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Amendment process in the Indian Constitution भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया


भारतीय संविधान को उसकी संशोधन प्रक्रिया के आधार पर लचीला और कठोर, दोनों ही माना जा सकता है। इसकी संरचना कुछ ऐसी है कि इसमें समयानुसार आवश्यक परिवर्तन किए जा सकते हैं, फिर भी इसकी मूल संरचना को सुरक्षित रखने के लिए कुछ सख्त प्रावधान भी मौजूद हैं। कुछ संशोधन ऐसे होते हैं जिन्हें साधारण विधायी प्रक्रिया के तहत संसद में सरलता से पारित किया जा सकता है, जबकि कुछ मामलों में जटिल और बहु-स्तरीय प्रक्रिया अपनाई जाती है, जिसमें संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है और कई बार राज्यों की सहमति भी अनिवार्य होती है। संविधान के अनुच्छेद 368 में संशोधन की पूरी विधि विस्तारपूर्वक दी गई है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि संवैधानिक परिवर्तन न्यायसंगत और सुविचारित हों। इस प्रक्रिया को इस प्रकार डिजाइन किया गया है कि भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली संतुलित बनी रहे और बदलते समय की आवश्यकताओं के अनुरूप संविधान को प्रासंगिक बनाए रखा जा सके। संशोधन की यह प्रक्रिया यह भी सुनिश्चित करती है कि नीतिगत परिवर्तन संवैधानिक मूल्यों और अधिकारों को बनाए रखते हुए किए जाएं। संविधान के कुछ हिस्सों में संशोधन करने के लिए केवल साधारण बहुमत की आवश्यकता होती है, जिससे प्रशासनिक और तकनीकी बदलाव सरलता से लागू किए जा सकें। वहीं, संघीय ढांचे, न्यायपालिका, मौलिक अधिकारों और राज्यों के अधिकारों से जुड़े प्रावधानों में बदलाव के लिए विशेष बहुमत और राज्यों की सहमति आवश्यक होती है, ताकि संघीय ढांचे की स्थिरता बनी रहे और सभी पक्षों के हितों की रक्षा की जा सके। इस संतुलित दृष्टिकोण के कारण भारतीय संविधान समय के साथ विकसित होते हुए भी अपनी मूल भावना को सुरक्षित रखता है।

संविधान संशोधन की प्रक्रिया को मुख्य रूप से तीन भागों में विभाजित किया गया है:

1. साधारण बहुमत द्वारा संशोधन
2. विशेष बहुमत द्वारा संशोधन
3. विशेष बहुमत एवं राज्यों की सहमति द्वारा संशोधन

1. साधारण बहुमत द्वारा संशोधन

साधारण बहुमत द्वारा संशोधन संविधान में किए जाने वाले उन परिवर्तनों की प्रक्रिया है, जिनमें संसद के दोनों सदनों में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के साधारण बहुमत (50%+1) की आवश्यकता होती है। हालांकि, इस प्रकार के संशोधन को संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत औपचारिक संशोधन प्रक्रिया में शामिल नहीं किया गया है, क्योंकि यह प्रक्रिया अपेक्षाकृत सरल और त्वरित होती है। ऐसे संशोधन मुख्य रूप से प्रशासनिक एवं कार्यकारी विषयों से जुड़े होते हैं, जो संविधान की मूल संरचना को प्रभावित नहीं करते। यह प्रक्रिया विधायी कार्यों को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए अपनाई जाती है और इसमें गहन चर्चा या जटिल प्रक्रियाओं की आवश्यकता नहीं होती। साधारण बहुमत द्वारा संशोधन का उपयोग संसद के कार्य संचालन नियमों, सदनों की कार्यप्रणाली, तथा चुनावों से संबंधित प्रक्रियाओं में बदलाव के लिए किया जाता है। इसके अलावा, लोकसभा एवं राज्यसभा के सदस्यों की संख्या में परिवर्तन, राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के पुनर्गठन, एवं अनुसूचित क्षेत्रों से संबंधित प्रावधानों में संशोधन भी इसी प्रक्रिया के तहत किए जाते हैं। यह प्रक्रिया संविधान के संघीय ढांचे या नागरिकों के मौलिक अधिकारों को प्रभावित नहीं करती, बल्कि केवल प्रशासनिक व्यवस्था को अधिक प्रभावी बनाने के उद्देश्य से की जाती है। इसका मुख्य उद्देश्य संवैधानिक शासन को लचीला बनाए रखना और समय-समय पर आवश्यक परिवर्तनों को बिना किसी जटिलता के लागू करना है।

2. विशेष बहुमत द्वारा संशोधन

संविधान में कुछ ऐसे प्रावधान हैं, जिनमें संशोधन करने के लिए संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। इस प्रक्रिया के तहत, संशोधन प्रस्ताव को पारित करने के लिए उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत के साथ-साथ संसद की कुल सदस्यता के कम से कम 50% सदस्यों का समर्थन अनिवार्य होता है। यह विधि अपेक्षाकृत अधिक जटिल है और इसका उपयोग उन संवैधानिक प्रावधानों में बदलाव करने के लिए किया जाता है, जो शासन की मूलभूत संरचना और देश के संवैधानिक मूल्यों से जुड़े होते हैं।

  • विशेष बहुमत द्वारा संशोधन प्रक्रिया का उपयोग निम्नलिखित मामलों में किया जाता है:
  • मौलिक अधिकारों (भाग 3) में संशोधन: नागरिकों के मूलभूत अधिकारों में किसी भी प्रकार के परिवर्तन के लिए इस प्रक्रिया का पालन किया जाता है।
  • नीति निदेशक तत्व (भाग 4) में संशोधन: सरकार के नीति-निर्माण से संबंधित दिशानिर्देशों में संशोधन के लिए विशेष बहुमत आवश्यक होता है।
  • संसद एवं राज्य विधानमंडलों की शक्तियों में बदलाव: केंद्र और राज्य सरकारों के अधिकारों एवं उनकी विधायी शक्तियों में परिवर्तन करने के लिए इस प्रक्रिया का पालन किया जाता है।
  • राष्ट्रपति एवं राज्यपालों की शक्तियों में संशोधन: कार्यपालिका प्रमुखों की भूमिका, शक्तियाँ और उत्तरदायित्वों में किसी भी प्रकार का परिवर्तन करने के लिए विशेष बहुमत आवश्यक होता है।
  • न्यायपालिका से जुड़े प्रावधानों में संशोधन: सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की संरचना, अधिकार-क्षेत्र, शक्तियाँ, न्यायाधीशों की नियुक्ति और कार्यकाल से संबंधित किसी भी संशोधन को लागू करने के लिए यह प्रक्रिया अपनाई जाती है।
विशेष बहुमत द्वारा संशोधन की यह प्रक्रिया यह सुनिश्चित करती है कि संविधान के महत्वपूर्ण प्रावधानों में बदलाव करने से पहले व्यापक विचार-विमर्श हो और किसी भी राजनीतिक दल या सरकार को इन संवेदनशील प्रावधानों को मनमाने ढंग से बदलने का अवसर न मिले। इससे संविधान की स्थिरता बनी रहती है और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा होती है।

3. विशेष बहुमत एवं राज्यों की सहमति द्वारा संशोधन

संविधान के कुछ प्रावधान इतने महत्वपूर्ण होते हैं कि उनमें संशोधन करने के लिए संसद के विशेष बहुमत के अलावा राज्यों की सहमति भी आवश्यक होती है। ऐसे संशोधन भारतीय संघीय व्यवस्था की मूलभूत संरचना को प्रभावित करते हैं, इसलिए इन पर केवल संसद के स्तर पर निर्णय नहीं लिया जा सकता। इस प्रक्रिया के तहत, संशोधन विधेयक को संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत से पारित किया जाना आवश्यक होता है, साथ ही इसे कम से कम आधे राज्यों की विधानसभाओं से भी अनुमोदन प्राप्त होना चाहिए।

यह विधि उन संवैधानिक प्रावधानों में संशोधन के लिए अपनाई जाती है, जो केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के संतुलन से संबंधित होते हैं। इनमें निम्नलिखित प्रमुख प्रावधान शामिल हैं:

  • राष्ट्रपति और राज्यपालों की शक्तियाँ: कार्यपालिका प्रमुखों की भूमिका, उनके अधिकारों और कार्यक्षेत्र में किसी भी प्रकार के संशोधन के लिए राज्यों की सहमति आवश्यक होती है।
  • न्यायपालिका से जुड़े प्रावधान: उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों की संरचना, शक्तियाँ और क्षेत्राधिकार में परिवर्तन करने के लिए यह प्रक्रिया अपनाई जाती है।
  • संघीय ढांचे से संबंधित विषय: केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के विभाजन, संघ सूची एवं राज्य सूची में परिवर्तन या पुनर्व्याख्या के लिए राज्यों की मंजूरी अनिवार्य होती है।
  • राज्यसभा में राज्यों के प्रतिनिधित्व से जुड़े प्रावधान: राज्यसभा में राज्यों की सीटों की संख्या या उनके प्रतिनिधित्व की व्यवस्था में किसी भी प्रकार के संशोधन के लिए राज्य विधानसभाओं की सहमति आवश्यक होती है।
  • संविधान संशोधन की प्रक्रिया (अनुच्छेद 368): यदि संविधान संशोधन की प्रक्रिया में ही कोई परिवर्तन किया जाना हो, तो यह संशोधन भी राज्यों की सहमति के बिना संभव नहीं होता।

यह प्रक्रिया संघीय व्यवस्था की स्थिरता बनाए रखने के लिए अत्यंत आवश्यक है। यह सुनिश्चित करती है कि राज्यों के अधिकारों और शक्तियों में कोई भी बदलाव उनकी सहमति के बिना न किया जाए। इससे संविधान का संतुलन बना रहता है और केंद्र तथा राज्यों के बीच परस्पर सहयोग को बढ़ावा मिलता है।


संविधान संशोधन की प्रक्रिया

भारतीय संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित और चरणबद्ध तरीके से लागू किया जाता है, ताकि किसी भी बदलाव को उचित विचार-विमर्श और संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार किया जा सके। संविधान संशोधन की विधायी प्रक्रिया निम्नलिखित चरणों में विभाजित की जाती है:

1. संशोधन विधेयक का प्रस्ताव

संविधान में संशोधन करने के लिए एक विधेयक संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है। यह विधेयक सरकार (मंत्रिपरिषद) या किसी भी सांसद द्वारा पेश किया जा सकता है। अन्य विधायी प्रक्रियाओं की तुलना में, संविधान संशोधन विधेयक को पेश करने से पहले किसी भी पूर्व अनुशंसा (जैसे राष्ट्रपति की स्वीकृति) की आवश्यकता नहीं होती।

एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि यह विधेयक मनी बिल (धन विधेयक) या साधारण विधेयक की तरह राज्यसभा द्वारा रोका नहीं जा सकता। इसका अर्थ यह है कि राज्यसभा के पास इसे अस्वीकार करने की शक्ति नहीं होती, बल्कि वह केवल इस पर चर्चा कर सकती है और अपने सुझाव दे सकती है। यदि किसी कारण से यह विधेयक एक सदन द्वारा अस्वीकार कर दिया जाता है, तो संयुक्त सत्र बुलाने का प्रावधान भी नहीं होता।

2. संसद में पारित करना

संविधान संशोधन विधेयक को पारित करने के लिए सामान्य विधेयकों की तुलना में विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। विशेष बहुमत का अर्थ है कि विधेयक को पारित करने के लिए:

उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों का कम से कम दो-तिहाई बहुमत होना चाहिए।

संसद की कुल सदस्यता के कम से कम 50% सदस्यों का समर्थन आवश्यक होता है।

यदि प्रस्तावित संशोधन केवल संसद की विधायी शक्तियों तक सीमित है, तो इसे केवल संसद में विशेष बहुमत से पारित करना पर्याप्त होता है। लेकिन यदि संशोधन संघीय ढांचे या राज्यों के अधिकारों से संबंधित है, तो इसे कम से कम आधे राज्यों की विधानसभाओं से भी पारित कराना अनिवार्य होता है। राज्यों की सहमति प्राप्त करने के लिए, संबंधित विधेयक को राज्य विधानसभाओं में भेजा जाता है और उनके बहुमत से अनुमोदन प्राप्त करना आवश्यक होता है। यह प्रक्रिया यह सुनिश्चित करती है कि संविधान में किए गए परिवर्तन संघीय प्रणाली को बिना किसी पूर्वाग्रह के संतुलित रखें।

3. राष्ट्रपति की स्वीकृति

संसद में विशेष बहुमत से पारित होने के बाद, संविधान संशोधन विधेयक को अंतिम अनुमोदन के लिए राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। अन्य विधेयकों के विपरीत, राष्ट्रपति को संविधान संशोधन विधेयक को अस्वीकार करने या पुनर्विचार के लिए वापस भेजने की अनुमति नहीं होती। उन्हें इसे केवल मंजूरी देनी होती है। इसका अर्थ यह है कि एक बार जब विधेयक संसद और आवश्यक राज्यों द्वारा पारित कर दिया जाता है, तो यह अनिवार्य रूप से कानून बन जाता है, और राष्ट्रपति केवल इसे औपचारिक रूप से प्रमाणित करते हैं। उनकी स्वीकृति के बाद ही यह विधेयक एक आधिकारिक संविधान संशोधन के रूप में मान्य होता है।

4. अधिसूचना और प्रभाव

राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृति प्रदान करने के बाद, संशोधित प्रावधानों को सरकारी राजपत्र (Official Gazette) में अधिसूचित किया जाता है। यह अधिसूचना विधेयक को कानूनी रूप से प्रभावी बनाती है और इसके लागू होने की तिथि को निर्धारित करती है। कुछ मामलों में, संशोधित प्रावधान तुरंत प्रभावी हो सकते हैं, जबकि कुछ मामलों में इनके क्रियान्वयन के लिए सरकार को अतिरिक्त नियम और दिशानिर्देश जारी करने की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, यदि किसी संशोधन के परिणामस्वरूप किसी मौजूदा प्रणाली में व्यापक परिवर्तन किया गया है, तो उसे लागू करने के लिए प्रशासनिक तैयारियों की आवश्यकता हो सकती है।

संविधान संशोधन की यह पूरी प्रक्रिया यह सुनिश्चित करती है कि कोई भी परिवर्तन लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का पालन करते हुए किया जाए और देश के संघीय ढांचे, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, तथा नागरिकों के मौलिक अधिकारों को बिना किसी मनमाने हस्तक्षेप के सुरक्षित रखा जाए।

संविधान संशोधन के प्रमुख उदाहरण

भारतीय संविधान को समय-समय पर बदलती परिस्थितियों और जरूरतों के अनुसार संशोधित किया गया है। कुछ संशोधन विशेष रूप से ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण रहे हैं, क्योंकि उन्होंने संविधान की मूलभूत संरचना को प्रभावित किया और देश के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ढांचे को नया रूप दिया। नीचे कुछ प्रमुख संवैधानिक संशोधनों का विस्तृत विवरण दिया गया है:

1. पहला संविधान संशोधन (1951)

संविधान लागू होने के कुछ ही समय बाद यह महसूस किया गया कि कुछ मौलिक अधिकारों में संशोधन की आवश्यकता है, ताकि समाज और सरकार के कार्यों के बीच संतुलन बना रहे।

मौलिक अधिकारों में कुछ प्रतिबंध जोड़े गए: अनुच्छेद 19 में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संतुलित करने के लिए अनुच्छेद 19(2) के तहत कुछ युक्तिसंगत प्रतिबंध लगाने की अनुमति दी गई। इससे सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, और राज्य की अखंडता सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कानूनी प्रावधान बनाए जा सके।

भूमि सुधार कानूनों को संरक्षित करने के लिए नौवीं अनुसूची (9th Schedule) जोड़ी गई, ताकि इन कानूनों को न्यायिक समीक्षा से बचाया जा सके।

2. 42वां संविधान संशोधन (1976)

यह संशोधन आपातकाल के दौरान पारित किया गया था और इसे संविधान के सबसे व्यापक और दूरगामी प्रभाव डालने वाले संशोधनों में से एक माना जाता है।

संविधान की प्रस्तावना में बदलाव: इसमें "समाजवादी", "धर्मनिरपेक्ष" और "राष्ट्रीय अखंडता" शब्द जोड़े गए, जिससे भारतीय संविधान के उद्देश्यों को और स्पष्ट किया गया।

मौलिक कर्तव्यों (अनुच्छेद 51A) की स्थापना: नागरिकों के लिए 10 मौलिक कर्तव्यों को शामिल किया गया, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि नागरिक न केवल अपने अधिकारों का उपयोग करें, बल्कि अपने कर्तव्यों का भी पालन करें।

न्यायपालिका की शक्तियों में कटौती: उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के अधिकारों को सीमित किया गया, ताकि सरकार द्वारा लागू की गई नीतियों को आसानी से कार्यान्वित किया जा सके।

3. 44वां संविधान संशोधन (1978)

यह संशोधन 42वें संशोधन द्वारा किए गए कुछ बदलावों को निरस्त करने और लोकतांत्रिक मूल्यों को बहाल करने के लिए लाया गया था।

आपातकालीन प्रावधानों में संशोधन: अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रपति को राष्ट्रीय आपातकाल लागू करने की प्रक्रिया को अधिक कठिन बना दिया गया। अब आपातकाल लगाने के लिए मंत्रिपरिषद की लिखित सिफारिश आवश्यक कर दी गई।

संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से हटाया गया: अनुच्छेद 31 को समाप्त कर संपत्ति के अधिकार को एक कानूनी अधिकार (अनुच्छेद 300A) बना दिया गया, ताकि सरकार भूमि सुधार और समाज कल्याण से जुड़े कानूनों को लागू कर सके।

4. 73वां और 74वां संविधान संशोधन (1992)

इस संशोधन ने स्थानीय स्वशासन को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया और लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर मजबूत किया।

पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा मिला: 73वें संशोधन के तहत तीन स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था (ग्राम पंचायत, पंचायत समिति, जिला परिषद) को अनिवार्य किया गया और अनुच्छेद 243 से 243O जोड़े गए।

नगर पालिकाओं को भी संवैधानिक मान्यता दी गई: 74वें संशोधन के तहत नगर निगमों, नगर परिषदों और नगर पंचायतों के लिए स्पष्ट प्रावधान किए गए।

महिलाओं और वंचित वर्गों के लिए आरक्षण: पंचायती राज और नगर निकायों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया।

5. 101वां संविधान संशोधन (2016) – वस्तु एवं सेवा कर (GST) लागू करना

यह संशोधन भारत की कर प्रणाली में सबसे बड़े सुधारों में से एक था, जिसने देशभर में एक समान कर प्रणाली लागू की।

जीएसटी लागू करने के लिए एक नया कर ढांचा तैयार किया गया, जिससे विभिन्न अप्रत्यक्ष करों (सेवा कर, उत्पाद शुल्क, वैट आदि) को एकीकृत कर दिया गया।

जीएसटी परिषद (GST Council) की स्थापना की गई, जिसमें केंद्र और राज्यों के प्रतिनिधि शामिल हैं, ताकि कर दरों और नीतियों से जुड़े निर्णय लिए जा सकें।

संघीय कर प्रणाली को मजबूत किया गया, जिससे केंद्र और राज्यों के बीच राजस्व संग्रहण और वितरण की प्रक्रिया अधिक पारदर्शी बनी।

6. 103वां संविधान संशोधन (2019) – आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) को 10% आरक्षण

यह संशोधन सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के अलावा, आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था करने के उद्देश्य से लाया गया।

अनुच्छेद 15(6) और अनुच्छेद 16(6) जोड़े गए, जिससे सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्तियों के लिए 10% आरक्षण का प्रावधान किया गया।

इस आरक्षण को शैक्षिक संस्थानों (सरकारी और निजी, जो सरकार से अनुदान प्राप्त करते हैं) और सरकारी नौकरियों में लागू किया गया।

यह आरक्षण अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC), अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के आरक्षण से अलग है, जिससे संविधान में आरक्षण की कुल सीमा 50% से बढ़कर 60% हो गई।

निष्कर्ष (Conclusion):

भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया इसे न तो अत्यधिक कठोर बनाती है और न ही अत्यधिक लचीला, बल्कि एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाती है। यह प्रक्रिया संविधान को समय के अनुसार परिवर्तनीय बनाती है, जिससे समाज की उभरती जरूरतों, राजनीतिक परिस्थितियों और आर्थिक परिवर्तनों के अनुरूप इसे अद्यतन किया जा सकता है। संविधान संशोधन की यह प्रणाली भारतीय लोकतंत्र की जीवंतता को दर्शाती है। संसद को यह अधिकार प्राप्त है कि वह आवश्यकतानुसार संविधान में संशोधन कर सके, लेकिन यह शक्ति असीमित नहीं है। कुछ महत्वपूर्ण संशोधनों के लिए राज्यों की सहमति अनिवार्य होती है, ताकि भारत के संघीय ढांचे की मूल भावना बनी रहे और केंद्र तथा राज्यों के बीच संतुलन बना रहे। संविधान में अब तक कई संशोधन किए जा चुके हैं, जिन्होंने समाज की प्रगति, नागरिक अधिकारों के विस्तार, प्रशासनिक सुधारों और आर्थिक नीतियों को नए आयाम दिए हैं। ये संशोधन सुनिश्चित करते हैं कि संविधान एक स्थिर लेकिन गतिशील दस्तावेज बना रहे, जो समय की आवश्यकताओं के अनुसार प्रासंगिक बना रहे और भारतीय लोकतंत्र को सशक्त बनाए।

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