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Political Thoughts of Ziauddin Barani ज़ियाउद्दीन बरनी की राजनीतिक विचारधारा

जियाउद्दीन बरनी (1285–1357) दिल्ली सल्तनत काल के एक प्रमुख इतिहासकार और राजनीतिक विचारक थे। वह मुख्य रूप से अपनी कृतियों तारीख-ए-फिरोजशाही और फतवा-ए-जहांदारी के लिए जाने जाते हैं, जो उस समय की राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था पर गहरी अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं। बरनी के लेखन में शासन, राज्य प्रबंधन और सामाजिक व्यवस्था को लेकर उनकी गहरी रुचि दिखाई देती है, जो इस्लामी न्यायशास्त्र और फारसी राजनीतिक परंपराओं से प्रभावित थी। उन्होंने राजनीति में धर्म की भूमिका पर जोर दिया और ऐसे राज्य का समर्थन किया जो इस्लामी मूल्यों को बनाए रखे। उनके ऐतिहासिक विवरण न केवल सुल्तानों के शासन का दस्तावेजीकरण करते हैं बल्कि उन नीतियों की भी आलोचना करते हैं जो उनके अनुसार इस्लामी शासन से भटक गई थीं। अपनी रचनाओं के माध्यम से, बरनी ने यह मार्गदर्शन देने का प्रयास किया कि शासकों को न्याय कैसे करना चाहिए, व्यवस्था कैसे बनाए रखनी चाहिए और मुस्लिम कुलीन वर्ग के प्रभुत्व को कैसे बनाए रखना चाहिए। उनकी रूढ़िवादी सोच ने शासन और समाज दोनों में पदानुक्रम (हायरार्की) के महत्व को रेखांकित किया, जिससे न केवल उनके युग की राजनीतिक विचारधारा प्रभावित हुई, बल्कि बाद के इतिहासकारों और शासकों पर भी इसका प्रभाव पड़ा।

1. ज़ियाउद्दीन बरनी का परिचय (Introduction to Ziauddin Barani):

बरनी सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक और फिरोज शाह तुगलक के शासनकाल में एक महत्वपूर्ण दरबारी इतिहासकार थे। वह एक प्रतिष्ठित कुलीन परिवार से संबंध रखते थे, जिसने उन्हें शाही प्रशासन और राजनीतिक व्यवस्था को नजदीक से समझने का अवसर दिया। उन्हें फारसी साहित्य, इस्लामी न्यायशास्त्र और ऐतिहासिक परंपराओं में गहरी विशेषज्ञता प्राप्त थी, जिससे उनके लेखन में एक बौद्धिक गहराई देखने को मिलती है। उनकी रचनाएँ उस समय की राजनीतिक व्यवस्था और सामाजिक संरचना को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत मानी जाती हैं। बरनी के विचारों में एक स्पष्ट वैचारिक झुकाव दिखता है, जो धर्म पर आधारित शासन प्रणाली और कठोर सामाजिक पदानुक्रम को प्राथमिकता देता है। वह मानते थे कि शासन का मूल उद्देश्य इस्लामी सिद्धांतों को लागू करना और सामाजिक व्यवस्था को एक निश्चित ढांचे में बनाए रखना होना चाहिए। उनके अनुसार, सुल्तान को धर्म के संरक्षक के रूप में कार्य करना चाहिए और शासन में इस्लामी सिद्धांतों को सर्वोच्च स्थान देना चाहिए। उनकी रचनाएँ न केवल उनके समय की राजनीतिक परिस्थितियों को दर्शाती हैं, बल्कि इस्लामी शासन प्रणाली पर उनके गहरे विचारों को भी उजागर करती हैं, जो आगे चलकर मध्यकालीन भारत की राजनीति को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण सिद्धांत बने।

2. बरनी की मुख्य विचारधारा (Key Political Thoughts of Barani):

2.1 धर्मतांत्रिक राज्य और इस्लाम की भूमिका (Theocratic State and Role of Islam):

बरनी एक कट्टर धर्मतांत्रिक राज्य के पक्षधर थे, जहाँ इस्लामी कानून (शरीअत) राजनीति और समाज के प्रत्येक पहलू को नियंत्रित करे। उनका मानना था कि सुल्तान केवल एक शासक नहीं, बल्कि इस्लाम का रक्षक और प्रवर्तक भी होना चाहिए। उनके अनुसार, एक आदर्श शासन वही होता है जो इस्लामी सिद्धांतों का पालन करे और धार्मिक नीतियों को राज्य प्रशासन का अभिन्न अंग बनाए। बरनी का विचार था कि सरकार को मुस्लिम प्रजा के हितों को प्राथमिकता देनी चाहिए और गैर-मुसलमानों को नियंत्रित करने के लिए कठोर नियम लागू करने चाहिए। वह मानते थे कि इस्लामी मूल्यों का प्रचार-प्रसार शासन की जिम्मेदारी है, और इसके लिए सामाजिक व कानूनी व्यवस्थाओं को इस्लाम के अनुरूप ढालना आवश्यक है। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि शासकों को धर्मगुरुओं (उलेमा) के मार्गदर्शन में काम करना चाहिए, ताकि इस्लामी कानूनों का सही तरीके से पालन हो सके। उनके अनुसार, राज्य को इस्लामी परंपराओं की रक्षा करनी चाहिए और किसी भी ऐसे सुधार या परिवर्तन से बचना चाहिए जो धर्मतांत्रिक शासन की मूल भावना के खिलाफ हो। उनके ये विचार मध्यकालीन भारत की राजनीति और प्रशासनिक नीतियों को गहराई से प्रभावित करने वाले सिद्ध हुए।

2.2 सुल्तान ईश्वर की छाया के रूप में (ज़िल्ल-ए-इलाही) Sultan as the Shadow of God (Zill-e-Ilahi):

फारसी और इस्लामी परंपराओं से प्रभावित होकर, बरनी ने सुल्तान को "धरती पर ईश्वर की छाया" (ज़िल्ल-ए-इलाही) के रूप में देखा। उनका मानना था कि सुल्तान केवल एक शासक नहीं, बल्कि इस्लामी व्यवस्था का संरक्षक और न्याय का प्रतीक होना चाहिए। उन्होंने इस विचार पर जोर दिया कि एक आदर्श सुल्तान वही होता है जो न्याय (अदल) को कायम रखे, लेकिन यह न्याय इस्लामी कानूनों की सीमाओं के भीतर होना चाहिए। उनके अनुसार, एक सुल्तान का शासन तभी वैध और सफल माना जा सकता है जब वह शरीअत के अनुसार शासन करे और धर्म की रक्षा को अपना मुख्य कर्तव्य बनाए। बरनी ने यह भी स्पष्ट किया कि सुल्तान की भूमिका केवल प्रशासनिक निर्णयों तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि उसे आध्यात्मिक मार्गदर्शक की तरह कार्य करना चाहिए। उनका मानना था कि सुल्तान को इस्लामी मूल्यों की शुद्धता बनाए रखने के लिए न केवल अपने आचरण में धर्मपरायणता दिखानी चाहिए, बल्कि प्रजा को भी धार्मिक नियमों का पालन करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। उन्होंने यह विचार रखा कि यदि कोई शासक धर्म से दूर जाता है या इस्लामी सिद्धांतों का पालन करने में विफल रहता है, तो उसका शासन भ्रष्ट और अराजकता की ओर बढ़ सकता है। बरनी के अनुसार, एक सुल्तान को अपने दरबार में धार्मिक विद्वानों (उलेमा) को महत्वपूर्ण स्थान देना चाहिए और राज्य की नीतियों को इस्लामी परंपराओं के अनुरूप संचालित करना चाहिए। उनके ये विचार मध्यकालीन भारत की शासन व्यवस्था को गहराई से प्रभावित करने वाले सिद्ध हुए।

2.3 सामाजिक पदानुक्रम और कुलीन वर्ग (Social Hierarchy and the Nobility):

बरनी समाज में एक कठोर और व्यवस्थित पदानुक्रम का समर्थन करते थे। उनका विश्वास था कि सामाजिक संरचना में किसी प्रकार का लचीलापन नहीं होना चाहिए और प्रत्येक वर्ग को अपनी पारंपरिक सीमाओं के भीतर रहकर कार्य करना चाहिए। उन्होंने सामाजिक गतिशीलता (Social Mobility) का कड़ा विरोध किया और यह तर्क दिया कि शासन की बागडोर केवल कुलीन मुस्लिम वर्ग के हाथों में ही रहनी चाहिए। उनके अनुसार, सत्ता और प्रशासनिक पदों पर उन्हीं व्यक्तियों का अधिकार होना चाहिए जो कुलीन परिवारों से आते हैं और जिनकी निष्ठा इस्लाम और सल्तनत के प्रति अटूट हो। बरनी ने विशेष रूप से निम्न वर्ग के लोगों, विशेषकर हिंदुओं और नव-धर्मांतरित मुसलमानों के प्रशासन में प्रवेश का विरोध किया। उनका मानना था कि शासन में निम्न वर्ग के लोगों की भागीदारी राज्य की स्थिरता और इस्लामी परंपराओं के लिए खतरा पैदा कर सकती है। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसे व्यक्तियों को उच्च पदों पर नियुक्त करना राज्य की शक्ति को कमजोर कर सकता है और शासक वर्ग की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा सकता है। उनकी विचारधारा अत्यंत रूढ़िवादी थी और कुलीन मुस्लिम वर्ग (अशराफ) के प्रभुत्व को बनाए रखने पर केंद्रित थी। वे मानते थे कि सामाजिक और राजनीतिक संरचना को एक निश्चित ढांचे में रखा जाना चाहिए, जहां सत्ता केवल योग्य और उच्च वंश के व्यक्तियों तक सीमित रहे। उन्होंने शासन में किसी भी प्रकार के लोकतांत्रिक या समतावादी दृष्टिकोण को अस्वीकार किया और यह तर्क दिया कि प्रशासनिक तंत्र में निम्न वर्ग की भागीदारी से अराजकता और अस्थिरता उत्पन्न हो सकती है। उनके ये विचार मध्यकालीन भारत की सामाजिक और राजनीतिक संरचना को गहराई से प्रभावित करने वाले साबित हुए।

2.4 उलेमा और धार्मिक विद्वानों की भूमिका (Role of Ulema and Religious Scholars):

बरनी ने शासन व्यवस्था में उलेमा (इस्लामी विद्वानों) की भूमिका को अत्यंत महत्वपूर्ण माना और तर्क दिया कि सुल्तान को अपने शासन में धार्मिक विद्वानों का मार्गदर्शन लेना चाहिए। उनका मानना था कि प्रशासनिक और कानूनी मामलों में उलेमा की सलाह से यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि राज्य की नीतियाँ इस्लामी सिद्धांतों के अनुरूप हों। उनके अनुसार, एक आदर्श इस्लामी राज्य तभी संभव है जब धर्मगुरु और शासक आपसी समन्वय से कार्य करें, जिससे नीतियों और कानूनों में शरीअत का प्रभाव बना रहे। उन्होंने इस विचार पर जोर दिया कि एक सुल्तान को इस्लामी नियमों के प्रति जागरूक रहना चाहिए और अपने निर्णयों को धार्मिक आधार पर लेना चाहिए, ताकि शासन की वैधता को बरकरार रखा जा सके। हालांकि, बरनी केवल उलेमा की भूमिका को बढ़ावा देने तक सीमित नहीं रहे, बल्कि उन्होंने भ्रष्ट और स्वार्थी उलेमा की कड़ी आलोचना भी की। उन्होंने देखा कि कुछ धार्मिक विद्वान अपने निजी स्वार्थों के लिए धर्म का दुरुपयोग कर रहे थे और राजदरबार में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए अनैतिक मार्ग अपना रहे थे। बरनी ने ऐसे उलेमा की निंदा की, जो सत्य से भटककर शासकों को गलत मार्गदर्शन देते थे और धार्मिक सिद्धांतों की अवहेलना करते थे। उनके अनुसार, यदि उलेमा अपने वास्तविक कर्तव्यों से विमुख होकर केवल सत्ता और संपत्ति के लोभ में कार्य करेंगे, तो इससे न केवल शासन व्यवस्था कमजोर होगी, बल्कि धार्मिक आस्थाओं को भी गहरा आघात पहुंचेगा। बरनी का यह दृष्टिकोण दर्शाता है कि उन्होंने उलेमा को शासन का एक अनिवार्य हिस्सा माना, लेकिन साथ ही वे यह भी चाहते थे कि धार्मिक विद्वान अपने मूल उद्देश्यों पर केंद्रित रहें और सत्ता की राजनीति से प्रभावित हुए बिना इस्लामी न्याय और सिद्धांतों को कायम रखें। उनके ये विचार मध्यकालीन भारत के राजनीतिक और धार्मिक विमर्श को प्रभावित करने वाले साबित हुए।

2.5 न्याय और शासन (Justice and Governance):

बरनी न्याय (अदल) के समर्थक थे, लेकिन उनका न्याय का दृष्टिकोण पूरी तरह धार्मिक भेदभाव पर आधारित था। उनके अनुसार, न्याय का अर्थ समानता नहीं, बल्कि एक ऐसी व्यवस्था थी जो मुस्लिम शासक वर्ग के हितों की रक्षा करे और गैर-मुसलमानों को नियंत्रण में रखे। उन्होंने तर्क दिया कि राज्य को मुस्लिम समाज की भलाई के लिए कार्य करना चाहिए और इस्लामी शासन की सर्वोच्चता बनाए रखने के लिए आवश्यक कदम उठाने चाहिए। उनका मानना था कि गैर-मुसलमानों को अधीनस्थ स्थिति में रखना ही न्यायसंगत है, ताकि वे राज्य के संसाधनों का समान रूप से लाभ न उठा सकें। बरनी के अनुसार, गैर-मुसलमानों पर कठोर कर (जिज्या) लगाया जाना चाहिए और उन पर सामाजिक प्रतिबंध लागू किए जाने चाहिए, जिससे वे मुस्लिम समाज के बराबर न आ सकें। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि प्रशासन और उच्च पदों पर केवल कुलीन मुसलमानों को ही नियुक्त किया जाना चाहिए, ताकि शासक वर्ग की शक्ति और प्रभाव बना रहे। उनके विचारों के अनुसार, राज्य को इस्लामी कानूनों के आधार पर काम करना चाहिए और ऐसे नियम लागू करने चाहिए जो मुस्लिम समुदाय को विशेषाधिकार दें, जबकि गैर-मुसलमानों को सीमित अधिकारों के भीतर रखा जाए। बरनी की न्याय प्रणाली की यह अवधारणा पूरी तरह से धार्मिक असमानता को बढ़ावा देती थी, जिसमें मुस्लिम शासक वर्ग को विशेष अधिकार प्राप्त थे, जबकि गैर-मुसलमानों को नियंत्रित करने के लिए कराधान और सामाजिक प्रतिबंधों का उपयोग किया जाता था। उनके ये विचार सल्तनतकालीन प्रशासनिक नीतियों और सामाजिक संरचना को प्रभावित करने वाले साबित हुए, जिससे शासन में धार्मिक भेदभाव की प्रवृत्ति को और अधिक बल मिला।

2.6 आर्थिक नीतियाँ और कराधान (Economic Policies and Taxation):

बरनी की आर्थिक नीतियाँ स्पष्ट रूप से शासक वर्ग के प्रभुत्व को बनाए रखने पर केंद्रित थीं। उन्होंने एक ऐसी अर्थव्यवस्था का समर्थन किया, जिसमें राजस्व प्रणाली मुख्य रूप से मुस्लिम शासक वर्ग के हितों की रक्षा करती थी, जबकि गैर-मुसलमानों पर आर्थिक बोझ डाला जाता था। उन्होंने यह तर्क दिया कि इस्लामी राज्य को मजबूत बनाए रखने के लिए गैर-मुसलमानों पर भारी कर लगाया जाना आवश्यक है, जिससे शासन की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ बनी रहे। बरनी ने जिज्या (गैर-मुसलमानों पर लगाया जाने वाला विशेष कर) और खराज (भूमि कर) जैसे करों को पूरी तरह उचित ठहराया। उनका मानना था कि गैर-मुसलमानों का यह कर्तव्य है कि वे इस्लामी शासन को आर्थिक रूप से समर्थन दें और उनकी कमाई का एक बड़ा हिस्सा राज्य को समर्पित करें। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि कराधान के माध्यम से गैर-मुसलमानों को आर्थिक रूप से सीमित किया जा सकता है, जिससे वे मुस्लिम समाज के बराबर न आ सकें और अधीनस्थ स्थिति में बने रहें। इसके अतिरिक्त, बरनी इस विचार के समर्थक थे कि शासन की आर्थिक नीतियाँ कुलीन मुस्लिम वर्ग के हाथों में रहनी चाहिए और निम्न वर्ग, विशेष रूप से गैर-मुसलमानों और नव-धर्मांतरित मुसलमानों को उच्च प्रशासनिक और वित्तीय पदों से वंचित रखा जाना चाहिए। उनके अनुसार, आर्थिक संसाधनों पर कुलीन वर्ग का नियंत्रण आवश्यक है, ताकि शासन की स्थिरता बनी रहे और इस्लामी कानूनों के तहत आर्थिक व्यवस्था को संचालित किया जा सके। बरनी की आर्थिक विचारधारा केवल कराधान तक सीमित नहीं थी, बल्कि यह एक व्यापक नीति का हिस्सा थी, जो गैर-मुसलमानों को अधीनस्थ बनाए रखने और मुस्लिम अभिजात्य वर्ग को विशेषाधिकार देने की दिशा में कार्यरत थी। उनकी नीतियों का प्रभाव मध्यकालीन भारत की आर्थिक संरचना पर पड़ा, जहाँ कराधान और संसाधनों के वितरण में धार्मिक भेदभाव एक महत्वपूर्ण कारक बन गया।

2.7 सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक की आलोचना (Criticism of Sultan Muhammad bin Tughlaq):

बरनी सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के दरबार में एक महत्वपूर्ण इतिहासकार के रूप में कार्यरत थे, फिर भी उन्होंने सुल्तान की नीतियों की कठोर आलोचना की। उनका मानना था कि मुहम्मद बिन तुगलक का शासन पारंपरिक इस्लामी और सामाजिक संरचना के लिए हानिकारक था, क्योंकि उसने प्रशासनिक सुधारों और नीतिगत प्रयोगों के माध्यम से स्थापित व्यवस्था को कमजोर कर दिया। बरनी विशेष रूप से सुल्तान की उदार नीतियों से असहमत थे, जिनके अंतर्गत गैर-कुलीन और निम्न वर्ग के व्यक्तियों को प्रशासन में शामिल किया गया था। उन्होंने यह तर्क दिया कि इस प्रकार की नीतियाँ समाज में अनुशासनहीनता और अराजकता को जन्म देती हैं, जिससे शासक वर्ग की शक्ति कमजोर हो सकती है। बरनी को विशेष रूप से यह आपत्ति थी कि सुल्तान ने पारंपरिक मुस्लिम कुलीन वर्ग (अशराफ) के बजाय ऐसे लोगों को प्रशासन में नियुक्त किया, जो या तो निम्न सामाजिक पृष्ठभूमि से थे या नव-धर्मांतरित मुसलमान थे। उन्होंने महसूस किया कि इस तरह की भर्ती नीति से शासन की स्थिरता को खतरा हो सकता है, क्योंकि इन नए अधिकारियों के पास प्रशासनिक अनुभव और कुलीन परंपराओं की समझ नहीं थी। इसके अलावा, बरनी ने मुहम्मद बिन तुगलक की अन्य नीतियों, जैसे राजधानी परिवर्तन, मुद्रा प्रणाली में सुधार, और कराधान में बदलाव की भी आलोचना की। उन्होंने माना कि सुल्तान के ये निर्णय जल्दबाजी में लिए गए थे और इनका क्रियान्वयन व्यावहारिक रूप से असफल रहा, जिससे न केवल आर्थिक अस्थिरता बढ़ी, बल्कि जनता में असंतोष भी उत्पन्न हुआ। बरनी की आलोचना यह दर्शाती है कि वह शासन में एक पारंपरिक दृष्टिकोण के समर्थक थे, जहाँ सत्ता केवल कुलीन वर्ग के हाथों में केंद्रित रहे। उन्होंने प्रशासन में किसी भी प्रकार के सामाजिक बदलाव को अस्वीकार किया और सुल्तान की नीतियों को पारंपरिक इस्लामी राज्य व्यवस्था के खिलाफ माना। उनकी इस विचारधारा का प्रभाव बाद के कई मुस्लिम शासकों पर पड़ा, जिन्होंने शासन में रूढ़िवादी नीतियों को प्राथमिकता दी।

2.8 बाद के राजनीतिक विचारों पर प्रभाव (Influence on Later Political Thought):

बरनी के राजनीतिक विचारों ने मध्यकालीन भारत के कई मुस्लिम शासकों की नीतियों को गहराई से प्रभावित किया। उन्होंने जिस केंद्रीकृत इस्लामी राज्य की परिकल्पना की थी, उसकी झलक बाद के सुल्तानों और मुगल शासकों की शासन व्यवस्था में देखी जा सकती है। विशेष रूप से औरंगज़ेब की नीतियों में बरनी के विचारों का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, जहाँ इस्लामी कानूनों को राज्य प्रशासन का अभिन्न अंग बनाया गया और गैर-मुसलमानों पर कराधान तथा सामाजिक प्रतिबंधों को सख्ती से लागू किया गया। बरनी के सिद्धांतों ने एक ऐसे शासन मॉडल को बढ़ावा दिया, जिसमें धार्मिक आधार पर सत्ता को वैधता प्रदान की जाती थी और मुस्लिम अभिजात्य वर्ग को विशेषाधिकार दिए जाते थे। हालाँकि, समय के साथ उनके कठोर सामाजिक पदानुक्रम और सीमित प्रशासनिक दृष्टिकोण को चुनौती दी गई। विशेष रूप से, अकबर जैसे समावेशी विचारधारा वाले शासकों ने शासन में धार्मिक सहिष्णुता और बहुलवादी नीतियों को अपनाया, जो बरनी के रूढ़िवादी दृष्टिकोण से भिन्न थे। इसके अलावा, आधुनिक युग में कई राजनीतिक और दार्शनिक चिंतकों ने उनके विचारों की आलोचना की और शासन में अधिक समावेशी और न्यायसंगत दृष्टिकोण को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर बल दिया। बरनी के विचारों का प्रभाव ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण रहा, लेकिन उनकी कठोर सामाजिक संरचना की अवधारणा समय के साथ अप्रासंगिक होती चली गई। उनकी नीतियाँ भले ही कुछ शासकों द्वारा अपनाई गईं, लेकिन धीरे-धीरे अधिक समावेशी और व्यावहारिक प्रशासनिक प्रणालियों ने उनके विचारों की जगह ले ली। इस प्रकार, बरनी का योगदान मध्यकालीन भारत की राजनीतिक विचारधारा के विकास में महत्वपूर्ण रहा, लेकिन उनकी विचारधारा को समय के साथ बदलते सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्यों के अनुरूप संशोधित किया गया।

3. निष्कर्ष (Conclusion):

ज़ियाउद्दीन बरनी के राजनीतिक विचार उनकी इस्लामी शासन व्यवस्था, कुलीनतंत्र और कठोर सामाजिक पदानुक्रम में अटूट आस्था से प्रभावित थे। उनका मानना था कि एक आदर्श राज्य वही होता है, जहाँ सत्ता इस्लामी सिद्धांतों के अनुरूप संचालित हो और शासन का अधिकार केवल कुलीन मुस्लिम वर्ग तक सीमित रहे। उन्होंने प्रशासनिक और सामाजिक संरचना को धार्मिक और वंशानुगत विशेषाधिकारों के आधार पर तय करने की वकालत की, जिससे सत्ता का केंद्रीकरण बना रहे और पारंपरिक इस्लामी मूल्यों की रक्षा हो सके। बरनी के विचारों ने मध्यकालीन भारत में इस्लामी राजनीति की दिशा को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके सिद्धांतों का प्रभाव कई सुल्तानों की नीतियों में देखा गया, जहाँ शासन में धार्मिक कट्टरता और सामाजिक भेदभाव को बढ़ावा दिया गया। हालाँकि, उनके विचारों ने राजनीतिक स्थिरता बनाए रखने में मदद की, लेकिन उन्होंने समाज में गहरी विभाजन रेखाएँ भी खींच दीं। उनकी अवधारणाएँ गैर-मुसलमानों और निम्न वर्ग के लोगों के लिए एक कठोर और सीमित सामाजिक व्यवस्था को वैधता प्रदान करती थीं, जिससे सामाजिक गतिशीलता बाधित हुई। इसके बावजूद, बरनी की रचनाएँ दिल्ली सल्तनत की राजनीतिक और सामाजिक संरचना को समझने के लिए एक अमूल्य स्रोत बनी हुई हैं। उनकी कृतियाँ, विशेष रूप से तारीख-ए फिरोज़शाही और फतावा-ए जहानदारी, न केवल तत्कालीन शासन प्रणाली की झलक प्रदान करती हैं, बल्कि मध्यकालीन भारत की सामाजिक और धार्मिक विचारधारा पर भी प्रकाश डालती हैं। उनके विचारों को आधुनिक संदर्भ में आलोचनात्मक दृष्टि से देखा जाता है, लेकिन इतिहासकारों के लिए वे इस्लामी शासन और मध्यकालीन समाज के अध्ययन का एक महत्वपूर्ण आधार बने हुए हैं।



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