Regionalism in India: An Overview भारत में क्षेत्रीयता: एक दृष्टिकोण
परिचय (Introduction):
क्षेत्रीयता (Regionalism) एक सामाजिक-राजनीतिक अवधारणा है, जो किसी विशिष्ट क्षेत्र के लोगों की उस स्थान की संस्कृति, भाषा, परंपराओं, इतिहास और भौगोलिक विशेषताओं के प्रति गहरी निष्ठा और लगाव को दर्शाती है। यह भावना अक्सर क्षेत्रीय पहचान को राष्ट्रीय एकता से ऊपर रखती है, जिससे स्थानीय हितों को प्राथमिकता मिलती है। भारत जैसे बहुविधता वाले देश में क्षेत्रीयता एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। देश की विविध भाषाएं, संस्कृतियां, धार्मिक आस्थाएं और जातीय समूह विभिन्न क्षेत्रों की विशिष्ट पहचान को मजबूत करते हैं। क्षेत्रीयता कई बार सामाजिक और सांस्कृतिक समृद्धि को बढ़ावा देती है, जिससे लोग अपनी परंपराओं, भाषाओं और विरासत को संरक्षित करने के प्रति जागरूक होते हैं। हालांकि, जब यह भावना अतिरेक में बदल जाती है, तो यह राष्ट्र की अखंडता के लिए चुनौती बन सकती है। भारत के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए, तो क्षेत्रीयता की जड़ें औपनिवेशिक काल से पहले की हैं, लेकिन ब्रिटिश शासन के दौरान यह अधिक स्पष्ट रूप से उभरकर आई। ब्रिटिश प्रशासन ने अपने प्रभाव को बनाए रखने के लिए विभिन्न क्षेत्रों को भौगोलिक और प्रशासनिक इकाइयों में विभाजित किया, जिससे क्षेत्रीय पहचानों को बल मिला। स्वतंत्रता के बाद, राज्यों का पुनर्गठन और भाषाई आधार पर नए राज्यों का गठन क्षेत्रीयता को एक नई दिशा देने वाला साबित हुआ। आज क्षेत्रीयता केवल भाषाई या सांस्कृतिक सीमाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आर्थिक असमानताओं, राजनीतिक प्रतिस्पर्धा और संसाधनों के असमान वितरण से भी प्रभावित होती है। कुछ क्षेत्रों का अपेक्षाकृत तेज़ विकास और अन्य का पिछड़ापन लोगों में असंतोष को जन्म देता है, जिससे क्षेत्रीय असमानताएं और संघर्ष बढ़ते हैं। इसके अलावा, जब राजनीतिक दल या समूह क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काकर अपने हित साधते हैं, तो यह प्रवृत्ति सामाजिक समरसता और राष्ट्रीय एकता के लिए एक चुनौती बन जाती है। इस प्रकार, क्षेत्रीयता एक जटिल सामाजिक-राजनीतिक पहलू है, जो सकारात्मक रूप से सांस्कृतिक विविधता और स्थानीय प्रशासन को बढ़ावा दे सकता है, लेकिन जब यह अतिरेक का रूप लेता है, तो यह सामाजिक और राष्ट्रीय ताने-बाने को कमजोर करने का जोखिम भी उत्पन्न करता है। इसे संतुलित बनाए रखने के लिए एक समावेशी और समानतापूर्ण विकास नीति आवश्यक है, जिससे राष्ट्रीय एकता और क्षेत्रीय पहचान दोनों को समान महत्व मिल सके।
क्षेत्रीयता क्या है? (What is Regionalism?):
भारत में क्षेत्रीयता क्षेत्रीय चेतना की अभिव्यक्ति है या क्षेत्रीय भिन्नताओं के आधार पर अधिक स्वायत्तता या मान्यता की मांग है। यह विशिष्टता की भावना से उत्पन्न होती है, जो भाषा (जैसे तमिल, बंगाली, मराठी), भूगोल (जैसे उत्तर-पूर्व भारत, तटीय क्षेत्र) या जातीयता (जैसे झारखंड या नागालैंड में आदिवासी पहचान) से जुड़ी होती है। राष्ट्रवाद (Nationalism) पूरे देश में एकता को प्राथमिकता देता है, जबकि क्षेत्रीयता किसी विशेष क्षेत्र के हितों पर केंद्रित होती है, जो कभी-कभी केंद्र सरकार के साथ टकराव का कारण बनती है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (Historical Background):
भारत में क्षेत्रीयता एक सामाजिक-राजनीतिक अवधारणा है, जो किसी क्षेत्र के लोगों की विशिष्ट पहचान, स्वायत्तता और मान्यता की मांग के रूप में प्रकट होती है। यह भावना भाषा, भौगोलिक परिस्थितियों, सांस्कृतिक परंपराओं, आर्थिक विकास और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के आधार पर विकसित होती है। उदाहरण के लिए, तमिल, बंगाली, मराठी जैसी भाषाई पहचानों ने कई राज्यों में क्षेत्रीय जागरूकता को जन्म दिया है, जबकि उत्तर-पूर्व भारत और तटीय क्षेत्रों की भौगोलिक स्थिति ने वहां के लोगों में अलगाव और उपेक्षा की भावना को बढ़ावा दिया है। इसी तरह, झारखंड और नागालैंड में आदिवासी समुदायों की विशिष्ट जीवनशैली और सांस्कृतिक धरोहर ने उनकी क्षेत्रीय मांगों को सशक्त बनाया है।
हालांकि राष्ट्रवाद (Nationalism) पूरे देश को एकीकृत करने और साझा पहचान स्थापित करने पर बल देता है, वहीं क्षेत्रीयता स्थानीय हितों और विशेषताओं को प्राथमिकता देती है। कभी-कभी यह भावना केंद्र सरकार की नीतियों के प्रति असंतोष को जन्म देती है, जिससे राजनीतिक और प्रशासनिक टकराव उत्पन्न होते हैं। उदाहरणस्वरूप, जब केंद्र सरकार किसी भाषा को राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ावा देने का प्रयास करती है, तो यह उन राज्यों में विरोध का कारण बन सकता है, जहां स्थानीय भाषा को प्राथमिकता दी जाती है।
इसके अतिरिक्त, क्षेत्रीयता केवल सांस्कृतिक या भाषाई मुद्दों तक सीमित नहीं है; यह आर्थिक असमानता और संसाधनों के असमान वितरण से भी प्रभावित होती है। यदि किसी क्षेत्र को विकास की मुख्यधारा से अलग महसूस होता है, तो वहां के लोग अधिक स्वायत्तता या विशेष दर्जे की मांग कर सकते हैं। यह प्रवृत्ति कभी-कभी क्षेत्रीय राजनीतिक दलों द्वारा भी भुनाई जाती है, जो स्थानीय भावनाओं को भड़का कर राजनीतिक लाभ उठाते हैं।
अतः क्षेत्रीयता एक स्वाभाविक सामाजिक प्रवृत्ति है, जो स्थानीय पहचान और सांस्कृतिक विविधता को संरक्षित करने में सहायक हो सकती है, लेकिन जब यह अतिरेक का रूप लेती है, तो यह राष्ट्रीय एकता और विकास के लिए चुनौती भी बन सकती है। इसे संतुलित बनाए रखने के लिए एक समावेशी दृष्टिकोण आवश्यक है, जिसमें केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग तथा समान विकास को प्राथमिकता दी जाए।
क्षेत्रीयता के कारण (Causes of Regionalism):
1. भाषाई विविधता (Linguistic Diversity):
भारत में भाषाई विविधता अत्यधिक विस्तृत है, जहां 22 आधिकारिक भाषाओं के अलावा सैकड़ों क्षेत्रीय बोलियां प्रचलित हैं। भाषा केवल संचार का माध्यम नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक भी होती है। इसलिए, जब किसी विशेष भाषा को दूसरे पर थोपने का प्रयास किया जाता है, तो यह क्षेत्रीय असंतोष को जन्म देता है। उदाहरण के लिए, 1960 के दशक में तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन (Anti-Hindi Agitation) इस तथ्य को उजागर करता है कि कैसे भाषाई गर्व और अस्मिता क्षेत्रीयता को बढ़ावा दे सकती है। दक्षिण भारत के कई राज्यों में हिंदी को थोपने के प्रयासों का विरोध इस विचार से प्रेरित था कि यह उनकी स्थानीय भाषाओं और सांस्कृतिक पहचान के लिए खतरा है। इसी तरह, बंगाल, महाराष्ट्र और अन्य राज्यों में भी क्षेत्रीय भाषाओं की रक्षा के लिए आंदोलनों का इतिहास रहा है। भाषाई क्षेत्रीयता की यह प्रवृत्ति राज्यों की मांग, राजनीतिक दलों की रणनीतियों और स्थानीय प्रशासनिक नीतियों को प्रभावित करती है।
2. आर्थिक असमानता (Economic Disparities):
क्षेत्रीयता का एक प्रमुख कारण आर्थिक असमानता भी है। भारत में विभिन्न राज्यों और क्षेत्रों के बीच आर्थिक विकास की दर में भारी अंतर देखने को मिलता है। कुछ राज्य—जैसे महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और तमिलनाडु—तेजी से औद्योगिक और तकनीकी हब के रूप में विकसित हुए हैं, जबकि बिहार, झारखंड, ओडिशा और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्से अभी भी पिछड़ेपन का सामना कर रहे हैं। इस असमानता के कारण संसाधनों, नौकरियों और निवेश की असमान उपलब्धता होती है, जिससे क्षेत्रीय असंतोष और स्वायत्तता की मांग बढ़ती है। कई बार पिछड़े राज्यों के लोग यह महसूस करते हैं कि केंद्र सरकार द्वारा उनके राज्य के विकास को पर्याप्त प्राथमिकता नहीं दी जा रही है, जिससे क्षेत्रीय दलों और आंदोलनों को बढ़ावा मिलता है। इस प्रकार, आर्थिक असमानता न केवल सामाजिक असंतोष पैदा करती है, बल्कि क्षेत्रीय राजनीति को भी प्रभावित करती है।
3. सांस्कृतिक भिन्नताएं (Cultural Differences):
भारत विभिन्न संस्कृतियों, परंपराओं और इतिहास का संगम है। प्रत्येक क्षेत्र की अपनी अलग सांस्कृतिक विरासत होती है, जो वहां के त्योहारों, आस्थाओं और जीवनशैली में झलकती है। उदाहरण के लिए, पंजाब की सिख संस्कृति, महाराष्ट्र की मराठा परंपरा, केरल की द्रविड़ संस्कृति और उत्तर-पूर्वी राज्यों की आदिवासी विरासत सभी अपनी विशिष्ट पहचान रखती हैं। जब कोई बाहरी प्रभाव या केंद्रीकरण की प्रवृत्ति इन सांस्कृतिक मूल्यों को कमजोर करने की कोशिश करती है, तो स्थानीय लोग अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए सक्रिय हो जाते हैं। इस प्रकार, सांस्कृतिक भिन्नताएं क्षेत्रीयता को बढ़ावा देती हैं और कभी-कभी यह क्षेत्रीय आंदोलनों का कारण भी बनती हैं।
4. राजनीतिक कारक (Political Factors):
क्षेत्रीय राजनीति भारत में एक प्रमुख शक्ति है, और कई क्षेत्रीय दल स्थानीय पहचान, भाषा और सांस्कृतिक भावनाओं को भुनाकर अपनी राजनीतिक स्थिति मजबूत करते हैं। क्षेत्रीय दल, जैसे कि तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK), महाराष्ट्र में शिवसेना, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (TMC), और तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति (BRS, पूर्व में TRS), स्थानीय मुद्दों को केंद्र में रखकर राजनीति करते हैं। इन दलों का मुख्य उद्देश्य अपने राज्य के हितों की रक्षा करना होता है, लेकिन कई बार वे क्षेत्रीय असंतोष को भी भड़काते हैं ताकि केंद्र सरकार के खिलाफ लोगों को लामबंद किया जा सके। जब राजनीतिक दल क्षेत्रीय पहचान को मजबूत करने के लिए इसे केंद्र सरकार के साथ संघर्ष के रूप में प्रस्तुत करते हैं, तो यह क्षेत्रीयता को और गहराई देता है।
5. भौगोलिक अलगाव (Geographical Isolation):
भारत का भौगोलिक विस्तार और विविध भौगोलिक स्थितियां भी क्षेत्रीयता के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। कुछ क्षेत्र, जैसे कि उत्तर-पूर्वी भारत, भौगोलिक रूप से बाकी देश से अलग-थलग महसूस करते हैं। सिलिगुड़ी कॉरिडोर, जिसे 'चिकन नेक' भी कहा जाता है, उत्तर-पूर्वी भारत को शेष भारत से जोड़ने वाला एक संकीर्ण मार्ग है। इस तरह की भौगोलिक चुनौतियों के कारण उत्तर-पूर्वी राज्यों में यह भावना पैदा होती है कि वे देश की मुख्यधारा से कटा हुआ क्षेत्र हैं। इसके अलावा, हिमालयी क्षेत्र, रेगिस्तानी इलाके, और समुद्र तटों से सटे राज्य भी अपने अनूठे भौगोलिक कारकों के कारण केंद्र सरकार से अधिक स्वायत्तता की मांग करते हैं। यह अलगाव न केवल भौतिक दूरी से, बल्कि राजनीतिक और सांस्कृतिक मतभेदों से भी उत्पन्न हो सकता है।
6. केंद्र सरकार का हस्तक्षेप (Central Overreach):
भारत एक संघीय व्यवस्था वाला देश है, लेकिन कई बार केंद्र सरकार द्वारा राज्यों की नीतियों में अत्यधिक हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति देखी जाती है। यह हस्तक्षेप राजनीतिक, प्रशासनिक और आर्थिक क्षेत्रों में हो सकता है। जब राज्यों को लगता है कि केंद्र सरकार उनके क्षेत्रीय हितों की उपेक्षा कर रही है, तो वहां क्षेत्रीयता की भावना और अधिक प्रबल हो जाती है। उदाहरण के लिए, हिंदी को जबरदस्ती थोपने के प्रयासों के खिलाफ दक्षिण भारत में लंबे समय से विरोध रहा है। इसके अलावा, केंद्र द्वारा राज्यों को आर्थिक संसाधनों का असमान आवंटन या केंद्रीय परियोजनाओं को थोपने जैसी नीतियां भी क्षेत्रीय असंतोष को जन्म देती हैं।
क्षेत्रीयता के स्वरूप (Manifestations of Regionalism):
1. भाषाई आंदोलन (Linguistic Movements):
भाषा क्षेत्रीयता का एक प्रमुख आधार रही है, क्योंकि यह केवल संचार का माध्यम नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान और स्वायत्तता का प्रतीक भी होती है। भाषाई अस्मिता से प्रेरित आंदोलनों ने भारत के राजनीतिक परिदृश्य को गहराई से प्रभावित किया है। 1953 में आंध्र प्रदेश की स्थापना के लिए हुआ आंदोलन इसका महत्वपूर्ण उदाहरण है। यह आंदोलन तेलुगु भाषी जनता द्वारा अलग राज्य की मांग को लेकर किया गया था और पोट्टी श्रीरामुलु के अनशन के बाद इसका परिणाम स्वरूप आंध्र प्रदेश का गठन हुआ। इसी तरह, 1965 में तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन (Anti-Hindi Agitation) शुरू हुआ, जब केंद्र सरकार ने हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में लागू करने की कोशिश की। तमिल भाषी लोगों ने इसे अपनी क्षेत्रीय पहचान के लिए खतरा माना और इसका विरोध किया। इन आंदोलनों ने भारत में भाषाई क्षेत्रीयता को मजबूत किया और राज्यों के भाषाई आधार पर पुनर्गठन को बढ़ावा दिया।
2. अलगाववादी आंदोलन (Separatist Movements):
अलगाववादी आंदोलन क्षेत्रीयता का सबसे चरम रूप होते हैं, जहां किसी क्षेत्र के लोग अपनी स्वायत्तता की मांग को लेकर सशस्त्र संघर्ष तक करने के लिए तैयार हो जाते हैं। भारत में कई अलगाववादी आंदोलनों ने लंबे समय तक अशांति फैलाई है। जम्मू और कश्मीर में लंबे समय से अलगाववादी गतिविधियां देखी गई हैं, जो राजनीतिक असंतोष, सांस्कृतिक पहचान और बाहरी हस्तक्षेप से प्रेरित हैं। इसी तरह, नागालैंड और अन्य उत्तर-पूर्वी राज्यों में भी अलगाववादी आंदोलन समय-समय पर उभरते रहे हैं, जहां आदिवासी समूहों ने अपनी सांस्कृतिक और प्रशासनिक स्वतंत्रता की मांग की है। इसके अलावा, मध्य भारत में स्थित 'रेड कॉरिडोर' में नक्सलवाद भी एक प्रकार की क्षेत्रीय असंतोष की अभिव्यक्ति है, जहां आदिवासी समुदायों और वामपंथी चरमपंथियों ने सामाजिक और आर्थिक शोषण के खिलाफ हथियार उठा लिए हैं। इन आंदोलनों की जड़ें अक्सर ऐतिहासिक उपेक्षा, आर्थिक असमानता और राजनीतिक असंतोष में होती हैं।
3. 'संस ऑफ द सॉइल' सिद्धांत (Sons-of-the-Soil Doctrine):
'संस ऑफ द सॉइल' या 'भूमिपुत्र' सिद्धांत का तात्पर्य उस विचार से है, जिसमें किसी क्षेत्र के मूल निवासियों को वहां की नौकरियों, संसाधनों और अवसरों पर प्राथमिकता देने की मांग की जाती है। यह प्रवृत्ति प्रवासियों के खिलाफ असंतोष को जन्म देती है और कभी-कभी हिंसक आंदोलनों में भी बदल जाती है। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र में शिवसेना ने मराठी लोगों को नौकरियों और व्यापार में प्राथमिकता दिलाने के लिए उत्तर भारतीय प्रवासियों का विरोध किया। इसी तरह, असम और अन्य उत्तर-पूर्वी राज्यों में भी बाहरी लोगों के खिलाफ समय-समय पर आंदोलन हुए हैं। यह क्षेत्रीय नृजातीयवाद (Ethnic Regionalism) का एक रूप है, जो आर्थिक प्रतिस्पर्धा और सांस्कृतिक असुरक्षा से प्रेरित होता है।
4. क्षेत्रीय राजनीतिक दल (Regional Political Parties):
भारतीय लोकतंत्र में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है। ये दल स्थानीय मुद्दों, सांस्कृतिक पहचान और क्षेत्रीय अस्मिता को मुख्य रूप से अपने एजेंडे में रखते हैं और अक्सर राष्ट्रीय राजनीति में भी प्रभाव डालते हैं। उदाहरण के लिए, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (TMC) बंगाली पहचान और राज्य के विकास पर केंद्रित है, जबकि ओडिशा में बीजू जनता दल (BJD) स्थानीय प्रशासन और सांस्कृतिक गौरव को प्राथमिकता देता है। इसी प्रकार, तेलंगाना राष्ट्र समिति (अब भारत राष्ट्र समिति, BRS) ने तेलंगाना राज्य के निर्माण के लिए लंबा संघर्ष किया और अब क्षेत्रीय राजनीति में मजबूत उपस्थिति बनाए हुए है। ये क्षेत्रीय दल राज्यों की समस्याओं और विकास योजनाओं पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं, लेकिन कभी-कभी इनकी नीतियां क्षेत्रीय अस्मिता को अत्यधिक प्राथमिकता देने के कारण राष्ट्रीय एकता के लिए चुनौती भी बन सकती हैं।
5. अंतर्राज्यीय विवाद (Inter-State Disputes):
क्षेत्रीयता की भावना कभी-कभी राज्यों के बीच टकराव का रूप भी ले लेती है, जिसके परिणामस्वरूप अंतर्राज्यीय विवाद पैदा होते हैं। भारत में जल संसाधनों, सीमाओं और प्रशासनिक अधिकारों को लेकर कई राज्यों के बीच लंबे समय से विवाद चले आ रहे हैं। उदाहरण के लिए, कावेरी जल विवाद (Kaveri Water Dispute) कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच एक प्रमुख संघर्ष रहा है, जहां दोनों राज्य कावेरी नदी के पानी के बंटवारे को लेकर दशकों से संघर्ष कर रहे हैं। इसी तरह, असम और मिजोरम के बीच सीमा विवाद समय-समय पर हिंसक झड़पों का कारण बनता रहा है। इन विवादों की जड़ें ऐतिहासिक सीमांकन, प्राकृतिक संसाधनों के असमान वितरण और प्रशासनिक अधिकारों को लेकर असहमति में होती हैं। जब राज्यों के बीच ऐसे टकराव बढ़ते हैं, तो यह राष्ट्रीय एकता और विकास की राह में बाधा उत्पन्न कर सकते हैं।
क्षेत्रीयता के सकारात्मक पहलू (Positive Aspects of Regionalism):
1. सांस्कृतिक संरक्षण (Cultural Preservation):
क्षेत्रीयता का सबसे महत्वपूर्ण लाभ यह है कि यह विभिन्न भाषाओं, लोक कलाओं, रीति-रिवाजों और पारंपरिक जीवनशैली को संरक्षित रखने में मदद करती है। भारत जैसे बहुसांस्कृतिक देश में प्रत्येक क्षेत्र की अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान होती है, जो उसे अन्य से अलग बनाती है। यदि क्षेत्रीयता न हो, तो मुख्यधारा की संस्कृति के प्रभाव में कई स्थानीय कलाएं और बोलियां धीरे-धीरे विलुप्त हो सकती हैं। क्षेत्रीयता के कारण लोग अपनी जड़ों से जुड़े रहते हैं, पारंपरिक त्यौहारों और लोककथाओं को आगे बढ़ाते हैं तथा स्थानीय साहित्य, नृत्य और संगीत को संजोने का प्रयास करते हैं।
2. विकेंद्रीकृत शासन (Decentralized Governance):
क्षेत्रीयता लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करती है, क्योंकि यह विकेंद्रीकरण (Decentralization) की प्रक्रिया को बढ़ावा देती है। एक केंद्रीकृत शासन प्रणाली में स्थानीय आवश्यकताओं और समस्याओं को नजरअंदाज किए जाने की संभावना रहती है, लेकिन क्षेत्रीयता राज्यों को अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप नीति-निर्माण और विकास कार्यों की स्वतंत्रता प्रदान करती है। उदाहरण के लिए, किसी राज्य की भौगोलिक परिस्थिति, आर्थिक स्थिति और सामाजिक ढांचा भिन्न होता है, इसलिए वहां की सरकार को विशेष योजनाएं और कार्यक्रम लागू करने की आवश्यकता होती है। क्षेत्रीयता की भावना राज्यों को आत्मनिर्भर बनाती है और स्थानीय प्रशासन को प्रभावी ढंग से कार्य करने में मदद करती है।
3. राजनीतिक प्रतिनिधित्व (Political Representation):
भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में क्षेत्रीय राजनीति महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, क्योंकि यह उन समुदायों और क्षेत्रों को राजनीतिक आवाज़ देती है जो राष्ट्रीय स्तर पर कम प्रतिनिधित्व प्राप्त करते हैं। उत्तर-पूर्व भारत, जम्मू-कश्मीर, लद्दाख और आंतरिक आदिवासी क्षेत्र जैसे हाशिए पर पड़े क्षेत्रों की समस्याएं राष्ट्रीय स्तर तक तभी पहुंच पाती हैं जब वहां के क्षेत्रीय नेता, दल और संगठन अपनी मांगें सरकार के समक्ष रखते हैं। क्षेत्रीय राजनीति के कारण केंद्र सरकार को इन क्षेत्रों के विकास और उनकी आकांक्षाओं को ध्यान में रखना पड़ता है। इसके अलावा, यह स्थानीय स्तर पर नेतृत्व को बढ़ावा देती है और लोकतंत्र को अधिक समावेशी बनाती है।
क्षेत्रीयता के नकारात्मक प्रभाव (Negative Impacts of Regionalism):
1. राष्ट्रीय एकता को खतरा (Threat to National Unity):
हालांकि क्षेत्रीयता सांस्कृतिक संरक्षण और स्थानीय स्वायत्तता के लिए आवश्यक है, लेकिन जब यह अतिरेकी रूप ले लेती है, तो यह राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा बन सकती है। जब कोई क्षेत्रीय समूह अपने सांस्कृतिक या राजनीतिक अधिकारों को राष्ट्रीय हित से ऊपर रखने लगता है, तब अलगाववादी प्रवृत्तियां जन्म लेती हैं। उदाहरण के लिए, 1980 के दशक में खालिस्तान आंदोलन के तहत कुछ संगठनों ने पंजाब को भारत से अलग करने की मांग की थी। इसी तरह, भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में समय-समय पर अलगाववादी आंदोलनों की मांग उठती रही है। इस प्रकार की क्षेत्रीय संकीर्णता से देश की अखंडता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
2. आर्थिक विखंडन (Economic Fragmentation):
क्षेत्रीयता के कारण कुछ स्थानों पर क्षेत्रीय संरक्षणवाद (Regional Protectionism) की प्रवृत्ति बढ़ सकती है, जिससे देश की समग्र आर्थिक प्रगति प्रभावित होती है। जब कोई राज्य या क्षेत्र बाहरी लोगों को अपने यहां नौकरी, व्यापार या अन्य आर्थिक अवसरों से वंचित करने का प्रयास करता है, तो यह राष्ट्रीय एकीकरण में बाधा डालता है। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र में 'मराठी मानुष' अभियान या असम में बाहरी लोगों के विरुद्ध आंदोलनों के कारण विभिन्न समुदायों के बीच मतभेद बढ़ते हैं। इससे न केवल आर्थिक गतिविधियों में गिरावट आती है, बल्कि राष्ट्रीय बाजार में भी असंतुलन पैदा होता है।
3. सांप्रदायिक और जातीय तनाव (Communal and Ethnic Tensions):
कई बार क्षेत्रीयता धार्मिक, जातीय या भाषाई पहचान के साथ मिलकर सांप्रदायिक तनाव को जन्म देती है। जब कोई क्षेत्रीय समूह अपनी संस्कृति, भाषा या धर्म को श्रेष्ठ मानकर अन्य समुदायों के प्रति असहिष्णु रवैया अपनाने लगता है, तो इससे सामाजिक समरसता प्रभावित होती है। उदाहरण के लिए, कुछ राज्यों में स्थानीय बनाम बाहरी प्रवासियों के मुद्दे को लेकर हिंसक संघर्ष होते रहे हैं। ऐसे संघर्ष समाज में अस्थिरता और अविश्वास का माहौल पैदा करते हैं, जो अंततः राष्ट्रीय एकता को कमजोर कर सकता है।
4. नीति-निर्धारण में बाधा (Policy Paralysis):
क्षेत्रीयता के कारण कई बार राष्ट्रीय स्तर पर नीतिगत फैसलों को लागू करने में कठिनाई होती है। जब विभिन्न राज्यों की प्राथमिकताएं अलग-अलग होती हैं, तो कई बार केंद्र सरकार की योजनाओं को सभी राज्यों में समान रूप से लागू कर पाना मुश्किल हो जाता है। उदाहरण के लिए, जल संसाधनों के बंटवारे को लेकर विभिन्न राज्यों के बीच विवाद उत्पन्न होते रहे हैं, जैसे कि कावेरी जल विवाद, सतलुज-यमुना लिंक विवाद आदि। ऐसी स्थितियों में नीतिगत निर्णय लेने में देरी होती है, जिससे राष्ट्रीय विकास प्रक्रिया बाधित होती है।
सरकार की प्रतिक्रिया (Government Response to Regionalism):
1. भाषाई पुनर्गठन (Linguistic Reorganization):
स्वतंत्रता के बाद भारत में क्षेत्रीयता के एक प्रमुख पहलू को संबोधित करने के लिए 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम (States Reorganisation Act) लागू किया गया। इस अधिनियम के तहत भारत के राज्यों का पुनर्गठन भाषाई आधार पर किया गया, जिससे लोगों को अपनी मातृभाषा में प्रशासनिक सुविधाएं प्राप्त हो सकीं। यह एक महत्वपूर्ण कदम था, जिससे क्षेत्रीय असंतोष को कम करने में मदद मिली और प्रशासनिक दक्षता बढ़ी।
2. संघीय संरचना (Federal Structure):
संविधान ने भारत में एक मजबूत संघीय ढांचा प्रदान किया है, जिसमें केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का संतुलन सुनिश्चित किया गया है। वित्त आयोग जैसे संवैधानिक निकाय राज्यों को वित्तीय संसाधनों का उचित आवंटन सुनिश्चित करते हैं, जिससे सभी क्षेत्रों का समान विकास हो सके। पंचायती राज प्रणाली और स्थानीय स्वशासन को बढ़ावा देने से भी क्षेत्रीय असंतुलन को कम करने में मदद मिली है।
3. विशेष दर्जा (Special Status):
भारत सरकार ने समय-समय पर संवैधानिक प्रावधानों के माध्यम से क्षेत्रीय आकांक्षाओं को संतुलित करने का प्रयास किया है। अनुच्छेद 370 (जो 2019 में हटा दिया गया) जम्मू-कश्मीर को विशेष स्वायत्तता प्रदान करता था, जबकि अनुच्छेद 371 भारत के विभिन्न राज्यों को विशेष प्रावधानों के तहत सांस्कृतिक, आर्थिक और प्रशासनिक संरक्षण प्रदान करता है। इससे क्षेत्रीय असंतोष को दूर करने में सहायता मिली है।
4. विकास पहल (Development Initiatives):
सरकार ने आर्थिक असमानता को कम करने और पिछड़े क्षेत्रों के विकास के लिए कई योजनाएं लागू की हैं, जैसे "आकांक्षी जिले" (Aspirational Districts) कार्यक्रम, जो विशेष रूप से पिछड़े जिलों को तेजी से विकसित करने पर केंद्रित है। इसके अलावा, पूर्वोत्तर और आदिवासी क्षेत्रों के लिए विशेष आर्थिक पैकेज और औद्योगिक प्रोत्साहन योजनाएं चलाई जा रही हैं।
निष्कर्ष (Conclusion):
क्षेत्रीयता भारत की सांस्कृतिक विविधता और लोकतांत्रिक प्रणाली का एक अभिन्न अंग है। यह स्थानीय पहचान, स्वायत्तता और आर्थिक विकास को बढ़ावा देती है, लेकिन जब यह अत्यधिक रूप ले लेती है, तो यह राष्ट्रीय एकता और समावेशी विकास में बाधा बन सकती है। सरकार को ऐसे संतुलित नीतिगत उपाय अपनाने चाहिए जो क्षेत्रीय आकांक्षाओं और राष्ट्रीय हितों के बीच समन्वय स्थापित कर सकें। "विविधता में एकता" की भारतीय अवधारणा को बनाए रखने के लिए क्षेत्रीयता का समुचित प्रबंधन आवश्यक है, ताकि देश समावेशी विकास के मार्ग पर निरंतर आगे बढ़ सके।
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