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Political Thoughts of Pandit Jawaharlal Nehru पंडित जवाहरलाल नेहरू की राजनीतिक विचारधारा


पंडित जवाहरलाल नेहरू, भारत के पहले प्रधानमंत्री, एक दूरदर्शी नेता थे जिनके योगदान ने देश के राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य को गहराई से प्रभावित किया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक प्रमुख भूमिका निभाने वाले नेहरू लोकतांत्रिक मूल्यों, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और वैश्विक सहयोग के प्रति प्रतिबद्ध थे। उनकी राजनीतिक विचारधारा पश्चिमी शिक्षा, जहां उन्हें उदारवादी और समाजवादी विचारों का परिचय मिला, और महात्मा गांधी के साथ उनके घनिष्ठ संबंध से प्रभावित थी, जिन्होंने उनके अहिंसक आंदोलन और जनसंग्रहण के दृष्टिकोण को आकार दिया। नेहरू ने भारत को एक आधुनिक, प्रगतिशील और आत्मनिर्भर राष्ट्र के रूप में विकसित करने की कल्पना की थी। वे लोकतंत्र को शासन की आधारशिला मानते थे और एक संसदीय प्रणाली स्थापित करने के लिए कार्यरत रहे, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समान अधिकारों की रक्षा करे। धर्मनिरपेक्षता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ने यह सुनिश्चित किया कि भारत एक ऐसा राष्ट्र बना रहे जहां सभी धार्मिक और सांस्कृतिक समुदाय शांति और सद्भाव के साथ रह सकें। आर्थिक दृष्टि से, उन्होंने मिश्रित अर्थव्यवस्था की वकालत की, जिसमें राज्य-प्रेरित औद्योगीकरण और आर्थिक नियोजन राष्ट्रीय विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएं। वैश्विक स्तर पर, नेहरू अंतर्राष्ट्रीयतावाद और गुटनिरपेक्षता के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसका उद्देश्य नवस्वतंत्र देशों को शीत युद्ध की महाशक्तियों के प्रभाव से मुक्त रखना था। उनकी विदेश नीति शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, कूटनीतिक संवाद और विश्वभर के उपनिवेश-विरोधी आंदोलनों के समर्थन पर आधारित थी। अपने नेतृत्व के माध्यम से, नेहरू ने आधुनिक भारत की नींव रखी, जिसमें वैज्ञानिक सोच, शिक्षा सुधार और बुनियादी ढांचे के विकास को प्राथमिकता दी गई। उनके विचार आज भी भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था और सामाजिक-आर्थिक नीतियों को प्रभावित करते हैं, जिससे वे स्वतंत्र भारत के सबसे महत्वपूर्ण शिल्पकारों में से एक बन गए।

1. लोकतंत्र और संसदीय प्रणाली (Democracy and Parliamentary System):

पंडित जवाहरलाल नेहरू लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति गहरी आस्था रखते थे और उन्होंने भारत में एक सशक्त संसदीय प्रणाली की स्थापना को अपनी प्राथमिकताओं में शामिल किया। उनके लिए लोकतंत्र केवल एक शासन प्रणाली नहीं, बल्कि नागरिकों के विचारों, अधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आधारित एक सामाजिक संरचना थी। वे मानते थे कि एक सफल लोकतंत्र तभी संभव है जब प्रत्येक नागरिक को समान अवसर मिले और उसकी आवाज़ को सुना जाए। नेहरू ने भारत में वेस्टमिंस्टर मॉडल को अपनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे एक स्थायी और उत्तरदायी लोकतांत्रिक ढांचे की नींव रखी जा सके। उन्होंने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार को सुनिश्चित किया, जिससे जाति, धर्म, लिंग या आर्थिक स्थिति के भेदभाव के बिना प्रत्येक नागरिक को अपने मताधिकार का प्रयोग करने का अधिकार मिला। उनका मानना था कि लोकतंत्र केवल चुनावों तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि यह नागरिक स्वतंत्रता, समावेशिता और समानता के व्यापक सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए। व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए नेहरू ने भारतीय संविधान में इन मूल्यों को स्थापित करने पर विशेष जोर दिया। उन्होंने संस्थागत लोकतंत्र को सुदृढ़ करने के लिए न्यायपालिका की स्वतंत्रता, प्रेस की स्वायत्तता और बहुदलीय प्रणाली को बढ़ावा दिया। वे इस बात पर विश्वास करते थे कि एक स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए अनिवार्य है, जबकि एक स्वतंत्र प्रेस लोकतंत्र की पारदर्शिता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसके अलावा, नेहरू का मानना था कि एक मजबूत लोकतांत्रिक प्रणाली में विविध विचारों का सम्मान किया जाना चाहिए और सरकार को जनता के प्रति जवाबदेह बनाना चाहिए। उन्होंने नागरिक समाज और सार्वजनिक भागीदारी को प्रोत्साहित किया ताकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया केवल राजनेताओं और प्रशासकों तक सीमित न रहे, बल्कि आम जनता भी नीति-निर्माण में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर सके। उनके विचारों और नीतियों ने भारत में लोकतंत्र की जड़ों को गहरा करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिससे यह एक जीवंत और सशक्त प्रणाली बन सकी।

2. धर्मनिरपेक्षता और धार्मिक सहिष्णुता (Secularism and Religious Tolerance):

जवाहरलाल नेहरू ने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, और यह दृष्टिकोण देश के संवैधानिक ढांचे में गहराई से समाहित है। उनका धर्मनिरपेक्षता का विचार धर्म के खंडन या अस्वीकार पर आधारित नहीं था, बल्कि यह इस सिद्धांत पर केंद्रित था कि राज्य सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान और समान व्यवहार करे। उनका मानना था कि सरकार को किसी भी विशेष धर्म का पक्ष नहीं लेना चाहिए और धार्मिक मामलों में तटस्थ रहना चाहिए, ताकि एक विविधतापूर्ण समाज में सामंजस्य बना रहे। नेहरू सांप्रदायिकता और धार्मिक कट्टरता को राष्ट्रीय एकता के लिए बड़े खतरे के रूप में देखते थे और एक समावेशी राष्ट्रीय पहचान को बढ़ावा देने के लिए निरंतर प्रयासरत रहे, जो धर्म से परे हो। उन्होंने शासन में धार्मिक तटस्थता सुनिश्चित करने के साथ-साथ नागरिकों में वैज्ञानिक सोच को भी प्रोत्साहित किया। वे तर्कसंगत विचार और विवेकशीलता को बढ़ावा देने के पक्षधर थे, ताकि लोग अंधविश्वास और रूढ़ियों से मुक्त होकर आधुनिक सोच को अपनाएं। उनकी धर्मनिरपेक्ष विचारधारा उन नीतियों में परिलक्षित होती थी, जो समाज का आधुनिकीकरण करने के साथ-साथ भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विविधता को भी संरक्षित करती थीं। हालांकि, समय के साथ उनके धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण पर चर्चाएं और बहसें होती रही हैं, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि इसने भारत के बहुलतावादी लोकतंत्र को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जहां विभिन्न धर्मों के लोग आपसी सम्मान और संवैधानिक सुरक्षा के साथ सह-अस्तित्व में रह सकते हैं।

3. समाजवाद और आर्थिक योजना (Socialism and Economic Planning):

जवाहरलाल नेहरू समाजवादी सिद्धांतों, विशेष रूप से सोवियत संघ के राज्य-नियंत्रित विकास मॉडल से गहराई से प्रभावित थे। उन्होंने एक मिश्रित अर्थव्यवस्था की परिकल्पना की, जहां सार्वजनिक और निजी क्षेत्र दोनों का सह-अस्तित्व हो, ताकि आर्थिक विकास सुनिश्चित किया जा सके और सामाजिक न्याय बनाए रखा जा सके। उनका मानना था कि यदि पूंजीवाद को बिना किसी नियंत्रण के छोड़ दिया जाए, तो इससे आर्थिक असमानता बढ़ सकती है। इसलिए, उन्होंने संसाधनों के समान वितरण को सुनिश्चित करने के लिए राज्य के हस्तक्षेप को आवश्यक माना। इस दृष्टिकोण को साकार करने के लिए, नेहरू ने योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था की नींव रखी और पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत की, जिनका उद्देश्य संरचित और व्यवस्थित आर्थिक विकास था। उन्होंने आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के साधन के रूप में औद्योगीकरण को प्राथमिकता दी और भारी उद्योगों, बुनियादी ढांचे के विकास, वैज्ञानिक अनुसंधान और प्रौद्योगिकी में निवेश पर ध्यान केंद्रित किया। उनकी नीतियों के तहत इस्पात, ऊर्जा और परिवहन जैसे क्षेत्रों में बड़े सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना हुई, जिसने भारत के प्रारंभिक आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। औद्योगीकरण के साथ-साथ, नेहरू ने किसानों को सशक्त बनाने और सामंती संरचनाओं को खत्म करने के लिए भूमि सुधारों को भी बढ़ावा दिया। उनकी सरकार ने जमींदारी प्रथा को समाप्त करने, भूमिहीन किसानों में भूमि का पुनर्वितरण करने और कृषि उत्पादकता में सुधार लाने के लिए कई कदम उठाए। इन सुधारों का उद्देश्य आर्थिक असमानता को कम करना और वंचित वर्गों के सामाजिक उत्थान को सुनिश्चित करना था। हालांकि, उनकी समाजवादी नीतियों के परिणाम मिश्रित रहे। एक ओर, उन्होंने एक मजबूत सार्वजनिक क्षेत्र का निर्माण किया और औद्योगिक विकास को गति दी, तो दूसरी ओर, वे नौकरशाही की अक्षमता, लालफीताशाही और धीमी निर्णय प्रक्रिया की वजह से चुनौतियों का सामना करने लगे। राज्य-नियंत्रित अर्थव्यवस्था पर अधिक निर्भरता के कारण निजी उद्यम और नवाचार में बाधा उत्पन्न हुई। बावजूद इसके, नेहरू की आर्थिक नीतियों ने भारत के दीर्घकालिक विकास की नींव रखी और देश के औद्योगिक और कृषि परिदृश्य को दशकों तक प्रभावित किया। उनकी आर्थिक योजना को लेकर आज भी बहस जारी है—कुछ लोग इसे भारत के प्रारंभिक विकास का आधार मानते हैं, तो कुछ इसे उन नीतियों के रूप में देखते हैं, जिन्होंने तीव्र प्रगति में बाधा उत्पन्न की।

4. गुटनिरपेक्षता और अंतरराष्ट्रीयवाद (Non-Alignment and Internationalism):

जवाहरलाल नेहरू की विदेश नीति गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत पर आधारित थी, जिसका अर्थ था कि भारत शीत युद्ध के दौरान किसी भी सैन्य गठबंधन का हिस्सा नहीं बनेगा। अमेरिका और सोवियत संघ में से किसी एक के साथ संधि करने के बजाय, भारत ने अंतरराष्ट्रीय मामलों में अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने का मार्ग अपनाया। नेहरू ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसका उद्देश्य नवस्वतंत्र राष्ट्रों को महाशक्तियों के प्रभाव से मुक्त रखना था। उनकी सोच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व पर आधारित थी, जिसमें सैन्य टकराव की बजाय कूटनीति और आपसी सहयोग को प्राथमिकता दी गई। नेहरू ने वैश्विक संघर्षों को संवाद और बहुपक्षीय भागीदारी के माध्यम से हल करने की वकालत की। उनके नेतृत्व में भारत संयुक्त राष्ट्र सहित विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संगठनों में सक्रिय भूमिका निभाने लगा और उपनिवेशवाद के विरोध, निरस्त्रीकरण और विकासशील देशों के बीच आर्थिक सहयोग को बढ़ावा दिया। हालांकि, उनकी आदर्शवादी विदेश नीति को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, विशेष रूप से 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान। उन्होंने कूटनीति और शांतिपूर्ण समाधान को प्राथमिकता दी थी, जिससे भारत सैन्य रूप से तैयार नहीं था और युद्ध में उसे कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इस घटना ने यह स्पष्ट किया कि गुटनिरपेक्षता की नीति प्रत्यक्ष सैन्य खतरों से निपटने में सीमित हो सकती है। इसके बावजूद, नेहरू की नीतियों ने भारत की स्वतंत्र विदेश नीति की नींव रखी और आने वाले दशकों तक इसकी वैश्विक रणनीति को प्रभावित किया।

5. विज्ञान, शिक्षा और आधुनिकीकरण (Science, Education, and Modernization):

जवाहरलाल नेहरू विज्ञान और आधुनिकीकरण के प्रबल समर्थक थे और उन्होंने इन्हें राष्ट्रीय विकास के महत्वपूर्ण कारक माना। उनका विश्वास था कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बिना भारत आत्मनिर्भर नहीं बन सकता। इसी सोच के तहत उन्होंने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT), भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM) और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों की स्थापना की, ताकि देश को एक कुशल और शिक्षित कार्यबल मिल सके। उन्होंने वैज्ञानिक अनुसंधान को भी बढ़ावा दिया और वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) को मजबूत किया। साथ ही, उन्होंने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) की नींव रखने में भी योगदान दिया। उनके प्रयासों का उद्देश्य वैज्ञानिक सोच और नवाचार की संस्कृति को विकसित करना था, जो तकनीकी प्रगति और औद्योगिक विकास के लिए आवश्यक था। शिक्षा के क्षेत्र में नेहरू ने सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा को प्राथमिकता दी और उच्च शिक्षा संस्थानों को भी बढ़ावा दिया। वे समाज में तर्कसंगत सोच और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करने में विश्वास रखते थे। उनकी नीतियों ने भारत में विज्ञान, उद्योग और शिक्षा के क्षेत्र में मजबूती प्रदान की, जिससे देश के आधुनिकीकरण और तकनीकी विकास में महत्वपूर्ण योगदान मिला।

6. राष्ट्रीय एकता और अखंडता (National Integration and Unity):

भारत की स्वतंत्रता के बाद, जब देश विभाजन के कारण गहरे सामाजिक और सांस्कृतिक संघर्षों से गुजर रहा था, तब जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय एकता और अखंडता को सुदृढ़ करने का प्रयास किया। उन्होंने भारत की बहुलतावादी पहचान को संरक्षित रखते हुए एक मजबूत और समावेशी राष्ट्र बनाने की दिशा में काम किया। उनके नेतृत्व में राज्यों का भाषाई पुनर्गठन किया गया, जिससे क्षेत्रीय पहचान को मान्यता मिली, लेकिन साथ ही राष्ट्रीय एकता भी बनी रही। यह कदम विविधता को स्वीकार करने और उसे भारत की ताकत में बदलने की उनकी सोच को दर्शाता है। नेहरू सामाजिक समरसता के प्रबल समर्थक थे और उन्होंने जातिगत भेदभाव को खत्म करने तथा सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने पर विशेष ध्यान दिया। उनकी सरकार ने अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए विभिन्न नीतियों को लागू किया। उन्होंने आदिवासी विकास और अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा के लिए विशेष कार्यक्रम शुरू किए, जिससे सभी समुदायों को समान अवसर मिल सके। उनकी विचारधारा "अनेकता में एकता" की भावना पर आधारित थी, जिसे उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद की एक प्रमुख विशेषता के रूप में स्थापित किया। उनका विश्वास था कि भारत की विविध सांस्कृतिक, भाषाई और सामाजिक संरचना को एक सकारात्मक शक्ति के रूप में देखा जाना चाहिए। उनके नेतृत्व में अपनाई गई नीतियों ने देश को एकजुट रखने और लोकतांत्रिक मूल्यों को सशक्त बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

निष्कर्ष (Conclusion):

पंडित जवाहरलाल नेहरू के राजनीतिक विचारों ने आधुनिक भारत की नींव रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लोकतंत्र के प्रति उनकी गहरी आस्था ने एक संसदीय प्रणाली की स्थापना सुनिश्चित की, जो स्वतंत्रता, समानता और न्याय के मूल्यों को बनाए रखती है। धर्मनिरपेक्षता के प्रबल समर्थक होने के नाते, उन्होंने एक बहुसांस्कृतिक समाज को बढ़ावा दिया, जहाँ विभिन्न धर्मों के लोग शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व में रह सकें। नेहरू की समाजवादी नीति राज्य-नियंत्रित आर्थिक योजनाओं पर केंद्रित थी, जिसका उद्देश्य असमानताओं को कम करना और औद्योगिक विकास को बढ़ावा देना था। इसके साथ ही, उन्होंने वैज्ञानिक सोच और तकनीकी प्रगति पर जोर दिया, जिससे भारत की शिक्षा, अनुसंधान और नवाचार के क्षेत्र में मजबूती आई। उनके ये सिद्धांत देश के विकास में सहायक बने और आज भी भारत की शासन व्यवस्था को प्रभावित करते हैं। हालाँकि, उनके योगदान के बावजूद, उनकी नीतियों की आलोचना भी हुई। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि उनकी अर्थव्यवस्था संबंधी नीतियाँ, जो मुख्य रूप से राज्य नियंत्रण पर आधारित थीं, निजी क्षेत्र की प्रगति में बाधा बनीं और प्रशासनिक जटिलताओं को जन्म दिया। इसी तरह, कश्मीर विवाद और भारत-चीन संबंधों को संभालने की उनकी नीति आज भी बहस का विषय बनी हुई है। बावजूद इसके, भारत के निर्माण के महत्वपूर्ण वर्षों में उनकी नेतृत्व क्षमता ने लोकतांत्रिक संस्थानों को सुदृढ़ किया और शासन प्रणाली को मजबूत बनाया। नेहरू का दृष्टिकोण आज भी नीति-निर्माताओं और बुद्धिजीवियों को प्रेरित करता है, जिससे उनकी विरासत भारत के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विकास का अभिन्न अंग बनी हुई है। समय के साथ उनके विचारों में बदलाव आया है, लेकिन वे आज भी एक प्रगतिशील और गतिशील राष्ट्र के लिए मार्गदर्शक बने हुए हैं।

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