Coefficient of Correlation, Product Moment Method, Rank Difference Method, and Graphical Presentation सह-संबंध गुणांक, गुणन फल युग्म विधि, श्रेणी क्रम भिन्नता विधि एवं ग्राफीय प्रस्तुतीकरण
सह-संबंध (Correlation) का अर्थ और शैक्षिक महत्व
सह-संबंध (Correlation) का शाब्दिक अर्थ होता है – “साथ में बदलना” या “एक-दूसरे से संबंधित होना”। सांख्यिकी में यह शब्द दो या दो से अधिक चरों (Variables) के बीच आपसी संबंध को व्यक्त करने के लिए प्रयोग किया जाता है। जब हम यह जानना चाहते हैं कि किसी एक तत्व (जैसे अध्ययन का समय) में वृद्धि या कमी होने से क्या किसी अन्य तत्व (जैसे परीक्षा परिणाम) में भी कोई परिवर्तन आता है, तो इस स्थिति का विश्लेषण करने के लिए हम सह-संबंध की अवधारणा का उपयोग करते हैं। यह मात्रात्मक (Quantitative) दृष्टिकोण से यह बताता है कि दो चर किस सीमा तक एक-दूसरे से संबंधित हैं। यह संबंध सकारात्मक, नकारात्मक या शून्य भी हो सकता है।
उदाहरण के रूप में, यदि किसी विद्यार्थी की पढ़ाई के घंटे बढ़ने पर उसके परीक्षा में प्राप्तांक भी बढ़ते हैं, तो इसे सकारात्मक सह-संबंध (Positive Correlation) कहा जाएगा, क्योंकि दोनों ही चरों में एक ही दिशा में परिवर्तन हो रहा है। इसके विपरीत, यदि किसी कर्मचारी के कार्यघंटे अधिक होने से उसका मनोबल और कार्यक्षमता घटने लगती है, तो इस स्थिति को नकारात्मक सह-संबंध (Negative Correlation) माना जाएगा, क्योंकि एक तत्व बढ़ रहा है जबकि दूसरा घट रहा है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि सह-संबंध यह स्पष्ट नहीं करता कि एक चर दूसरे का कारण है, बल्कि यह केवल इतना बताता है कि दोनों के बीच एक सांख्यिकीय संगति (Statistical Association) पाई जाती है। इसका मतलब यह है कि सह-संबंध के माध्यम से कारण और प्रभाव (Cause and Effect) की व्याख्या नहीं की जा सकती, परंतु यह संबंधों को समझने और पूर्वानुमान लगाने के लिए एक उपयोगी उपकरण है।
शैक्षिक परिप्रेक्ष्य में, सह-संबंध का विशेष महत्व है। शिक्षा क्षेत्र में शिक्षक यह जानने के लिए सह-संबंध का प्रयोग करते हैं कि छात्रों की उपस्थिति और उनकी शैक्षणिक उपलब्धि के बीच कैसा संबंध है। मनोविज्ञान में यह जाना जा सकता है कि आत्म अवधारणा (Self-Concept) और शैक्षणिक प्रदर्शन के बीच किस प्रकार का संबंध है। यह जानकारी शिक्षण विधियों, मूल्यांकन प्रक्रियाओं और शिक्षण सुधारों के लिए उपयोगी हो सकती है।
इसके अतिरिक्त, सह-संबंध की सहायता से अनुसंधानकर्ता यह अनुमान लगा सकते हैं कि किन कारकों के बीच संबंध अधिक मजबूत है और भविष्य में किस दिशा में अनुसंधान किया जाना चाहिए। नीति निर्माण, पाठ्यक्रम नियोजन, शिक्षा-प्रबंधन और प्रशासनिक निर्णयों में सह-संबंध के आँकड़े महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इससे न केवल शैक्षणिक गुणवत्ता में सुधार होता है, बल्कि छात्रों की समग्र प्रगति को भी सही दिशा में ले जाया जा सकता है।
सह-संबंध गुणांक की अवधारणा (Concept of Coefficient of Correlation)
सह-संबंध गुणांक (Coefficient of Correlation) एक महत्वपूर्ण सांख्यिकीय माप है, जिसका उपयोग यह जानने के लिए किया जाता है कि दो चर (Variables) के बीच कैसा और कितना गहरा संबंध है। यह केवल यह नहीं बताता कि कोई संबंध है या नहीं, बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि वह संबंध सकारात्मक है या नकारात्मक, और कमज़ोर है या मज़बूत। इसे सामान्यतः अंग्रेज़ी अक्षर ‘r’ से दर्शाया जाता है, जो कि प्रसिद्ध गणितज्ञ कार्ल पियर्सन (Karl Pearson) द्वारा प्रस्तुत किया गया था।
इस गुणांक का मान –1 से +1 के मध्य होता है।
जब r = +1 होता है, तो इसका तात्पर्य यह होता है कि दोनों चरों के बीच पूर्ण और सीधा (perfect positive) संबंध है—अर्थात एक में वृद्धि होने पर दूसरा भी समान अनुपात में बढ़ता है।
जब r = –1, तो दोनों चरों के बीच पूर्णतः नकारात्मक या विपरीत संबंध होता है—एक में वृद्धि होने पर दूसरा उतनी ही मात्रा में घटता है।
वहीं r = 0 यह संकेत देता है कि दोनों चरों के बीच कोई भी सांख्यिकीय संबंध नहीं पाया गया है। इसका मतलब यह नहीं कि दोनों में कोई भी संबंध नहीं है, बल्कि यह कि उनके बीच कोई रेखीय (linear) संबंध नहीं है।
उदाहरण के रूप में यदि किसी अध्ययन में यह पाया गया कि विद्यार्थियों की कक्षा में उपस्थिति और उनके परीक्षा में प्राप्त अंकों के बीच r = +0.85 का सह-संबंध है, तो इसका अर्थ है कि यह एक मजबूत सकारात्मक संबंध है। अर्थात जो विद्यार्थी नियमित रूप से कक्षा में उपस्थित होते हैं, वे अच्छे अंक प्राप्त करने की अधिक संभावना रखते हैं। यह आँकड़ा शिक्षकों को यह समझने में मदद करता है कि उपस्थिति को बढ़ावा देना विद्यार्थियों की शैक्षणिक सफलता के लिए कितना आवश्यक है।
सह-संबंध गुणांक का प्रयोग केवल शैक्षणिक क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं है। यह अनुसंधान, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, स्वास्थ्य, तथा व्यवसाय प्रबंधन जैसे अनेक क्षेत्रों में उपयोग किया जाता है। शोधकर्ता इसका उपयोग यह जानने के लिए करते हैं कि किन कारकों के बीच घनिष्ठ संबंध हैं, जिससे वे भविष्य की नीतियाँ निर्धारित कर सकें।
उदाहरणार्थ, यदि किसी संस्था को यह पता चलता है कि कर्मचारियों की संतुष्टि का सह-संबंध उनके कार्य निष्पादन (performance) से जुड़ा है, तो वे अपने कार्यस्थल में सुधार के लिए कदम उठा सकते हैं। इसी प्रकार, शिक्षा में सह-संबंध गुणांक छात्रों की उपलब्धि के साथ उनकी सीखने की शैली, अभिरुचि, प्रेरणा या पारिवारिक पृष्ठभूमि के संबंध को जानने में सहायक हो सकता है।
अंततः, सह-संबंध गुणांक केवल आँकड़ों की व्याख्या का माध्यम नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा उपकरण है जो निर्णय प्रक्रिया को सशक्त बनाता है, अनुसंधान को दिशा देता है और नीतिगत योजनाओं को वैज्ञानिक आधार प्रदान करता है। यह शिक्षा, समाज और संस्थागत व्यवस्था को अधिक प्रभावी बनाने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
गुणन फल युग्म विधि (Product Moment Method / Pearson's Method)
गुणन फल युग्म विधि, जिसे आमतौर पर पियर्सन सह-संबंध गुणांक (Pearson's Correlation Coefficient) कहा जाता है, सह-संबंध मापन की सबसे अधिक मान्य और प्रचलित विधियों में से एक है। यह विधि उन स्थितियों में अत्यंत उपयोगी होती है जहाँ दोनों चर (Variables) मात्रात्मक प्रकृति (Quantitative in nature) के होते हैं और जिन पर गणितीय गणनाएँ जैसे जोड़, घटाव, गुणा और भाग आदि लागू की जा सकती हैं। इस विधि का प्रयोग हम तब करते हैं जब हमें यह जानना होता है कि दो चरों के बीच कितना मजबूत और किस दिशा में संबंध मौजूद है।
उदाहरण के तौर पर, यदि हम यह अध्ययन कर रहे हों कि व्यक्ति की आय (Income) और उसका खर्च (Expenditure) आपस में कैसे जुड़े हुए हैं, या फिर किसी छात्र की बुद्धिलब्धि (IQ) और उसकी अकादमिक उपलब्धि के बीच क्या संबंध है, तो इस विधि का उपयोग बहुत उपयोगी सिद्ध होता है।
इस गणना विधि में हम पहले दोनों चरों के औसत (Mean) का निर्धारण करते हैं, फिर प्रत्येक युग्म (Pair) का औसत से विचलन (Deviation) निकालते हैं। इन विचलनों का आपस में गुणन (Multiplication) किया जाता है, और बाद में दोनों चरों के विचलनों के वर्गों (Squared deviations) के गुणनफल का वर्गमूल (Square root) लिया जाता है। अंतिम परिणाम एक ऐसा सह-संबंध गुणांक होता है जो –1 से +1 के बीच होता है, और यह दोनों चरों के बीच संबंध की तीव्रता तथा दिशा को स्पष्ट रूप से दर्शाता है।
मुख्य विशेषताएँ:
1. उच्च विश्वसनीयता (High Reliability):
यह विधि उन आंकड़ों पर सबसे अधिक सटीक परिणाम देती है जो निरंतर (Continuous) और सामान्य वितरण (Normally Distributed) वाले होते हैं। जब शोध डेटा गणितीय रूप से संतुलित हो, तब पियर्सन विधि अत्यंत प्रभावी होती है।
2. त्रुटि की न्यूनतम संभावना:
गणनात्मक प्रक्रिया सुव्यवस्थित होने के कारण इसमें गलती की संभावना अत्यंत कम होती है। इसके अलावा, आधुनिक तकनीकी उपकरण जैसे सांख्यिकीय सॉफ़्टवेयर और एक्सेल शीट्स इसे और भी सरल बना देते हैं।
3. कंप्यूटर आधारित विश्लेषण के अनुकूल:
यह विधि कम्प्यूटेशनल रूप से सरल होती है, अतः इसे कंप्यूटर प्रोग्रामों और सांख्यिकीय टूल्स द्वारा बहुत आसानी से लागू किया जा सकता है, जिससे बड़े आंकड़ों का विश्लेषण भी शीघ्रता से किया जा सकता है।
4. विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक उपयोग:
गुणन फल युग्म विधि का प्रयोग केवल शिक्षा या मनोविज्ञान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाजशास्त्र, व्यवसाय, चिकित्सा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में भी समान रूप से प्रभावी है। किसी भी शोध में जहाँ दो मात्रात्मक चरों के बीच संबंध को मापना आवश्यक हो, वहाँ यह विधि सर्वोत्तम मानी जाती है।
गुणन फल युग्म विधि न केवल गणनात्मक रूप से सटीक है, बल्कि यह शोधकर्ताओं को यह समझने में मदद करती है कि किन कारकों के बीच कितना प्रबल और किस दिशा में सह-संबंध मौजूद है। यह निर्णय लेने, भविष्यवाणी करने और नीतियाँ निर्धारित करने की प्रक्रिया में एक वैज्ञानिक आधार प्रदान करती है, जो किसी भी गहन शोध के लिए आवश्यक होता है।
श्रेणी क्रम भिन्नता विधि (Rank Difference Method / Spearman's Rank Correlation)
श्रेणी क्रम भिन्नता विधि, जिसे स्पीयरमैन की सह-संबंध विधि के नाम से भी जाना जाता है, एक गैर-पैरामीट्रिक सांख्यिकीय तकनीक (Non-parametric Statistical Technique) है, जिसका प्रयोग तब किया जाता है जब हमारे पास उपलब्ध आंकड़े मात्रात्मक नहीं होकर गुणात्मक (Qualitative) या क्रमबद्ध (Ordinal) स्वरूप में होते हैं। यह विधि विशेष रूप से तब उपयोगी होती है जब किसी घटना या गुण के लिए वस्तुओं या व्यक्तियों को प्राथमिकता, स्थान, या क्रम दिया गया हो। जैसे – छात्रों की कक्षा में रैंकिंग, किसी प्रतियोगिता में प्रदर्शन का स्थान, व्यक्तियों की पसंद-नापसंद आदि।
यह विधि उन स्थितियों में सरलता से प्रयोग की जा सकती है जहाँ हमें मानों की वास्तविक गणना की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि हम केवल उनकी आपसी रैंकिंग के माध्यम से सह-संबंध का आकलन करना चाहते हैं।
जहाँ
D = दो चरों (Variables) के क्रम (Ranks) में अंतर,
N = प्रेक्षणों (Observations) की कुल संख्या।
यह सूत्र यह दर्शाता है कि यदि दो सेटों के रैंक पूरी तरह से मेल खाते हैं, तो सभी D का मान शून्य होगा, जिससे r = 1 प्राप्त होगा। इसका अर्थ यह होगा कि दोनों चरों के बीच पूर्ण सकारात्मक सह-संबंध (Perfect Positive Correlation) है। लेकिन यदि रैंकिंग में बहुत अधिक अंतर है, तो D² का योग अधिक होगा और सह-संबंध का गुणांक घटेगा, यहाँ तक कि वह नकारात्मक (Negative) भी हो सकता है, जो विपरीत संबंध को दर्शाता है।
मुख्य विशेषताएँ (Key Features):
1. सरल और सहज विधि:
इस तकनीक को लागू करने के लिए आँकड़ों के मूल मानों की आवश्यकता नहीं होती; केवल क्रमबद्ध जानकारी (Ranking Information) पर्याप्त होती है। इसलिए यह विधि गैर-सांख्यिकी पृष्ठभूमि वाले शिक्षकों और शोधकर्ताओं के लिए भी सरलता से उपयोग की जा सकती है।
2. सीमित एवं अव्यवस्थित आंकड़ों के लिए उपयुक्त:
जब आंकड़ों की संख्या सीमित हो, और वे निरंतर या सामान्य वितरण वाले न हों, तब भी यह विधि सह-संबंध का पर्याप्त अनुमान देने में सक्षम होती है। यह उन परिस्थितियों के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है जहाँ गणितीय गणनाएँ कठिन हो जाती हैं।
3. टाई रैंक (Tie Ranks) का समायोजन:
जब दो या अधिक वस्तुएँ किसी एक ही रैंक पर आती हैं, तो उन्हें ‘टाई’ माना जाता है। ऐसी स्थिति में औसत रैंक देकर समायोजन किया जाता है, ताकि परिणाम सटीक रहे। यह प्रक्रिया थोड़ा समय ले सकती है परंतु आवश्यक होती है।
4. शैक्षणिक और सामाजिक अनुसंधान में उपयोग:
यह विधि शिक्षा, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, मानव संसाधन, खेल विज्ञान आदि क्षेत्रों में विशेष रूप से उपयोग की जाती है जहाँ निष्कर्षों को रैंकिंग के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यह आंकड़ों की दिशा और संगति को समझने का एक आसान व विश्वसनीय माध्यम है।
स्पीयरमैन की श्रेणी क्रम भिन्नता विधि एक प्रभावी और सुलभ साधन है, जो गैर-मात्रात्मक आंकड़ों के बीच संबंध को मापने की प्रक्रिया को सरल बनाती है। जब शोध में केवल रैंक उपलब्ध हों, या जब गणनाएँ सीमित संसाधनों के साथ करनी हों, तब यह विधि अत्यंत उपयोगी और व्यावहारिक सिद्ध होती है।
ग्राफीय प्रस्तुतीकरण (Graphical Representations)
सह-संबंध को समझने की प्रक्रिया को अधिक प्रभावशाली और बोधगम्य बनाने के लिए ग्राफीय विधियाँ अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये न केवल डाटा को सौंदर्यपूर्ण रूप से प्रस्तुत करती हैं, बल्कि जटिल संबंधों को सहज रूप में समझने में भी सहायता करती हैं। विशेषकर जब किसी आँकिक विश्लेषण के परिणामों को शिक्षण, प्रस्तुति या शोध में उपयोग करना हो, तब दृश्य माध्यम अत्यधिक प्रभावी सिद्ध होते हैं। ग्राफीय विधियाँ सह-संबंध की प्रकृति (Nature), दिशा (Direction), और तीव्रता (Strength) को समझने में सरलता प्रदान करती हैं।
(a) स्कैटर डायग्राम (Scatter Diagram):
स्कैटर डायग्राम को सह-संबंध विश्लेषण का सबसे मूलभूत और सामान्य ग्राफीय रूप माना जाता है। इस विधि में दो चरों – स्वतंत्र (X) और आश्रित (Y) – के युग्मों को एक समन्वय ग्राफ (Coordinate Plane) पर बिंदुओं के रूप में अंकित किया जाता है। प्रत्येक बिंदु एक विशेष युग्म (X, Y) को दर्शाता है।
यदि सभी बिंदु एक सीधी रेखा के पास ऊपर की ओर झुकाव दर्शाते हैं, तो यह सकारात्मक सह-संबंध (Positive Correlation) का संकेत है, अर्थात X के बढ़ने पर Y भी बढ़ता है।
यदि बिंदु नीचे की ओर झुकाव में हों, तो यह नकारात्मक सह-संबंध (Negative Correlation) को दर्शाता है, यानी एक मान बढ़ने पर दूसरा घटता है।
यदि बिंदु असंगठित रूप से इधर-उधर बिखरे हों और किसी विशेष दिशा का संकेत न दें, तो यह शून्य या नगण्य सह-संबंध (No or Negligible Correlation) को दर्शाता है।
यह विधि आँकड़ों के प्रारंभिक अवलोकन के लिए अत्यंत उपयोगी मानी जाती है।
(b) लाइन ग्राफ (Line Graph):
लाइन ग्राफ समय-श्रृंखला आँकड़ों (Time Series Data) को प्रदर्शित करने के लिए एक अत्यंत लोकप्रिय तकनीक है। इसमें विभिन्न समय बिंदुओं पर किसी घटना के मानों को बिंदुओं के रूप में अंकित कर उन्हें रेखाओं द्वारा जोड़ा जाता है, जिससे परिवर्तन की प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
जब दो या अधिक चरों को एक ही ग्राफ पर रेखाओं के रूप में प्रदर्शित किया जाता है, तो उनके मध्य सह-संबंध की दिशा और प्रवृत्ति का सहजता से अनुमान लगाया जा सकता है। यह विधि विशेष रूप से तब उपयोगी होती है जब समय के साथ परिवर्तनशीलता को समझना आवश्यक हो, जैसे – छात्र की प्रगति, आय-व्यय में उतार-चढ़ाव आदि।
(c) बार ग्राफ (Bar Graph):
बार ग्राफ एक ऐसी ग्राफीय विधि है जो तुलना (Comparison) के लिए अत्यंत उपयुक्त मानी जाती है। इसमें प्रत्येक श्रेणी या चर को एक लंबवत (Vertical) या क्षैतिज (Horizontal) पट्टी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जिनकी ऊँचाई या लंबाई आंकड़ों के मानों के अनुसार होती है।
हालाँकि बार ग्राफ में सह-संबंध की दिशा या परिमाण को सीधे-सीधे स्पष्ट रूप से नहीं दर्शाया जा सकता, फिर भी यह विभिन्न चरों के बीच तुलनात्मक स्थिति को समझने में सहायक होता है। विशेष रूप से जब मात्रात्मक आँकड़ों की अपेक्षा श्रेणीकृत जानकारी प्रस्तुत करनी हो, तो यह विधि प्रभावी होती है।
निष्कर्ष (Conclusion):
सह-संबंध विश्लेषण, सांख्यिकी और अनुसंधान के क्षेत्र में एक अत्यंत उपयोगी औजार है, जो दो चरों के मध्य संबंध की प्रकृति, दिशा और तीव्रता को समझने में सहायक होता है। पियर्सन की विधि उन स्थितियों में उपयुक्त होती है जहाँ आँकड़े संख्यात्मक और गणनात्मक क्रियाओं के लिए उपयुक्त होते हैं, वहीं स्पीयरमैन की विधि क्रमबद्ध आंकड़ों के लिए श्रेष्ठ मानी जाती है। इसके साथ ही, ग्राफीय विधियाँ जैसे स्कैटर डायग्राम, लाइन ग्राफ और बार ग्राफ, आँकड़ों की व्याख्या को दृष्टिगोचर और सुलभ बनाती हैं। इस प्रकार, सह-संबंध का अध्ययन केवल गणितीय विश्लेषण तक सीमित नहीं है, बल्कि यह नीतिगत निर्णय, शिक्षण-प्रशिक्षण, मूल्यांकन, मनोवैज्ञानिक परीक्षण तथा सामाजिक अनुसंधानों में भी निर्णयात्मक दक्षता का महत्वपूर्ण आधार प्रदान करता है।
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