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Nature of the Indian Political System भारतीय राजनीतिक प्रणाली की प्रकृति

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जिसकी राजनीतिक संरचना विविधतापूर्ण और ऐतिहासिक अनुभवों, सांस्कृतिक बहुलता तथा एक सुदृढ़ संवैधानिक ढांचे के माध्यम से विकसित हुई है। इसका शासन मॉडल संघीयता और संसदीय लोकतंत्र का अनूठा मिश्रण है, जो केंद्र और राज्यों के बीच संतुलन बनाए रखता है। भारतीय राजनीतिक प्रणाली विभिन्न वैश्विक परंपराओं, जैसे ब्रिटिश संसदीय प्रणाली और अमेरिकी संघीय व्यवस्था से प्रेरणा लेती है, फिर भी यह अपनी मौलिक विशेषताओं और लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखती है। वर्षों से, इस प्रणाली ने राजनीतिक स्थिरता को बढ़ावा देने, मौलिक अधिकारों की रक्षा करने और संविधान में निहित न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के सिद्धांतों को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया आम नागरिकों की सक्रिय भागीदारी पर आधारित है, जहाँ स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। चुनाव आयोग की स्वतंत्रता और निष्पक्षता लोकतंत्र को सशक्त बनाने में सहायक सिद्ध होती है। इसके अतिरिक्त, भारतीय लोकतंत्र की विशेषता यह भी है कि यह विविधता में एकता की भावना को बनाए रखते हुए विभिन्न सामाजिक, भाषाई और धार्मिक समूहों को समान अवसर प्रदान करता है। संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार नागरिकों को अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धर्म की स्वतंत्रता और कानूनी संरक्षण प्रदान करते हैं, जिससे लोकतांत्रिक मूल्यों को और अधिक सुदृढ़ता मिलती है। अपनी जटिलताओं के बावजूद, भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था लगातार विकसित हो रही है, नए सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रही है तथा प्रतिनिधि शासन और जनभागीदारी की अपनी प्रतिबद्धता को सुदृढ़ कर रही है। तकनीकी प्रगति और डिजिटल क्रांति ने भी लोकतंत्र की पारदर्शिता और भागीदारी को और अधिक सशक्त बनाया है, जिससे नागरिकों को सुशासन में अधिक योगदान देने का अवसर प्राप्त हो रहा है।

लोकतांत्रिक और संसदीय प्रणाली (Democratic and Parliamentary System):

भारत एक संसदीय लोकतंत्र को अपनाता है, जहाँ सरकार का गठन जनता द्वारा नियमित अंतराल पर कराए जाने वाले चुनावों के माध्यम से किया जाता है। इस प्रणाली में राष्ट्रपति राष्ट्र का संवैधानिक प्रमुख होता है, जबकि प्रधानमंत्री सरकार का प्रमुख होने के नाते कार्यकारी शक्तियों का प्रयोग करता है। सरकार संसद के प्रति उत्तरदायी होती है, विशेष रूप से लोकसभा (जनप्रतिनिधियों का सदन) के प्रति, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि शासन व्यवस्था उत्तरदायी और जनप्रतिनिधित्व पर आधारित हो। भारतीय लोकतंत्र में संसद की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि यह नीतिगत निर्णय लेने, कानून बनाने और सरकार की जवाबदेही तय करने का कार्य करती है। संसद का द्विसदनीय ढांचा, जिसमें राज्यसभा (उच्च सदन) और लोकसभा (निचला सदन) शामिल हैं, शासन प्रणाली को संतुलित और प्रभावी बनाता है। लोकसभा के सदस्य प्रत्यक्ष चुनावों के माध्यम से चुने जाते हैं, जबकि राज्यसभा के सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं, जिससे केंद्र और राज्यों के बीच एक समन्वयपूर्ण संबंध स्थापित होता है। इसके अतिरिक्त, प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद के सहयोग से प्रशासनिक कार्यों का संचालन करता है और विभिन्न मंत्रालयों तथा विभागों के माध्यम से नीतियों को लागू करता है। मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से संसद के प्रति उत्तरदायी होती है, जिससे सरकार की पारदर्शिता और उत्तरदायित्व सुनिश्चित होता है। राष्ट्रपति, जो संवैधानिक प्रमुख होता है, कार्यपालिका का एक अभिन्न हिस्सा होते हुए भी अधिकांशतः औपचारिक और सांविधानिक भूमिकाओं का निर्वहन करता है। भारतीय संसदीय प्रणाली इस बात पर बल देती है कि सरकार जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप कार्य करे और उनकी समस्याओं के समाधान के लिए जिम्मेदार बनी रहे। यह प्रणाली लोकतांत्रिक सिद्धांतों, मौलिक अधिकारों और संविधान में उल्लिखित कर्तव्यों के आधार पर संचालित होती है, जिससे सुशासन, पारदर्शिता और नागरिकों की भागीदारी को बढ़ावा मिलता है।

एकात्मक झुकाव के साथ संघीय संरचना (Federal Structure with Unitary Bias):

भारतीय संविधान एक संघीय संरचना की स्थापना करता है, जिसमें शक्तियों का विभाजन केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच किया गया है। हालांकि, अमेरिका जैसे कठोर संघीय प्रणाली वाले देशों की तुलना में, भारत की व्यवस्था में एकात्मक प्रवृत्ति अधिक है, जिसका अर्थ है कि केंद्र सरकार के पास अधिक शक्तियाँ होती हैं। यह प्रवृत्ति निम्नलिखित प्रावधानों में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है:

1. पूरे देश के लिए एक समान संविधान (A single Constitution for the entire country):

भारत में पूरे देश के लिए एक ही संविधान लागू है, जो सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों पर समान रूप से लागू होता है। इसके विपरीत, अमेरिका जैसे संघीय देशों में प्रत्येक राज्य का अपना अलग संविधान होता है। भारतीय संविधान की यह एकात्मक विशेषता देश की अखंडता और एकरूपता सुनिश्चित करने में मदद करती है, जिससे नागरिकों को समान अधिकार और अवसर प्राप्त होते हैं, चाहे वे किसी भी राज्य में रहते हों।

2. आपातकाल की स्थिति में केंद्र सरकार की विस्तृत शक्तियाँ (The ability of the central government to take over state functions during an emergency):

संविधान के तहत केंद्र सरकार को आपातकालीन परिस्थितियों में राज्य सरकारों के कार्यों को अपने हाथ में लेने की शक्ति प्राप्त है। अनुच्छेद 356 के तहत, यदि किसी राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल हो जाता है, तो राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है, जिसमें राज्य की कार्यकारी शक्तियाँ सीधे केंद्र सरकार को हस्तांतरित हो जाती हैं। यह प्रावधान देश की एकता और अखंडता बनाए रखने के लिए आवश्यक है, लेकिन इसे कभी-कभी केंद्र सरकार द्वारा राजनीतिक लाभ के लिए उपयोग किए जाने को लेकर आलोचना भी झेलनी पड़ी है।

3. राज्य प्रशासन में राज्यपाल की भूमिका (The Governor (appointed by the President) playing a role in state administration):

भारतीय संविधान के अनुसार, प्रत्येक राज्य में एक राज्यपाल नियुक्त किया जाता है, जिसे राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किया जाता है। यद्यपि राज्यपाल का पद संवैधानिक रूप से एक औपचारिक पद माना जाता है, लेकिन व्यवहारिक रूप से यह राज्य प्रशासन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। राज्यपाल के पास किसी भी विधेयक को राष्ट्रपति की सहमति के लिए भेजने, मुख्यमंत्री को नियुक्त करने और विशेष परिस्थितियों में विधानसभा को भंग करने जैसी शक्तियाँ होती हैं। यह प्रावधान केंद्र और राज्यों के बीच समन्वय बनाए रखने में सहायक होता है, लेकिन कुछ मामलों में इसे केंद्र सरकार के प्रभाव का माध्यम भी माना जाता है।

संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य (Sovereign, Socialist, Secular, and Democratic Republic):

भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारत को इस रूप में घोषित करती है:

संप्रभु (Sovereign):

भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारत को एक संप्रभु राष्ट्र घोषित करती है, जिसका अर्थ है कि देश अपने आंतरिक और बाहरी मामलों में पूरी तरह स्वतंत्र है और किसी भी विदेशी शक्ति के नियंत्रण में नहीं है। भारत की संप्रभुता न केवल राजनीतिक स्वतंत्रता को दर्शाती है, बल्कि यह कानून बनाने, नीतियाँ तय करने, और राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने की पूर्ण स्वतंत्रता भी प्रदान करती है। यह स्वतंत्रता भारत को वैश्विक मंच पर अपनी नीतियों को स्वतंत्र रूप से तय करने और अंतरराष्ट्रीय मामलों में अपनी संप्रभु स्थिति बनाए रखने का अधिकार देती है।

समाजवादी (Socialist):

भारत एक समाजवादी राष्ट्र होने के नाते सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देने के लिए प्रतिबद्ध है। संविधान का लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि समाज के प्रत्येक वर्ग को समान अवसर मिले और धन का उचित वितरण हो। यह समाजवाद निजी संपत्ति के पूर्ण उन्मूलन की बजाय, संसाधनों के न्यायसंगत वितरण और कल्याणकारी नीतियों के माध्यम से आर्थिक असमानता को कम करने पर केंद्रित है। सरकार विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों के माध्यम से शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा की सुविधाएँ प्रदान करके समाजवादी सिद्धांतों को लागू करती है।

धर्मनिरपेक्ष (Secular):

भारतीय संविधान भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित करता है, जिसका अर्थ है कि सरकार किसी भी धर्म को बढ़ावा नहीं देती और न ही किसी विशेष धर्म को राज्य का धर्म मानती है। सभी नागरिकों को अपने धर्म का पालन, प्रचार और अभ्यास करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त है। इसके साथ ही, राज्य धार्मिक मामलों में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करता और सभी धर्मों को समान सम्मान और संरक्षण प्रदान करता है। यह धर्मनिरपेक्षता भारत की सांस्कृतिक विविधता को बनाए रखने और धार्मिक सद्भाव को प्रोत्साहित करने में सहायक होती है।

लोकतांत्रिक गणराज्य (Democratic Republic):

भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, जहाँ शासन प्रणाली जनता द्वारा, जनता के लिए और जनता के माध्यम से संचालित होती है। इसका अर्थ है कि देश के नागरिकों को अपने प्रतिनिधियों को चुनने का अधिकार है, और सरकार जनता की इच्छाओं के अनुसार कार्य करने के लिए उत्तरदायी होती है। इसके अलावा, भारत में वंशानुगत राजशाही नहीं है, और सभी संवैधानिक पदों पर नियुक्तियाँ लोकतांत्रिक प्रक्रिया के माध्यम से होती हैं। इस प्रणाली के तहत, नागरिकों को स्वतंत्रता, समानता और न्याय सुनिश्चित किया जाता है, जिससे वे अपने अधिकारों और कर्तव्यों का पूरी तरह से पालन कर सकें।

शक्तियों का विभाजन (Separation of Powers):

भारतीय राजनीतिक व्यवस्था शक्तियों के विभाजन के सिद्धांत का पालन करती है, हालांकि यह पूरी तरह से कठोर रूप में नहीं अपनाया गया है। इस सिद्धांत के अनुसार, सरकार की शक्तियों को तीन प्रमुख शाखाओं—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—में बाँटा गया है। प्रत्येक अंग की अपनी स्वतंत्र भूमिका होती है, लेकिन वे एक-दूसरे पर नियंत्रण और संतुलन बनाए रखते हैं, जिससे लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में सहायता मिलती है।

1. विधायिका (Legislature):

विधायिका वह अंग है जो कानून बनाने का कार्य करती है। भारत में विधायिका को दो स्तरों में बाँटा गया है—केन्द्रीय और राज्य स्तर

केन्द्रीय स्तर पर: भारतीय संसद (लोकसभा और राज्यसभा) कानून निर्माण की सर्वोच्च संस्था है। संसद को संविधान के तहत कानून बनाने, नीतियाँ निर्धारित करने और सरकार की कार्यप्रणाली की निगरानी रखने की शक्ति प्राप्त होती है।

राज्य स्तर पर: प्रत्येक राज्य की अपनी विधान सभा (और कुछ राज्यों में विधान परिषद) होती है, जो राज्य के विषयों पर कानून बनाने और कार्यपालिका की जवाबदेही तय करने का कार्य करती है।

विधायिका के पास वित्तीय मामलों, नीतिगत निर्णयों और सरकारी कार्यों की समीक्षा करने का भी अधिकार होता है। इसके अलावा, यह जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए सरकार से जवाबदेही सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

2. कार्यपालिका (Executive):

कार्यपालिका का मुख्य कार्य विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों को लागू करना और प्रशासनिक कार्यों को सुचारू रूप से संचालित करना होता है। भारत में कार्यपालिका को भी दो स्तरों में विभाजित किया जा सकता है—केन्द्रीय और राज्य स्तर

केन्द्रीय कार्यपालिका: इसमें राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्रिपरिषद तथा विभिन्न सरकारी विभाग और प्रशासनिक संस्थाएँ शामिल होती हैं। राष्ट्रपति भारत के संवैधानिक प्रमुख होते हैं, जबकि वास्तविक कार्यकारी शक्ति प्रधानमंत्री और उनकी मंत्रिपरिषद के पास होती है। सरकार की नीतियों को लागू करना, प्रशासनिक निर्णय लेना, और देश की आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा सुनिश्चित करना इनके मुख्य कार्यों में शामिल होता है।

राज्य कार्यपालिका: प्रत्येक राज्य में राज्यपाल, मुख्यमंत्री और उनकी मंत्रिपरिषद कार्यपालिका का गठन करते हैं। राज्यपाल संवैधानिक प्रमुख होते हैं, जबकि मुख्यमंत्री प्रशासनिक कार्यों के संचालन की वास्तविक जिम्मेदारी निभाते हैं।

कार्यपालिका की भूमिका न केवल कानूनों को लागू करने तक सीमित होती है, बल्कि यह नीतिगत निर्णय लेने, योजनाओं को लागू करने, विदेश नीति को संचालित करने, रक्षा और आंतरिक सुरक्षा सुनिश्चित करने जैसे महत्वपूर्ण कार्यों में भी सक्रिय रूप से शामिल होती है।

3. न्यायपालिका (Judiciary):

न्यायपालिका सरकार की एक स्वतंत्र शाखा है, जिसका मुख्य कार्य संविधान की व्याख्या करना, कानूनों की वैधता सुनिश्चित करना और नागरिकों को न्याय प्रदान करना है। यह विधायिका और कार्यपालिका दोनों पर निगरानी रखती है ताकि वे संविधान के अनुरूप कार्य करें। 

भारत में न्यायपालिका का स्वरूप तीन स्तरों में विभाजित है—

सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court): यह देश की सबसे ऊँची अदालत है और इसके पास संविधान की व्याख्या करने तथा कानूनों की वैधता तय करने की शक्ति होती है। यह केंद्र और राज्यों के बीच विवादों को सुलझाने, मौलिक अधिकारों की रक्षा करने और अपील सुनने का कार्य करता है।

उच्च न्यायालय (High Courts): प्रत्येक राज्य (या कुछ मामलों में एक से अधिक राज्यों) के लिए उच्च न्यायालय होता है, जो राज्य स्तर के मामलों की सुनवाई करता है और निचली अदालतों के निर्णयों पर पुनर्विचार करता है।

अधीनस्थ न्यायालय (Subordinate Courts): ये जिला एवं सत्र न्यायालयों, सिविल और मजिस्ट्रेट अदालतों के रूप में कार्य करते हैं और स्थानीय स्तर पर नागरिकों को न्याय उपलब्ध कराते हैं।

भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए कई संवैधानिक प्रावधान किए गए हैं। न्यायपालिका को विधायिका और कार्यपालिका के अनुचित हस्तक्षेप से मुक्त रखा गया है, जिससे यह निष्पक्षता से निर्णय ले सके और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा कर सके।

नियंत्रण और संतुलन (Checks and Balances):

यद्यपि भारतीय शासन प्रणाली में शक्तियों का स्पष्ट विभाजन है, फिर भी तीनों शाखाओं के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए एक-दूसरे पर नियंत्रण की व्यवस्था की गई है।

विधायिका कानून बनाने के साथ-साथ कार्यपालिका के कार्यों की निगरानी रखती है और जरूरत पड़ने पर अविश्वास प्रस्ताव या राष्ट्रपति महाभियोग जैसी शक्तियों का प्रयोग कर सकती है।

कार्यपालिका विधायिका के निर्णयों को लागू करती है और संसद के प्रति उत्तरदायी होती है।

न्यायपालिका विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों की संवैधानिकता की समीक्षा कर सकती है और कार्यपालिका द्वारा लिए गए फैसलों की न्यायिक जांच कर सकती है।

इस प्रकार, शक्तियों के विभाजन की यह प्रणाली न केवल सत्ता के दुरुपयोग को रोकने में सहायक होती है, बल्कि यह लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने और कानून के शासन को बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

बहु-दलीय व्यवस्था (Multi-Party System):

भारत एक बहु-दलीय लोकतंत्र है, जहाँ राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और स्वतंत्र राजनीतिक दल मिलकर शासन प्रणाली को संचालित करते हैं। इस व्यवस्था के अंतर्गत विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं, सामाजिक समूहों और क्षेत्रों को प्रतिनिधित्व मिलता है, जिससे लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होती हैं। प्रमुख राष्ट्रीय दलों में भारतीय जनता पार्टी (BJP) और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) शामिल हैं, जो देश की राजनीति पर व्यापक प्रभाव डालते हैं। इनके अतिरिक्त, द्रविड़ मुनेत्र कषगम (DMK), अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (AITC), समाजवादी पार्टी (SP), और अन्य क्षेत्रीय दल भी विभिन्न राज्यों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बहु-दलीय प्रणाली की एक प्रमुख विशेषता यह है कि यह विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक समूहों को राजनीतिक मंच प्रदान करती है, जिससे विविधता का सम्मान होता है। हालांकि, इस प्रणाली का एक नकारात्मक पक्ष यह है कि कई बार स्पष्ट बहुमत न मिलने के कारण गठबंधन सरकारें बनानी पड़ती हैं। गठबंधन सरकारें जहाँ एक ओर समावेशी शासन सुनिश्चित करती हैं, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक अस्थिरता और नीति-निर्माण में जटिलताओं को भी जन्म देती हैं। इसके बावजूद, यह प्रणाली भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश के लिए अधिक उपयुक्त मानी जाती है, क्योंकि यह लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करते हुए सभी वर्गों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व प्रदान करती है।

सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार और चुनावी प्रणाली (Universal Adult Suffrage and Electoral System):

भारत एक लोकतांत्रिक देश है, जहाँ सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की व्यवस्था लागू है। इसका अर्थ यह है कि 18 वर्ष या उससे अधिक आयु का प्रत्येक नागरिक, बिना किसी जाति, धर्म, लिंग, भाषा, या आर्थिक स्थिति के भेदभाव के, चुनाव में मतदान करने का अधिकार रखता है। यह सिद्धांत लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत करता है और सुनिश्चित करता है कि हर व्यक्ति को अपनी सरकार चुनने में समान अवसर मिले। भारतीय चुनावी प्रणाली स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए एक सुव्यवस्थित ढांचे के तहत संचालित होती है। इस प्रणाली का संचालन भारतीय निर्वाचन आयोग (Election Commission of India - ECI) द्वारा किया जाता है, जो एक संवैधानिक निकाय है और चुनावों को स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी बनाने की जिम्मेदारी निभाता है। चुनाव आयोग विभिन्न स्तरों पर चुनावों का आयोजन करता है, जिसमें लोकसभा, राज्य विधानसभाएँ, और स्थानीय निकायों के चुनाव शामिल हैं। भारत में चुनाव बहुदलीय प्रणाली के तहत प्रत्यक्ष मतदान के आधार पर कराए जाते हैं, जहाँ पहले-पिछले-पायदान (First-Past-The-Post) प्रणाली का उपयोग किया जाता है। इसके तहत, जिस उम्मीदवार को किसी निर्वाचन क्षेत्र में सबसे अधिक मत मिलते हैं, उसे विजेता घोषित किया जाता है। चुनावी प्रक्रिया को अधिक प्रभावी और पारदर्शी बनाने के लिए ईवीएम (EVM) और वीवीपैट (VVPAT) जैसी तकनीकों को भी अपनाया गया है।

नागरिकों के अधिकार और कर्तव्य (Rights and Duties of Citizens):

भारत का संविधान अपने नागरिकों को विभिन्न मौलिक अधिकार प्रदान करता है, जो लोकतंत्र की आधारशिला माने जाते हैं। ये अधिकार नागरिकों को स्वतंत्रता, समानता, और न्याय सुनिश्चित करते हैं तथा उनकी गरिमा की रक्षा करते हैं। भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों की छह श्रेणियाँ दी गई हैं—

1. समानता का अधिकार (Right to Equality): यह सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता, सामाजिक और आर्थिक समानता तथा भेदभाव से मुक्ति प्रदान करता है।

2. स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom): इसमें अभिव्यक्ति, आंदोलन, व्यवसाय, और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार शामिल हैं।

3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (Right against Exploitation): यह बंधुआ मजदूरी, बाल श्रम और अन्य प्रकार के शोषण को रोकता है।

4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom of Religion): प्रत्येक नागरिक को किसी भी धर्म को मानने, उसका पालन करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है।

5. सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार (Cultural and Educational Rights): यह अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा, संस्कृति और शिक्षण संस्थान स्थापित करने का अधिकार देता है।

6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (Right to Constitutional Remedies): यदि किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों का हनन होता है, तो वह उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय में जाकर अपनी सुरक्षा की मांग कर सकता है।

इन अधिकारों के साथ-साथ, 42वें संविधान संशोधन (1976) के माध्यम से मौलिक कर्तव्यों (Fundamental Duties) को भी जोड़ा गया, जिनका पालन प्रत्येक नागरिक को करना चाहिए। इनमें संविधान का सम्मान करना, राष्ट्र की संप्रभुता की रक्षा करना, सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा, वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना, और राष्ट्रीय एकता को मजबूत करना शामिल है।

आरक्षण और सामाजिक न्याय नीतियाँ (Reservation and Social Justice Policies):

भारत में ऐतिहासिक सामाजिक असमानताओं को दूर करने और समावेशी विकास को प्रोत्साहित करने के लिए आरक्षण और सामाजिक न्याय नीतियाँ लागू की गई हैं। संविधान ने अनुसूचित जातियों (SCs), अनुसूचित जनजातियों (STs), और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBCs) के लिए शिक्षा, सरकारी नौकरियों और विधायिकाओं में आरक्षण का प्रावधान किया है। इन नीतियों का उद्देश्य हाशिए पर खड़े समुदायों को समान अवसर प्रदान करना और उन्हें मुख्यधारा में शामिल करना है। इसके अलावा, सरकार विभिन्न कल्याणकारी योजनाएँ जैसे कि छात्रवृत्ति, मुफ्त शिक्षा, और वित्तीय सहायता प्रदान करके सामाजिक न्याय को बढ़ावा देती है। हाल के वर्षों में, आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था की गई है, जिससे समाज के सभी तबकों को न्याय मिले।

दबाव समूहों और मीडिया की भूमिका (Role of Pressure Groups and Media):

भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली में औपचारिक राजनीतिक संस्थानों के अतिरिक्त, दबाव समूह (Pressure Groups), हित समूह (Interest Groups), गैर-सरकारी संगठन (NGOs), और मीडिया का महत्वपूर्ण योगदान होता है। ये संस्थाएँ नीतियों को प्रभावित करने, जनमत तैयार करने, और शासन की पारदर्शिता सुनिश्चित करने में सहायक होती हैं। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ (Fourth Pillar of Democracy) कहा जाता है, क्योंकि यह सरकार की गतिविधियों पर नजर रखता है और जनता को सूचित करता है। समाचार पत्र, टेलीविजन, और डिजिटल मीडिया सरकार की नीतियों की समीक्षा करने, घोटालों का पर्दाफाश करने, और जन-जागरूकता बढ़ाने का कार्य करते हैं। हालांकि, कभी-कभी मीडिया की निष्पक्षता को लेकर भी प्रश्न उठते हैं, इसलिए एक स्वतंत्र और उत्तरदायी मीडिया की आवश्यकता बनी रहती है।

भारतीय राजनीतिक प्रणाली: चुनौतियाँ और सुधार (Indian Political System: Challenges and Reforms):

भारतीय लोकतंत्र विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, लेकिन यह कई गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है। समय के साथ राजनीतिक व्यवस्था में कई जटिलताएँ उत्पन्न हुई हैं, जो शासन प्रणाली को प्रभावित करती हैं। इन चुनौतियों से निपटने के लिए समय-समय पर विभिन्न सुधारों की आवश्यकता महसूस की गई है। कुछ प्रमुख चुनौतियाँ और उनके संभावित सुधार इस प्रकार हैं—

1. भ्रष्टाचार और राजनीति का अपराधीकरण (Corruption and Criminalization of Politics):

भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार एक व्यापक समस्या बन चुका है। चुनावों के दौरान उम्मीदवारों द्वारा भारी धनराशि खर्च करना, राजनीतिक दलों को अज्ञात स्रोतों से चंदा प्राप्त होना, तथा सत्ता में आने के बाद निजी स्वार्थों को प्राथमिकता देना इस समस्या को और गहरा बना देता है। राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों की बढ़ती संख्या भी चिंता का विषय है, जिससे प्रशासनिक पारदर्शिता और नैतिकता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

संभावित सुधार:

चुनावी वित्तपोषण प्रणाली में पारदर्शिता लाने के लिए चुनावी बॉन्ड जैसी योजनाएँ लागू की गई हैं, लेकिन इसकी प्रभावशीलता पर भी सवाल उठते रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग ने दागी नेताओं पर प्रतिबंध लगाने और उनके मामलों की त्वरित सुनवाई की आवश्यकता पर जोर दिया है।

चुनावों में काले धन के प्रवाह को रोकने के लिए डिजिटलीकरण और ऑनलाइन लेन-देन को बढ़ावा दिया जा रहा है।

2. गठबंधन सरकारों के कारण राजनीतिक अस्थिरता (Political Instability due to Coalition Politics):

भारतीय राजनीति में गठबंधन सरकारों का चलन बढ़ गया है, विशेष रूप से 1990 के दशक के बाद से यह प्रवृत्ति तेज़ हुई है। हालांकि गठबंधन सरकारें विविध विचारधाराओं को समाहित करने का प्रयास करती हैं, लेकिन कई बार यह राजनीतिक अस्थिरता का कारण बन जाती हैं। विभिन्न दलों के परस्पर विरोधी हित सरकार की निर्णय-प्रक्रिया को बाधित करते हैं, जिससे नीति-निर्माण और विकास कार्य प्रभावित होते हैं।

संभावित सुधार:

सामूहिक ज़िम्मेदारी की संस्कृति को बढ़ावा दिया जाना चाहिए ताकि सरकारें दीर्घकालिक दृष्टिकोण के साथ काम कर सकें।

दलबदल विरोधी कानून को और मजबूत किया जाना चाहिए ताकि राजनीतिक अस्थिरता को कम किया जा सके।

गठबंधन सरकारों के तहत नीति-निर्माण को सुचारू बनाने के लिए संवैधानिक और कानूनी सुधारों की आवश्यकता है।

3. जाति, धर्म और क्षेत्रवाद का राजनीतिकरण (Caste, Religion, and Regionalism Influencing Politics):

भारतीय राजनीति में जाति, धर्म और क्षेत्रीय पहचान का अत्यधिक प्रभाव देखा जाता है। कई राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए जातिगत समीकरणों, धार्मिक ध्रुवीकरण और क्षेत्रीय अस्मिता का उपयोग करते हैं। इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया प्रभावित होती है और सामाजिक एकता कमजोर पड़ती है।

संभावित सुधार:

चुनाव आयोग को सख्त नियम बनाने चाहिए ताकि चुनावों में जाति और धर्म के आधार पर मतदाताओं को प्रभावित करने पर रोक लगाई जा सके।

शिक्षा और जागरूकता अभियानों के माध्यम से लोगों को जाति और धर्म से ऊपर उठकर नीतियों और सुशासन के आधार पर मतदान करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।

संविधान के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को मज़बूत करते हुए राजनीतिक दलों को उनके घोषणापत्र में विकास और प्रशासनिक सुधारों को प्राथमिकता देने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए।

4. धीमी न्यायिक प्रक्रिया और लंबित मामले (Slow Judicial Processes and Pending Cases):

भारत में न्यायिक प्रक्रिया अत्यधिक धीमी है, जिससे लाखों मामले दशकों तक लंबित रहते हैं। राजनीतिक नेताओं और उच्च पदस्थ अधिकारियों के खिलाफ दर्ज मामलों का निपटारा भी वर्षों तक नहीं हो पाता, जिससे आम जनता का न्यायिक प्रणाली पर भरोसा कमजोर होता है।

संभावित सुधार:

तेज़ न्यायिक प्रक्रियाओं के लिए फास्ट-ट्रैक कोर्ट की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए, खासकर उन मामलों में जो राजनीति से जुड़े हों।

डिजिटल न्याय प्रणाली को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ताकि मामलों की सुनवाई और निर्णय-प्रक्रिया को तेज किया जा सके।

सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने और नियुक्ति प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की दिशा में ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।

5. चुनावी सुधारों की आवश्यकता (Need for Electoral Reforms):

भारत में चुनावी प्रक्रिया लोकतंत्र की आधारशिला है, लेकिन इसमें कई कमियाँ भी हैं। मतदाता सूची की त्रुटियाँ, पैसों और बाहुबल का प्रभाव, चुनावी खर्च पर नियंत्रण की कमी, और फर्जी मतदान जैसी समस्याएँ लगातार सामने आती रही हैं।

संभावित सुधार:

मतदाता सूची की डिजिटल निगरानी की जानी चाहिए ताकि फर्जी मतदान को रोका जा सके।

इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (EVM) में सुधार और वीवीपैट (VVPAT) का उपयोग अनिवार्य किया जाना चाहिए ताकि चुनावी पारदर्शिता बनी रहे।

चुनावी खर्च की सीमा को प्रभावी रूप से लागू करने के लिए एक स्वतंत्र वित्तीय निगरानी निकाय गठित किया जाना चाहिए।

राइट टू रिकॉल (Right to Recall) जैसी प्रक्रियाओं पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए, जिससे जनता अयोग्य जनप्रतिनिधियों को हटाने का अधिकार प्राप्त कर सके।

भारतीय लोकतंत्र को मजबूत और अधिक पारदर्शी बनाने के लिए इन चुनौतियों से निपटने के लिए ठोस सुधार आवश्यक हैं। भ्रष्टाचार पर लगाम, न्याय प्रणाली में तेजी, चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता और राजनीतिक नैतिकता को बढ़ावा देने से लोकतंत्र अधिक प्रभावी और जनहितकारी बन सकता है। सरकार, न्यायपालिका और जनता को मिलकर इन सुधारों की दिशा में ठोस प्रयास करने की जरूरत है ताकि भारतीय लोकतंत्र की जड़ें और अधिक सशक्त हो सकें।

निष्कर्ष (Conclusion):

भारतीय राजनीतिक प्रणाली अपनी जटिलता और विविधता के कारण अद्वितीय है। यह न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखने का प्रयास करती है, बल्कि सामाजिक न्याय, आर्थिक विकास और राष्ट्रीय एकता को भी सुनिश्चित करने की दिशा में कार्यरत रहती है। हालाँकि, बदलते समय और वैश्विक परिदृश्य को देखते हुए इसमें लगातार सुधार की आवश्यकता बनी रहती है। इस प्रणाली की प्रभावशीलता को बढ़ाने के लिए पारदर्शी शासन, उत्तरदायी नेतृत्व, और मजबूत कानूनी ढांचे की आवश्यकता है। भ्रष्टाचार, राजनीतिक अपराधीकरण, चुनावी अनियमितताओं और न्यायिक प्रक्रियाओं में देरी जैसी समस्याओं को दूर करना लोकतंत्र को अधिक प्रभावी और जनता के प्रति उत्तरदायी बना सकता है। नागरिकों की सक्रिय भागीदारी लोकतंत्र की सफलता के लिए अनिवार्य है। जागरूक मतदाता, स्वतंत्र मीडिया, और सशक्त नागरिक समाज शासन प्रणाली को अधिक पारदर्शी और उत्तरदायी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। डिजिटल युग में तकनीक का प्रभावी उपयोग भी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को सुचारू बनाने में सहायक हो सकता है। यदि राजनीतिक सुधारों को समय पर लागू किया जाए और शासन प्रणाली में अधिक नैतिकता और उत्तरदायित्व सुनिश्चित किया जाए, तो भारत न केवल एक मजबूत लोकतंत्र के रूप में उभर सकता है बल्कि एक वैश्विक आदर्श भी बन सकता है। इसके लिए सरकार, प्रशासन, न्यायपालिका और आम नागरिकों को मिलकर प्रयास करने की आवश्यकता है ताकि लोकतंत्र की जड़ें और अधिक गहरी और सशक्त हो सकें।

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