Criteria for Inclusion or Exclusion of a Subject Area from the School Curriculum विद्यालयी पाठ्यक्रम में किसी विषय क्षेत्र को शामिल करने या बाहर करने के मानदंड
प्रस्तावना (Preface):
शिक्षा किसी व्यक्ति के बौद्धिक, सामाजिक और नैतिक विकास की नींव होती है, जो न केवल व्यक्तिगत उन्नति बल्कि समाज की प्रगति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह सिर्फ सूचनाओं का संकलन नहीं है, बल्कि एक ऐसी प्रक्रिया है जो सोचने, समझने और समस्या समाधान करने की क्षमता को विकसित करती है। एक सुव्यवस्थित विद्यालयी पाठ्यक्रम यह सुनिश्चित करता है कि छात्र आवश्यक ज्ञान, कौशल और जीवन-मूल्य प्राप्त करें, जिससे वे जिम्मेदार नागरिक बनें और समाज के विकास में सकारात्मक योगदान दें। पाठ्यक्रम निर्माण एक जटिल और रणनीतिक प्रक्रिया होती है, जिसमें विभिन्न शैक्षणिक, सांस्कृतिक, तकनीकी और आर्थिक कारकों को ध्यान में रखा जाता है। इस प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण निर्णयों में से एक यह होता है कि किन विषयों को शामिल किया जाए और किन्हें बाहर किया जाए। यह निर्णय केवल शिक्षण संस्थानों तक सीमित नहीं होता, बल्कि इसे शैक्षिक प्राथमिकताओं, राष्ट्रीय और वैश्विक आवश्यकताओं, भविष्य के रोजगार अवसरों और छात्रों की समग्र वृद्धि के आधार पर तय किया जाता है। किसी विषय को पाठ्यक्रम में जोड़ने या हटाने का प्रभाव दीर्घकालिक होता है, क्योंकि यह विद्यार्थियों की मानसिकता, करियर के विकल्पों और समाज की संरचना को प्रभावित कर सकता है। इसके अतिरिक्त, आधुनिक तकनीकी प्रगति, वैश्विक प्रतिस्पर्धा और शिक्षा की बदलती प्रवृत्तियां भी पाठ्यक्रम निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। डिजिटल युग में नई तकनीकों और कौशलों की आवश्यकता बढ़ रही है, जिससे पारंपरिक विषयों को नए दृष्टिकोण से देखने की जरूरत पड़ रही है। इसी तरह, पर्यावरणीय मुद्दे, नैतिक शिक्षा, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI), और डेटा साइंस जैसे नए विषयों की मांग बढ़ रही है, जिससे यह आवश्यक हो जाता है कि पाठ्यक्रम समय-समय पर अपडेट किया जाए। यह लेख उन मूलभूत मानदंडों की विस्तार से व्याख्या करेगा, जिनके आधार पर शिक्षाविद और नीति-निर्माता यह निर्णय लेते हैं कि किसी विषय क्षेत्र को विद्यालयी पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाए या उसे अधिक प्रासंगिक शैक्षिक अनुभवों के लिए हटा दिया जाए। साथ ही, यह भी विश्लेषण किया जाएगा कि कैसे एक संतुलित पाठ्यक्रम छात्रों को भविष्य के लिए तैयार कर सकता है और समाज की बदलती आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा प्रणाली को सशक्त बना सकता है।
1. विद्यालयी पाठ्यक्रम में किसी विषय को शामिल करने के मानदंड (Criteria for Inclusion of a Subject in the School Curriculum):
1.1 शैक्षिक प्रासंगिकता (Educational Relevance):
किसी विषय को पाठ्यक्रम में शामिल करने के लिए यह आवश्यक है कि वह छात्रों के समग्र बौद्धिक, सामाजिक, भावनात्मक और नैतिक विकास में सार्थक योगदान दे। शिक्षा केवल सूचनाओं के संकलन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो आलोचनात्मक सोच, समस्या-समाधान, रचनात्मकता और नैतिक तर्कशक्ति को विकसित करती है। किसी विषय को इस तरह से डिज़ाइन किया जाना चाहिए कि वह छात्रों को अपने परिवेश को समझने, तार्किक रूप से सोचने और सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाने में सहायता करे। साथ ही, यह विषय छात्रों को आजीवन सीखने के लिए प्रेरित करे और उन्हें उन मौलिक ज्ञान और कौशल से सशक्त बनाए जो उनके व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन में उपयोगी साबित हों।
1.2 राष्ट्रीय शिक्षा लक्ष्यों के साथ समन्वय (Alignment with National Education Goals):
प्रत्येक देश की शिक्षा प्रणाली उसके सांस्कृतिक, आर्थिक और विकासात्मक लक्ष्यों को दर्शाती है। किसी विषय को पाठ्यक्रम में शामिल करने का निर्णय इस बात पर निर्भर करता है कि वह व्यापक राष्ट्रीय शिक्षा लक्ष्यों के साथ कितनी अच्छी तरह मेल खाता है। इन लक्ष्यों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देना, रचनात्मकता को प्रोत्साहित करना, लोकतांत्रिक मूल्यों को सशक्त बनाना और सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करना शामिल हो सकता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी देश का ध्यान तकनीकी प्रगति पर केंद्रित है, तो वह STEM शिक्षा को प्राथमिकता देगा, जबकि यदि कोई देश अपनी सांस्कृतिक धरोहर को सहेजना चाहता है, तो वह इतिहास, साहित्य और कला को अधिक महत्व देगा। इस तरह, एक संतुलित पाठ्यक्रम छात्रों को राष्ट्रीय लक्ष्यों के अनुरूप ज्ञान और कौशल से लैस करता है।
1.3 समग्र विकास में योगदान (Contribution to Holistic Development):
शिक्षा केवल अकादमिक उपलब्धि तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि यह छात्रों के समग्र विकास पर केंद्रित होनी चाहिए। एक संतुलित पाठ्यक्रम में ऐसे विषय शामिल होने चाहिए जो संज्ञानात्मक, भावनात्मक, शारीरिक और नैतिक विकास को बढ़ावा दें। संज्ञानात्मक विकास छात्रों की तर्कशक्ति और विश्लेषणात्मक कौशल को सुधारता है, जबकि भावनात्मक विकास उन्हें अपनी भावनाओं को समझने और प्रबंधित करने में सहायता करता है। शारीरिक शिक्षा उनके शारीरिक स्वास्थ्य को सुनिश्चित करती है, और नैतिक शिक्षा सत्यनिष्ठा, सहानुभूति और सामाजिक जिम्मेदारी जैसे मूल्यों को विकसित करती है। विभिन्न विषयों को एकीकृत करके, स्कूल यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि छात्र विभिन्न जीवन स्थितियों के अनुकूल बन सकें और अपने समुदायों में सार्थक योगदान दे सकें।
1.4 सामाजिक और आर्थिक आवश्यकताएं (Societal and Economic Needs):
एक प्रभावी पाठ्यक्रम समाज और अर्थव्यवस्था की बदलती जरूरतों को प्रतिबिंबित करता है। जैसे-जैसे तकनीक आगे बढ़ रही है और उद्योग विकसित हो रहे हैं, शिक्षा प्रणालियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि छात्र उन कौशलों से लैस हों जो कार्यस्थल में आवश्यक हैं। विज्ञान, प्रौद्योगिकी, उद्यमिता और व्यावसायिक प्रशिक्षण से संबंधित विषयों को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि वे आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। उदाहरण के लिए, डिजिटल परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए, कोडिंग, कृत्रिम बुद्धिमत्ता और डेटा विज्ञान जैसे विषय तेजी से महत्वपूर्ण हो रहे हैं। इसी तरह, जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दों के कारण पर्यावरण अध्ययन को भी शिक्षा में एक आवश्यक स्थान दिया गया है।
1.5 भविष्य के करियर के अवसर (Future Career Prospects):
किसी विषय को पाठ्यक्रम में शामिल करने का एक महत्वपूर्ण मानदंड यह है कि वह भविष्य में छात्रों के करियर और रोजगार की संभावनाओं के लिए कितना प्रासंगिक है। शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को उन आवश्यक कौशलों से लैस करना है जो उन्हें सफल करियर बनाने में मदद करें। ऐसे विषय जो व्यावहारिक ज्ञान और तकनीकी दक्षता प्रदान करते हैं, उन्हें पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने की अधिक संभावना होती है, क्योंकि वे रोजगार के अवसरों को सीधे प्रभावित करते हैं। विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित (STEM) विषयों के साथ-साथ भाषाएं और सामाजिक विज्ञान भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसके अलावा, डिजिटल मार्केटिंग, साइबर सुरक्षा और वित्तीय साक्षरता जैसे उभरते हुए क्षेत्र भी तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं, जिससे छात्रों को प्रतिस्पर्धात्मक वैश्विक बाजार में आगे बढ़ने में मदद मिलती है।
1.6 सांस्कृतिक और नैतिक महत्व (Cultural and Moral Significance):
शिक्षा केवल करियर की तैयारी के लिए ही नहीं होती, बल्कि यह छात्रों के मूल्यों, नैतिक दृष्टिकोण और सांस्कृतिक पहचान को आकार देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ऐसे विषय जो सांस्कृतिक जागरूकता, नैतिक जिम्मेदारी और सामाजिक मूल्यों को बढ़ावा देते हैं, वे एक मजबूत समाज बनाने में मदद करते हैं। इतिहास, नागरिक शास्त्र, दर्शनशास्त्र और नैतिक शिक्षा जैसे विषय छात्रों को उनकी विरासत को समझने, लोकतांत्रिक मूल्यों को अपनाने और सामाजिक कर्तव्यों का पालन करने में सक्षम बनाते हैं। इन विषयों को पाठ्यक्रम में शामिल करके, शिक्षा प्रणाली यह सुनिश्चित कर सकती है कि छात्र विविधता की सराहना करें, नैतिक मूल्यों को आत्मसात करें और एक समावेशी और न्यायसंगत समाज बनाने में योगदान दें।
1.7 मनोवैज्ञानिक और विकासात्मक उपयुक्तता (Psychological and Developmental Appropriateness):
किसी विषय को पाठ्यक्रम में शामिल करने से पहले छात्रों की मनोवैज्ञानिक और संज्ञानात्मक क्षमताओं को ध्यान में रखा जाना आवश्यक है। प्रत्येक उम्र के छात्रों के लिए विषयों को चरणबद्ध तरीके से प्रस्तुत किया जाना चाहिए, ताकि वे उनकी समझ के स्तर के अनुरूप हों। उदाहरण के लिए, गणित या विज्ञान जैसे जटिल विषयों की अवधारणाओं को सरलतम स्तर से शुरू कर धीरे-धीरे उन्नत स्तर पर ले जाना चाहिए। इसके अलावा, विषयों को इस प्रकार डिज़ाइन किया जाना चाहिए कि वे छात्रों की रुचि बनाए रखें और सीखने की प्रेरणा को बढ़ाएं। एक अच्छी तरह से संरचित पाठ्यक्रम विकासात्मक मनोविज्ञान के सिद्धांतों को ध्यान में रखता है ताकि शिक्षा प्रभावी और आयु-उपयुक्त हो।
1.8 संसाधनों और शिक्षकों की उपलब्धता (Availability of Resources and Teachers):
किसी विषय को प्रभावी रूप से पढ़ाया जा सके, इसके लिए आवश्यक संसाधनों की उपलब्धता अनिवार्य है। इनमें प्रशिक्षित शिक्षक, अद्यतन पाठ्यपुस्तकें, प्रयोगशालाएं, डिजिटल उपकरण और अन्य शैक्षिक सामग्री शामिल हैं। किसी भी विषय की गुणवत्ता इस बात पर निर्भर करती है कि उसे पढ़ाने के लिए पर्याप्त रूप से योग्य शिक्षक उपलब्ध हैं या नहीं। यदि किसी विषय को पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी है या आवश्यक बुनियादी ढांचे का अभाव है, तो उसे लागू करना मुश्किल हो सकता है। इसलिए, किसी विषय को शामिल करने से पहले यह मूल्यांकन किया जाना चाहिए कि उसे प्रभावी रूप से सिखाने के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हैं या नहीं।
1.9 अंतर्राष्ट्रीय और तुलनात्मक मानक (International and Comparative Standards):
वैश्वीकरण के इस युग में, शिक्षा प्रणालियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धात्मक बनाए रखने के लिए वैश्विक मानकों के अनुरूप होना चाहिए। कई देश अपने पाठ्यक्रमों को अंतरराष्ट्रीय शिक्षा प्रणालियों से प्रेरित होकर तैयार करते हैं ताकि छात्रों को वैश्विक अवसर मिल सकें। आज के समय में शिक्षा केवल एक राष्ट्र तक सीमित नहीं है, बल्कि यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जुड़े हुए समाज और अर्थव्यवस्था का अभिन्न हिस्सा बन चुकी है। कई विकसित देशों की शिक्षा प्रणालियों का गहन अध्ययन किया जाता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि छात्र आधुनिक दुनिया में प्रतिस्पर्धा करने के लिए तैयार हैं। यदि किसी विषय को वैश्विक स्तर पर महत्वपूर्ण माना जाता है, तो उसे राष्ट्रीय पाठ्यक्रम में शामिल करने पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
2. विद्यालय पाठ्यक्रम से किसी विषय को बाहर करने के मानदंड (Criteria for Exclusion of a Subject from the School Curriculum):
एक सुव्यवस्थित और प्रभावी विद्यालय पाठ्यक्रम को तैयार करने के लिए समय-समय पर इसकी प्रासंगिकता और उपयोगिता का मूल्यांकन किया जाना आवश्यक है। कई कारणों से कुछ विषयों को पाठ्यक्रम से बाहर करना आवश्यक हो सकता है, जिससे छात्र सीखने की प्रक्रिया को और अधिक प्रभावी बनाया जा सके। नीचे दिए गए कुछ महत्वपूर्ण मानदंड यह निर्धारित करते हैं कि किसी विषय को पाठ्यक्रम से हटाया जाए या नहीं:
2.1 पुरानी या अप्रासंगिक सामग्री (Outdated or Irrelevant Content):
यदि किसी विषय की जानकारी अब आधुनिक समाज के लिए प्रासंगिक नहीं है या छात्रों की सीखने की प्रक्रिया में सार्थक योगदान नहीं देती है, तो उसे पाठ्यक्रम से हटा दिया जा सकता है। जैसे-जैसे समाज प्रगति करता है, विज्ञान, तकनीक और सामाजिक संरचनाओं में परिवर्तन होते हैं, जिससे कुछ विषय और तकनीकी कौशल अप्रचलित हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, पुरानी मशीनों से संबंधित तकनीकी कौशल या ऐसी प्रोग्रामिंग भाषाएं, जिनका अब उपयोग नहीं होता, उन्हें पाठ्यक्रम से हटाकर अधिक प्रासंगिक विषयों को शामिल किया जा सकता है। इसी तरह, ऐतिहासिक घटनाओं की नई खोजों के आधार पर पुरानी और गलत धारणाओं को बदलना आवश्यक हो सकता है, ताकि छात्रों को अद्यतन और सटीक जानकारी मिल सके।
2.2 पाठ्यक्रम पर अत्यधिक बोझ (Overburdening the Curriculum):
यदि पाठ्यक्रम में अत्यधिक विषय जोड़े जाते हैं, तो छात्रों पर मानसिक बोझ बढ़ सकता है, जिससे उनकी सीखने की क्षमता और रुचि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। एक संतुलित पाठ्यक्रम तैयार करना आवश्यक है, ताकि छात्र विषयों को गहराई से समझ सकें और अत्यधिक जानकारी से अभिभूत न हों। यदि बहुत अधिक विषय बिना उचित प्राथमिकता के शामिल किए जाते हैं, तो छात्रों के लिए उन्हें समझना और याद रखना कठिन हो सकता है। इसलिए, यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि पाठ्यक्रम में वही विषय शामिल किए जाएं, जो छात्रों के लिए सबसे अधिक उपयोगी हों।
2.3 व्यावहारिक अनुप्रयोग की कमी (Lack of Practical Application):
शिक्षा का मुख्य उद्देश्य छात्रों को वास्तविक जीवन की समस्याओं को हल करने के लिए सक्षम बनाना होता है। यदि कोई विषय छात्रों को व्यावहारिक ज्ञान नहीं देता या उनकी समस्या-समाधान क्षमता को विकसित नहीं करता, तो उसे पाठ्यक्रम से हटाने पर विचार किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, केवल सैद्धांतिक ज्ञान पर जोर देने के बजाय, ऐसे विषयों को पाठ्यक्रम में अधिक महत्व दिया जाना चाहिए जो छात्रों को वित्तीय साक्षरता, कोडिंग, पर्यावरणीय चेतना और अन्य व्यावहारिक कौशल प्रदान करें। इससे शिक्षा अधिक प्रभावी और उपयोगी बनती है।
2.4 अन्य विषयों के साथ अधिक समानता (Redundancy with Other Subjects):
यदि कोई विषय अन्य विषयों के साथ अत्यधिक मेल खाता है, तो उसे एक स्वतंत्र विषय के रूप में बनाए रखने की आवश्यकता नहीं होती। इसके बजाय, उसे पहले से मौजूद विषयों में समाहित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, पर्यावरण अध्ययन को एक अलग विषय के रूप में पढ़ाने के बजाय इसे विज्ञान, भूगोल और सामाजिक अध्ययन में सम्मिलित किया जा सकता है। इससे न केवल दोहराव से बचा जा सकता है, बल्कि शिक्षण समय और संसाधनों का भी उचित उपयोग हो सकता है।
2.5 संसाधनों और योग्य शिक्षकों की कमी (Insufficient Resources or Teacher Availability):
शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए प्रशिक्षित शिक्षकों, उपयुक्त शिक्षण सामग्री और आवश्यक बुनियादी ढांचे की उपलब्धता आवश्यक होती है। यदि किसी विषय को प्रभावी रूप से पढ़ाने के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं हैं, तो उसे पाठ्यक्रम से हटाने या किसी अन्य व्यवहार्य विकल्प से बदलने पर विचार किया जा सकता है। हालांकि, यदि कोई विषय महत्वपूर्ण है लेकिन उसके लिए संसाधनों की कमी है, तो ऑनलाइन पाठ्यक्रम, अतिथि व्याख्यान, या अन्य वैकल्पिक शिक्षण विधियों का सहारा लिया जा सकता है।
2.6 राजनीतिक, धार्मिक या नैतिक मुद्दे (Political, Religious, or Ethical Concerns):
शिक्षा को निष्पक्ष, वैज्ञानिक और समावेशी होना चाहिए। यदि कोई विषय विवादास्पद माना जाता है, राजनीतिक या धार्मिक दृष्टिकोण से संवेदनशील है, या भेदभाव, पूर्वाग्रह या गलत जानकारी को बढ़ावा देता है, तो उसे पाठ्यक्रम से बाहर किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, किसी विशेष राजनीतिक विचारधारा या धार्मिक विश्वास को बढ़ावा देने वाली सामग्री को आमतौर पर पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया जाता। इसके अलावा, यदि कोई विषय ऐतिहासिक रूप से गलत जानकारी देता है या समाज में असमानता को बढ़ावा देता है, तो उसे संशोधित या हटा दिया जाता है, ताकि शिक्षा निष्पक्ष और न्यायसंगत बनी रहे।
2.7 छात्रों की रुचि और सहभागिता की कमी (Lack of Student Interest and Engagement):
यदि कोई विषय छात्रों को आकर्षित नहीं करता या उनके लिए प्रासंगिक नहीं लगता, तो उसे पाठ्यक्रम से हटाने पर विचार किया जा सकता है। छात्रों को विषयों में रुचि होनी चाहिए, तभी वे प्रभावी रूप से सीख पाएंगे। इसलिए, शिक्षा को अधिक आकर्षक और अर्थपूर्ण बनाने के लिए शिक्षण विधियों को अपडेट करना आवश्यक है। नियमित रूप से छात्र फीडबैक, सर्वेक्षण और उनकी प्रगति का मूल्यांकन करके यह तय किया जा सकता है कि कोई विषय जारी रखा जाए या नहीं। यदि कोई विषय लगातार छात्रों की रुचि खो रहा है, तो उसे या तो संशोधित किया जाना चाहिए या पाठ्यक्रम से हटा देना चाहिए।
2.8 शिक्षा की प्राथमिकताओं में बदलाव (Shift in Educational Priorities):
समय के साथ शिक्षा की प्राथमिकताएं बदलती रहती हैं। कुछ विषय, जो कभी महत्वपूर्ण माने जाते थे, आधुनिक युग में उतने आवश्यक नहीं रह जाते। उदाहरण के लिए, पहले स्कूलों में हस्तलिपि पर अधिक जोर दिया जाता था, लेकिन डिजिटल संचार के बढ़ते प्रभाव के कारण अब इसे कम प्राथमिकता दी जा रही है। इसी तरह, आधुनिक युग में डेटा साइंस, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और साइबर सुरक्षा जैसे विषयों की बढ़ती मांग को देखते हुए स्कूल इन्हें अपने पाठ्यक्रम में शामिल कर रहे हैं और कुछ पुराने विषयों को हटा रहे हैं। यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि शिक्षा प्रणाली हमेशा छात्रों को भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार करे।
निष्कर्ष (Conclusion):
स्कूली पाठ्यक्रम में किसी विषय को शामिल करने या बाहर करने का निर्णय एक सुविचारित प्रक्रिया है, जिसमें उसके शैक्षिक महत्व, सामाजिक प्रभाव, आर्थिक प्रासंगिकता और समग्र विकास में योगदान को ध्यान में रखा जाता है। ऐसे विषयों को प्राथमिकता दी जाती है जो राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप हों, आलोचनात्मक सोच को बढ़ावा दें और कैरियर के अवसरों को सशक्त बनाएं, जिससे छात्र समकालीन समाज में उपयोगी ज्ञान और कौशल प्राप्त कर सकें। वहीं, वे विषय जो अप्रासंगिक हो चुके हैं, व्यावहारिक उपयोगिता नहीं रखते या जिनका कोई विशेष उद्देश्य नहीं रह गया है, उन्हें चरणबद्ध तरीके से हटाया जा सकता है ताकि अधिक प्रासंगिक सामग्री के लिए स्थान बनाया जा सके। एक लचीला और विकसित होता पाठ्यक्रम पारंपरिक शिक्षा और आधुनिक प्रगति के बीच की खाई को पाटने में मदद करता है, जिससे छात्र एक निरंतर बदलती दुनिया में आत्मविश्वास और दक्षता के साथ आगे बढ़ सकें। शिक्षण कार्यक्रमों का लगातार मूल्यांकन और अद्यतन करके, नीति-निर्माता यह सुनिश्चित करते हैं कि शिक्षा गतिशील, दूरदर्शी और आने वाली पीढ़ियों के लिए लाभदायक बनी रहे।
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