधिकार सीमित थे, और महत्वपूर्ण विषयों पर अब भी ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण बना रहा। मंत्रियों को जिन क्षेत्रों की जिम्मेदारी सौंपी गई, उनके लिए आवश्यक वित्तीय एवं प्रशासनिक स्वतंत्रता नहीं दी गई, जिससे वे प्रभावी ढंग से कार्य नहीं कर सके। इसके अलावा, ब्रिटिश गवर्नर को व्यापक अधिकार दिए गए, जिससे भारतीय नेतृत्व की भूमिका नाममात्र की रह गई।

इन कमियों के कारण भारतीयों में असंतोष बढ़ा और राष्ट्रीय आंदोलन को और अधिक गति मिली। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और अन्य राजनीतिक संगठनों ने इस अधिनियम की आलोचना करते हुए इसे अधूरा सुधार बताया और पूर्ण स्वराज्य की मांग को अधिक मजबूती से उठाया। इस अधिनियम की सीमाओं और ब्रिटिश सरकार की हठधर्मिता ने स्वतंत्रता संग्राम को और अधिक तीव्र कर दिया, जिससे आगे चलकर 1935 के भारत शासन अधिनियम और अंततः 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त हुआ।

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