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UGC NET - Dharamshastra: Indian political thoughts धर्मशास्त्र: भारतीय राजनीतिक विचार

परिचय -

भारतीय राजनीतिक चिंतन की जड़ों को समझने के लिए हमें धर्मशास्त्रों का अध्ययन करना आवश्यक है, क्योंकि यही वह आधारशिला है, जिस पर भारत की प्राचीन शासन प्रणाली और सामाजिक व्यवस्था टिकी हुई थी। धर्मशास्त्र केवल धार्मिक अनुष्ठानों और आस्थाओं तक सीमित नहीं थे, बल्कि ये समाज में नैतिकता, विधि, प्रशासन और शासन संचालन के नियमों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करते थे। इन ग्रंथों में राज्य की संरचना, शासक के कर्तव्य, दंडनीति, न्याय प्रणाली और सामाजिक संतुलन बनाए रखने के लिए निर्धारित नीतियों का विस्तार से उल्लेख किया गया है।प्राचीन भारत में धर्म और राजनीति को अलग-अलग नहीं माना जाता था, बल्कि इन्हें एक-दूसरे का पूरक समझा जाता था। धर्मशास्त्रों में यह स्पष्ट किया गया कि शासक का मुख्य कार्य प्रजा का कल्याण और न्याय सुनिश्चित करना है। शासन को नैतिकता और कर्तव्यपरायणता के सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए, जिससे समाज में शांति और स्थिरता बनी रहे। इसके अलावा, इन ग्रंथों में प्रशासनिक कार्यों, कर-व्यवस्था, युद्ध नीति, दंड विधान और न्यायिक प्रक्रियाओं को भी विस्तृत रूप से समझाया गया है, जिससे स्पष्ट होता है कि धर्मशास्त्र केवल धार्मिक अनुष्ठानों की संहिता नहीं, बल्कि शासन संचालन के लिए एक मार्गदर्शिका भी थे। इस प्रकार, भारतीय राजनीतिक विचारधारा को सही रूप से समझने के लिए धर्मशास्त्रों का अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इन्हीं के आधार पर प्राचीन भारतीय राज्यव्यवस्था का निर्माण हुआ था। वर्तमान समय में, भले ही शासन प्रणाली में व्यापक परिवर्तन हुए हों, लेकिन नैतिकता, न्याय और कर्तव्य की जो अवधारणाएँ धर्मशास्त्रों में प्रस्तुत की गई हैं, वे आज भी प्रशासन और राजनीतिक दर्शन के लिए प्रासंगिक बनी हुई हैं।

धर्मशास्त्र: अर्थ एवं परिभाषा -

धर्मशास्त्र दो संस्कृत शब्दों—‘धर्म’ और ‘शास्त्र’—से मिलकर बना है, जिनका व्यापक सामाजिक, नैतिक और विधिक संदर्भों में विश्लेषण किया जाता है।

धर्म केवल धार्मिक कर्मकांड तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक अवधारणा है, जिसमें नैतिकता, सामाजिक अनुशासन, विधि और आध्यात्मिक जीवनशैली के नियम शामिल होते हैं। यह व्यक्ति और समाज के कर्तव्यों, अधिकारों, आचार-विचार तथा न्याय की अवधारणा को निर्धारित करता है।

शास्त्र का अर्थ है ‘विद्या' ‘ग्रहण करने योग्य ज्ञान’ या ‘नियमों और सिद्धांतों का संकलन’। इसे मार्गदर्शक ग्रंथ के रूप में देखा जाता है, जो किसी विषय विशेष पर विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत करता है।

इस प्रकार, धर्मशास्त्र उन ग्रंथों का संकलन है जो समाज, राज्य और व्यक्ति के लिए कर्तव्य, आचार संहिता, विधि-विधान और नैतिकता के नियमों को परिभाषित करते हैं। ये केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं हैं, बल्कि इनमें प्रशासन, न्यायिक प्रक्रिया, दंड प्रणाली, सामाजिक संगठन और राजनीतिक संरचना से संबंधित विस्तृत सिद्धांत दिए गए हैं। प्राचीन भारतीय परंपरा में धर्मशास्त्रों का उद्देश्य एक ऐसी सुव्यवस्थित व्यवस्था स्थापित करना था, जिससे समाज में अनुशासन, न्याय और संतुलन बना रहे।

धर्मशास्त्रों का प्रभाव केवल प्राचीन काल तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इनकी कई अवधारणाएँ आधुनिक विधि, शासन प्रणाली और नैतिक आचार संहिता के विकास में भी देखी जा सकती हैं। इनमें वर्णित नीतियाँ और नियम तत्कालीन समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप बनाए गए थे, लेकिन उनके कुछ मूलभूत सिद्धांत जैसे सत्य, अहिंसा, न्याय, दंडनीति और सामाजिक उत्तरदायित्व, आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं।

प्रमुख धर्मशास्त्र एवं उनके राजनीतिक विचार -

भारतीय राजनीतिक विचारधारा के विकास को समझने के लिए धर्मशास्त्रों का अध्ययन आवश्यक है, क्योंकि ये न केवल धार्मिक आस्थाओं को प्रतिबिंबित करते हैं, बल्कि समाज और शासन के नियमों का भी निर्धारण करते हैं। धर्मशास्त्रों ने राज्य, राजा, न्याय प्रणाली, दंडनीति, कर-व्यवस्था और सामाजिक संरचना को सुव्यवस्थित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

प्रमुख धर्मशास्त्रों में मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, पराशर स्मृति और नारद स्मृति का विशेष स्थान है। ये ग्रंथ प्राचीन भारतीय समाज और शासन व्यवस्था की नींव रखने वाले माने जाते हैं। इनमें न केवल धार्मिक और नैतिक आचार संहिता का उल्लेख मिलता है, बल्कि प्रशासनिक दक्षता, विधि-व्यवस्था, राजधर्म और सामाजिक दायित्वों की भी स्पष्ट व्याख्या की गई है।

मनुस्मृति को सबसे प्राचीन और प्रभावशाली विधि-ग्रंथ माना जाता है, जिसमें राज्य और समाज के संगठन, राजा के कर्तव्यों, न्याय व्यवस्था और दंडनीति का विस्तृत विवरण दिया गया है।

याज्ञवल्क्य स्मृति में विधि और शासन से संबंधित नियमों को और अधिक परिष्कृत रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें न्यायिक प्रक्रिया, दंड संहिता और प्रशासनिक व्यवस्थाओं को अधिक व्यवस्थित रूप दिया गया।

पराशर स्मृति में समाज की बदलती परिस्थितियों के अनुरूप शासन और सामाजिक नियमों को परिभाषित किया गया है। यह ग्रंथ विशेष रूप से कलियुग के संदर्भ में शासन और समाज की आवश्यकताओं पर ध्यान केंद्रित करता है।

नारद स्मृति न्यायिक प्रक्रिया और विधि-निर्धारण से संबंधित है, जिसमें अपराधों की श्रेणियाँ, दंड विधान और न्यायाधीशों की भूमिकाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है।

इन धर्मशास्त्रों के माध्यम से भारतीय राजनीतिक विचारधारा की एक स्पष्ट तस्वीर उभरती है, जिसमें शासन, समाज और विधि के बीच संतुलन बनाए रखने पर विशेष बल दिया गया है। ये ग्रंथ यह दर्शाते हैं कि प्राचीन भारत में राज्य केवल शक्ति और अधिकार का केंद्र नहीं था, बल्कि उसका मुख्य उद्देश्य धर्म और न्याय के अनुसार समाज का संचालन करना था।

1. मनुस्मृति (Manusmriti) – प्राचीन भारतीय राजनीति की आधारशिला

मनुस्मृति प्राचीन भारत का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसे राजनीति, विधि और सामाजिक व्यवस्था के मूल सिद्धांतों का आधार माना जाता है। इसमें राज्य की संरचना, शासक के कर्तव्य, न्यायिक प्रणाली और समाज की संरचना पर विस्तृत विचार प्रस्तुत किए गए हैं। मनुस्मृति के अनुसार, राज्य का मुख्य उद्देश्य समाज में धर्म की स्थापना और रक्षा करना है, ताकि न्याय, अनुशासन और सामाजिक समरसता बनी रहे।

राज्य के संचालन हेतु सप्तांग सिद्धांत

मनुस्मृति में शासन-व्यवस्था को सफलतापूर्वक चलाने के लिए सप्तांग सिद्धांत (राजा, मंत्री, दुर्ग, जनपद, कोष, दंड, मित्र) का उल्लेख किया गया है।

1. राजा – शासन का केंद्र, जो प्रजा के कल्याण और न्याय की रक्षा के लिए उत्तरदायी होता है।

2. मंत्री – शासक के सहायक, जो प्रशासन और नीतियों को सुचारू रूप से संचालित करने में मदद करते हैं।

3. दुर्ग – सुरक्षा और युद्ध के समय शरण देने के लिए किलेबंदी की व्यवस्था।

4. जनपद – राज्य के अंतर्गत आने वाला क्षेत्र और उसकी प्रजा।

5. कोष – राजकोष, जो कर-व्यवस्था और आर्थिक संसाधनों के माध्यम से भरा जाता है।

6. दंड – कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक दंडनीति।

7. मित्र – अन्य राज्यों और सहयोगियों के साथ कूटनीतिक संबंध।

राजा का दायित्व और धर्मपरायणता -

मनुस्मृति के अनुसार, राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना गया, लेकिन उसे भी धर्म और नैतिकता के अधीन रहकर शासन करना आवश्यक था। शासक को न्यायप्रिय, सत्यनिष्ठ और प्रजा के हितों को सर्वोपरि रखने वाला होना चाहिए। राजा को अहंकार से बचने, विद्वानों और नीति-निर्माताओं की सलाह मानने, और राज्य के प्रत्येक नागरिक के कल्याण के लिए कार्य करने की प्रेरणा दी गई है।

दंडनीति और राज्य की स्थिरता

राज्य की स्थिरता बनाए रखने के लिए दंडनीति (शासन में कानून और दंड का महत्व) को आवश्यक माना गया है। मनुस्मृति में कहा गया है कि "दंड के बिना राज्य अराजकता का शिकार हो जाता है", अर्थात यदि अपराधों पर नियंत्रण न किया जाए तो समाज में असंतोष और अराजकता फैल सकती है। इस सिद्धांत के तहत, अपराधों को रोकने और न्याय प्रदान करने के लिए उपयुक्त दंड निर्धारित किए गए थे।

वर्ण व्यवस्था और सामाजिक संरचना -

मनुस्मृति में समाज को चार वर्णों—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र—में विभाजित किया गया, जहाँ प्रत्येक वर्ग के लिए विशेष कर्तव्य और उत्तरदायित्व निर्धारित किए गए। हालांकि, यह व्यवस्था कालांतर में कठोर हो गई, जिससे सामाजिक असमानता बढ़ी। फिर भी, मनुस्मृति का मूल उद्देश्य समाज को संगठित और अनुशासित रखना था, ताकि सभी वर्ग अपने-अपने उत्तरदायित्वों का पालन करके समाज के समग्र कल्याण में योगदान दे सकें।

मनुस्मृति न केवल एक धार्मिक ग्रंथ था, बल्कि यह राजनीति, विधि और समाजशास्त्र का भी एक प्रमुख ग्रंथ था। इसमें दी गई प्रशासनिक नीतियाँ और राज्य के संचालन से संबंधित विचार प्राचीन भारतीय राजनीतिक दर्शन की नींव रखते हैं। यद्यपि आधुनिक काल में इसकी कई अवधारणाओं की पुनर्व्याख्या की गई है, फिर भी इसकी मूल बातें—राजा का धर्मानुसार शासन, न्याय व्यवस्था, दंडनीति और प्रशासनिक संरचना—आज भी राजनीति और विधि-व्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण संदर्भ प्रदान करती हैं।

2. याज्ञवल्क्य स्मृति: न्याय और शासन की दृष्टि से

याज्ञवल्क्य स्मृति प्राचीन भारतीय विधि संहिताओं में एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसे मनुस्मृति की तुलना में अधिक व्यावहारिक और सुव्यवस्थित माना जाता है। यह ग्रंथ न केवल सामाजिक और धार्मिक नियमों को स्पष्ट करता है, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया और प्रशासनिक व्यवस्था को भी विशद रूप से प्रस्तुत करता है।

इस ग्रंथ में अपराध, दंड और न्यायिक प्रक्रियाओं से संबंधित अनेक नियमों का उल्लेख मिलता है, जो प्राचीन भारत के विधिक ढांचे को समझने में सहायक होते हैं। इसमें बताया गया है कि न्यायिक व्यवस्था का आधार सत्य, धर्म और निष्पक्षता होना चाहिए। राजा को न्यायप्रिय, सत्यनिष्ठ और धर्म के सिद्धांतों का पालन करने वाला होना आवश्यक बताया गया है, ताकि वह अपने राज्य में विधि व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित कर सके।

याज्ञवल्क्य स्मृति में न्याय और शासन के संदर्भ में अर्थशास्त्र और न्यायशास्त्र का समावेश किया गया है, जिससे राज्य प्रशासन को अधिक संगठित एवं प्रभावी बनाया जा सके। इस ग्रंथ में स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि शासक का प्रमुख कर्तव्य न्याय को सुनिश्चित करना है, ताकि समाज में शांति और समृद्धि बनी रहे।

इसके अतिरिक्त, इसमें अपराधों की श्रेणियां और उनके लिए दंड के प्रावधानों का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। यह सुनिश्चित किया गया है कि दंड न्यायसंगत और अपराध की गंभीरता के अनुरूप हो, जिससे समाज में अनुशासन और न्याय की भावना बनी रहे।

इस प्रकार, याज्ञवल्क्य स्मृति न केवल एक विधि ग्रंथ है, बल्कि यह प्राचीन भारत की सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक संरचना को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत भी है।

पराशर स्मृति: सामाजिक और राजनीतिक नीतियां -

पराशर स्मृति एक महत्वपूर्ण विधि संहिता है, जो विशेष रूप से कलियुग के संदर्भ में सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था को परिभाषित करती है। यह ग्रंथ उन नीतियों और नियमों को स्पष्ट करता है जो समाज को सुचारू रूप से संचालित करने में सहायक होते हैं। इसमें राजनीतिक व्यवस्था, शासन के सिद्धांतों और सामाजिक संरचना से संबंधित गहन चर्चा की गई है।

पराशर स्मृति में कृषि, व्यापार, और कर-व्यवस्था को विशेष महत्व दिया गया है। यह ग्रंथ इस बात पर जोर देता है कि राज्य की आर्थिक मजबूती के लिए कृषि और व्यापार को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। साथ ही, कर-संग्रह की एक न्यायसंगत प्रणाली विकसित की जानी चाहिए, जिससे प्रजा पर अनावश्यक भार न पड़े। राजा को कर लगाने का अधिकार दिया गया है, लेकिन उसे समाज के कल्याण और न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए। यह स्पष्ट किया गया है कि शासक का कर्तव्य केवल कर-संग्रह करना नहीं है, बल्कि राजस्व का उपयोग जनहित में करना आवश्यक है।

पराशर स्मृति सामाजिक नैतिकता और दायित्वों पर भी बल देती है। इसमें वर्णव्यवस्था, स्त्री-अधिकार, धार्मिक आचार-व्यवहार, तथा दान और पुण्य के महत्व को भी रेखांकित किया गया है। इसके अनुसार, समाज की स्थिरता के लिए नैतिक आचरण और न्यायसंगत नीतियों का पालन आवश्यक है। इस ग्रंथ में राज्य प्रशासन के संचालन हेतु राजाओं और अधिकारियों के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत प्रस्तुत किए गए हैं, जिससे एक संगठित और संतुलित शासन प्रणाली स्थापित की जा सके।

नारद स्मृति: न्यायिक व्यवस्था और विधिक सिद्धांत -

नारद स्मृति भारतीय न्याय प्रणाली का एक प्रमुख ग्रंथ है, जो विशेष रूप से कानूनी प्रक्रियाओं, विवाद समाधान और न्यायिक सिद्धांतों पर केंद्रित है। यह ग्रंथ विधिक मामलों को सुव्यवस्थित करने और न्यायिक निर्णयों में निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश प्रदान करता है।

इस ग्रंथ में व्यवहार नियमों (civil laws) और दंड विधान (criminal laws) का गहराई से विश्लेषण किया गया है। इसमें नागरिक अधिकारों, संपत्ति विवादों, व्यापारिक समझौतों, ऋण संबंधी प्रावधानों, दासता, स्त्री-अधिकारों, और उत्तराधिकार कानूनों पर व्यापक चर्चा की गई है। नारद स्मृति यह स्पष्ट करती है कि न्याय केवल कानूनी दंड तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि इसमें नैतिकता और सामाजिक संतुलन का भी ध्यान रखा जाना चाहिए।

इस ग्रंथ में न्यायाधीशों और विधि-विशेषज्ञों की भूमिका पर भी प्रकाश डाला गया है। इसमें बताया गया है कि न्यायाधीश को निष्पक्ष, सत्यनिष्ठ और धर्मपरायण होना चाहिए। विवादों का निपटारा निष्पक्षता और उचित साक्ष्यों के आधार पर किया जाना चाहिए, ताकि समाज में न्याय की भावना बनी रहे।

इसके अतिरिक्त, नारद स्मृति कानूनी प्रक्रियाओं को सुगठित करने पर बल देती है। इसमें विवादों को सुलझाने के लिए विभिन्न विधियों का उल्लेख किया गया है, जैसे मध्यस्थता (arbitration) और न्यायालयीन निर्णय। साथ ही, इसमें यह भी स्पष्ट किया गया है कि अपराधों के लिए दंड का निर्धारण अपराध की गंभीरता के अनुसार किया जाना चाहिए, जिससे कानून का प्रभावी क्रियान्वयन सुनिश्चित हो सके।

इस प्रकार, नारद स्मृति न केवल प्राचीन भारतीय न्याय प्रणाली का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, बल्कि यह आधुनिक विधिक अध्ययन और न्यायिक प्रक्रिया को भी समझने में सहायक है।

राज्य और राजा की अवधारणा: धर्मशास्त्रों के परिप्रेक्ष्य में -

प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रों में राज्य की परिकल्पना दंडनीति के सिद्धांत पर आधारित थी। इसके अनुसार, यदि समाज में शक्ति और विधि का समुचित पालन नहीं किया जाए तो अराजकता फैल सकती है। यही कारण है कि राज्य व्यवस्था को सुव्यवस्थित रखने और सामाजिक संतुलन बनाए रखने के लिए एक सशक्त शासन प्रणाली की आवश्यकता मानी गई।

राजा को राज्य का अभिभावक और धर्म का संरक्षक माना गया है। उसके कर्तव्यों में केवल प्रशासनिक कार्य नहीं आते, बल्कि समाज में नैतिकता, धार्मिकता और न्याय की स्थापना भी उसका प्रमुख उत्तरदायित्व होता है। प्राचीन ग्रंथों में राजा के लिए कुछ आवश्यक गुणों का उल्लेख किया गया है, जो उसे एक आदर्श शासक बनाते हैं। ये गुण हैं—धैर्य, बुद्धि, पराक्रम, साहस, परोपकार, धार्मिकता और सत्यता। इन गुणों के माध्यम से राजा समाज का कल्याण कर सकता है और एक सुदृढ़ एवं न्यायसंगत शासन स्थापित कर सकता है।

राज्य की रक्षा, कानून का पालन, और न्याय व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करना राजा का मुख्य कर्तव्य माना गया है। यह भी कहा गया है कि राजा को निष्पक्ष और न्यायप्रिय होना चाहिए, ताकि वह अपनी प्रजा के कल्याण हेतु उचित निर्णय ले सके। युद्ध और प्रशासन के क्षेत्र में भी राजा की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण मानी गई है।

शासन को प्रभावी और सुव्यवस्थित बनाने के लिए मंत्रिपरिषद का एक महत्वपूर्ण स्थान था। यह परिषद राजा को नीतिगत सलाह देती थी और राज्य के संचालन में उसकी सहायता करती थी। इसमें अनुभवी और विद्वान मंत्री शामिल होते थे, जो प्रशासन, न्याय, अर्थनीति, और सैन्य मामलों में निपुण होते थे। मंत्रिपरिषद का कार्य केवल राजा को सलाह देना ही नहीं था, बल्कि आवश्यकतानुसार नीतियों का निर्माण और क्रियान्वयन भी सुनिश्चित करना था।

इस प्रकार, प्राचीन भारतीय राज्य व्यवस्था में राजा को न केवल एक शासक बल्कि समाज के मार्गदर्शक के रूप में देखा गया। उसकी भूमिका केवल शासन तक सीमित नहीं थी, बल्कि वह समाज की नैतिकता और धार्मिकता का भी संरक्षक था।

राजनीतिक दर्शन में धर्मशास्त्रों की प्रासंगिकता -

प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्र केवल धार्मिक और सामाजिक नियमों तक सीमित नहीं थे, बल्कि उन्होंने राजनीतिक दर्शन को भी गहराई से प्रभावित किया। आधुनिक संवैधानिक व्यवस्था में भी अनेक ऐसे तत्व देखने को मिलते हैं, जिनकी जड़ें इन प्राचीन ग्रंथों में पाई जाती हैं। शासन, विधि, न्याय, नैतिकता, और सामाजिक संरचना के संदर्भ में धर्मशास्त्रों द्वारा प्रतिपादित विचार आज भी विचारणीय हैं।

1. भारतीय न्याय प्रणाली और धर्मशास्त्रों की प्रेरणा -

आधुनिक न्यायिक व्यवस्था में न्याय एवं विधि के सिद्धांतों की जो आधारशिला रखी गई है, उसमें प्राचीन धर्मशास्त्रों का अप्रत्यक्ष प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति और नारद स्मृति जैसे ग्रंथों में न्यायिक प्रक्रियाओं, दंड संहिता, संपत्ति अधिकार, और विवाद समाधान की जो संहिताएं दी गई थीं, उनके कई तत्व आज की न्याय प्रणाली में भी किसी न किसी रूप में परिलक्षित होते हैं। जैसे न्यायिक निष्पक्षता, साक्ष्य पर आधारित निर्णय, दंड की अनुकूलता (proportionality of punishment) आदि सिद्धांत प्राचीन न्यायिक ग्रंथों में भी वर्णित थे और आज भी संवैधानिक कानून का अभिन्न हिस्सा हैं।

2. राजनीतिक नैतिकता और शासकीय आचरण -

प्राचीन धर्मशास्त्रों में शासकों के लिए कुछ नैतिक सिद्धांत निर्धारित किए गए थे, जो राजनीति और प्रशासन की शुचिता बनाए रखने के लिए आवश्यक माने जाते थे। इन ग्रंथों में राजा को धर्मपरायण, सत्यनिष्ठ, न्यायप्रिय और लोककल्याणकारी बताया गया है। आज के लोकतांत्रिक शासन में भी गुड गवर्नेंस (सुशासन) की अवधारणा इन्हीं मूल्यों पर आधारित है।

वर्तमान समय में, जब राजनीति में नैतिकता का क्षरण देखा जा रहा है, तब धर्मशास्त्रों से प्राप्त नैतिक आदर्शों को पुनः संदर्भित किया जाना आवश्यक है। लोकहितकारी नीतियों, पारदर्शिता, उत्तरदायित्व, और न्यायसंगत शासन की जो अवधारणाएं धर्मशास्त्रों में दी गई हैं, वे आधुनिक शासन प्रणाली को अधिक प्रभावी और उत्तरदायी बना सकती हैं।

3. सामाजिक समानता और लोकतांत्रिक सुधार की संभावना

हालांकि धर्मशास्त्रों में वर्ण व्यवस्था और सामाजिक वर्गीकरण को मान्यता दी गई थी, लेकिन इनके मूलभूत उद्देश्यों को नए संदर्भों में व्याख्यायित करके लोकतांत्रिक मूल्यों को और अधिक सुदृढ़ किया जा सकता है।

आज के समाज में समानता और सामाजिक न्याय को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है। प्राचीन धर्मशास्त्रों में वर्णित राजधर्म, जिसमें राजा को निष्पक्ष और न्यायसंगत बताया गया था, यह विचार आज भी समावेशी और न्यायोचित प्रशासन के लिए प्रासंगिक है। यद्यपि धर्मशास्त्रों में सामाजिक भेदभाव की कुछ नीतियों की आलोचना की जाती है, लेकिन यदि इन्हें आधुनिक दृष्टिकोण से देखा जाए, तो इन ग्रंथों में निहित लोककल्याण, सहअस्तित्व, और दायित्वबोध के तत्व लोकतांत्रिक संस्थाओं को अधिक प्रभावी बनाने में सहायक हो सकते हैं।

धर्मशास्त्रों की राजनीतिक और न्यायिक विचारधारा आज भी पूरी तरह अप्रासंगिक नहीं हुई है। बल्कि, इन ग्रंथों में निहित प्रशासनिक और नैतिक सिद्धांतों को आधुनिक संदर्भों में पुनः व्याख्यायित कर, एक अधिक न्यायसंगत, नैतिक और पारदर्शी शासन व्यवस्था को विकसित किया जा सकता है। अतः, यह आवश्यक है कि इन शास्त्रों के सारगर्भित विचारों को संकीर्ण दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि एक व्यापक और प्रगतिशील दृष्टि से देखा जाए, ताकि वे समकालीन राजनीति और समाज में सकारात्मक योगदान दे सकें।

निष्कर्ष

धर्मशास्त्र केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं हैं, बल्कि ये भारतीय राजनीतिक विचारों की आधारशिला भी हैं। इनमें समाज, राज्य और न्याय की व्यवस्था को सुव्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया गया है। यद्यपि आधुनिक राजनीतिक प्रणाली लोकतंत्र और मानवाधिकारों पर आधारित है, लेकिन धर्मशास्त्रों के कुछ मूलभूत विचार आज भी राजनीतिक और सामाजिक जीवन में प्रासंगिक बने हुए हैं। इस प्रकार, भारतीय राजनीतिक परंपरा में धर्मशास्त्रों की भूमिका को समझे बिना न तो भारत के प्राचीन राजनीतिक विचारों का सम्यक अध्ययन किया जा सकता है और न ही उसकी आधुनिक प्रासंगिकता को सही ढंग से परिभाषित किया जा सकता है।

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