Constitutional Provisions Against Sexual Harassment यौन उत्पीड़न के खिलाफ संवैधानिक प्रावधान
प्रस्तावना (Introduction)
यौन उत्पीड़न केवल किसी व्यक्ति की गरिमा और आत्म-सम्मान का गहरा उल्लंघन नहीं है, बल्कि यह व्यक्ति की मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक स्थिति को भी गंभीर रूप से प्रभावित करता है। यह न केवल पीड़ित के आत्मविश्वास को कमजोर करता है, बल्कि उसे सामाजिक रूप से अलग-थलग और असुरक्षित महसूस कराता है। यह एक ऐसा अपराध है जो व्यक्ति की निजता, उसकी स्वतंत्रता और उसकी सुरक्षा के अधिकारों का उल्लंघन करता है—जो भारत के संविधान के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकार हैं। यौन उत्पीड़न के कई रूप हो सकते हैं—अनचाही टिप्पणियाँ, आपत्तिजनक स्पर्श, गंदे मज़ाक, अश्लील इशारे, अशोभनीय ईमेल या संदेश, और यहां तक कि लगातार पीछा करना या धमकाना भी। इस प्रकार की घटनाएं विशेष रूप से कार्यस्थलों, सार्वजनिक स्थलों और शैक्षणिक संस्थानों में अधिक चिंता का विषय बन जाती हैं, जहाँ एक सुरक्षित और सम्मानजनक माहौल की अपेक्षा की जाती है। महिलाओं, बच्चों और अन्य कमजोर वर्गों को अक्सर इस उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है, जिससे उनके विकास, शिक्षा और कार्य में बाधा उत्पन्न होती है। इसलिए, यौन उत्पीड़न का समाधान केवल एक कानूनी आवश्यकता नहीं है, बल्कि यह सामाजिक उत्तरदायित्व भी है। भारत का संविधान न केवल समानता, स्वतंत्रता और गरिमा के सिद्धांतों की वकालत करता है, बल्कि इसके अंतर्गत यौन उत्पीड़न जैसे कृत्यों के विरुद्ध सख्त कानूनी प्रावधान भी उपलब्ध हैं। 'कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013' और भारतीय दंड संहिता की संबंधित धाराएं पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए बनाए गए हैं। अतः यौन उत्पीड़न को केवल व्यक्तिगत समस्या नहीं, बल्कि एक व्यापक सामाजिक और संवैधानिक चुनौती मानकर इससे निपटने के लिए जागरूकता, शिक्षा, कड़े कानूनों और संवेदनशील सामाजिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है, ताकि प्रत्येक व्यक्ति—चाहे वह महिला हो, पुरुष हो या अन्य कोई—सुरक्षित, सम्मानजनक और समान अधिकारों वाले वातावरण में जी सके।
1. यौन उत्पीड़न का अर्थ (Meaning of Sexual Harassment)
यौन उत्पीड़न किसी भी ऐसे अवांछित व्यवहार को कहा जाता है जो यौन प्रकृति का हो और किसी व्यक्ति की भावनात्मक या शारीरिक स्वतंत्रता का हनन करता हो। इसमें अनुचित छूना, अशोभनीय टिप्पणियाँ, द्विअर्थी या अश्लील मज़ाक, अश्लील चित्र या वीडियो दिखाना, यौन संकेत वाले शब्दों का उपयोग करना या बार-बार प्रेम प्रस्ताव देना शामिल हो सकता है। डिजिटल माध्यमों से अश्लील संदेश भेजना या ऑनलाइन पीछा करना भी इसमें आता है। यौन उत्पीड़न का मुख्य आधार है—अनिच्छा और शक्ति का असंतुलन। यह किसी भी स्थान पर हो सकता है—कार्यस्थल, विद्यालय, सार्वजनिक स्थानों या घर में—और इसका शिकार कोई भी हो सकता है, हालांकि महिलाएँ इसका अधिक शिकार होती हैं।
2. संविधान में यौन उत्पीड़न से संबंधित प्रावधान (Constitutional Provisions Related to Sexual Harassment)
भारतीय संविधान कई मूलभूत अधिकार प्रदान करता है, जो यौन उत्पीड़न के विरुद्ध प्रभावी ढाल का कार्य करते हैं। ये अधिकार सभी नागरिकों को समानता, स्वतंत्रता और गरिमा के साथ जीवन जीने का आश्वासन देते हैं।
a. अनुच्छेद 14 – समानता का अधिकार (Article 14 – Right to Equality)
यह अनुच्छेद सभी व्यक्तियों को कानून के समक्ष समानता और विधिक संरक्षण का अधिकार देता है। जब किसी महिला को यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है, तो वह समानता के अधिकार से वंचित हो जाती है। कार्यस्थलों या सार्वजनिक स्थानों पर असमान और असुरक्षित व्यवहार उसकी गरिमा को ठेस पहुंचाता है। इसलिए, अनुच्छेद 14 यह सुनिश्चित करता है कि हर व्यक्ति के साथ समान व्यवहार हो और उसे कानून से उचित संरक्षण मिले।
b. अनुच्छेद 15 – भेदभाव का निषेध (Article 15 – Prohibition of Discrimination)
अनुच्छेद 15 राज्य को किसी भी नागरिक के साथ धर्म, जाति, लिंग, नस्ल या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव करने से रोकता है। यौन उत्पीड़न एक प्रकार का लैंगिक भेदभाव है जो महिलाओं की गरिमा और स्वतंत्रता को प्रभावित करता है। जब महिलाएं डर या अपमान के कारण अपने कार्यस्थलों या शिक्षा संस्थानों में भाग नहीं ले पातीं, तो यह अनुच्छेद 15 का स्पष्ट उल्लंघन है।
c. अनुच्छेद 19(1)(g) – पेशे की स्वतंत्रता (Article 19(1)(g) – Freedom to Practice Any Profession)
यह अनुच्छेद प्रत्येक नागरिक को अपनी पसंद का व्यवसाय, व्यापार या पेशा अपनाने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। किंतु जब कोई महिला अपने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न का शिकार होती है, तो वह भय और असुरक्षा की भावना से काम करने में असमर्थ हो जाती है। इससे उसके पेशेवर विकास और स्वतंत्रता पर बाधा आती है। अतः यह आवश्यक है कि कार्यस्थल सुरक्षित और सम्मानजनक हो ताकि अनुच्छेद 19 का सही पालन हो सके।
d. अनुच्छेद 21 – जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण (Article 21 – Protection of Life and Personal Liberty)
अनुच्छेद 21 प्रत्येक व्यक्ति को गरिमा के साथ जीवन जीने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है। इस अधिकार के अंतर्गत निजता, मानसिक शांति और सुरक्षित वातावरण भी आते हैं। यौन उत्पीड़न इन सभी पहलुओं पर आघात करता है। इससे पीड़िता को मानसिक तनाव, भय और असुरक्षा का अनुभव होता है, जो उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। इसलिए अनुच्छेद 21 यौन उत्पीड़न से सुरक्षा का आधार बनता है।
3. सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय: विशाखा दिशानिर्देश (Supreme Court’s Landmark Judgment: Vishaka Guidelines)
विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए स्पष्ट कानूनों की कमी को स्वीकार किया। इस मामले का आधार था भंवरी देवी नामक सामाजिक कार्यकर्ता के साथ हुए सामूहिक बलात्कार की घटना। इस मामले में न्यायालय ने विशाखा दिशानिर्देश जारी किए जो यौन उत्पीड़न की रोकथाम के लिए एक अस्थायी कानूनी ढांचा बने।
विशाखा दिशानिर्देश के मुख्य बिंदु (Key Provisions of the Vishaka Guidelines)
- यौन उत्पीड़न की अंतर्राष्ट्रीय मानकों पर आधारित परिभाषा
- नियोक्ताओं द्वारा रोकथाम के उपाय अपनाना अनिवार्य
- शिकायत समिति का गठन जिसमें महिला अध्यक्ष अनिवार्य
- शिकायतकर्ता की गोपनीयता और सुरक्षा सुनिश्चित करना
- जागरूकता कार्यक्रम और प्रशिक्षण का आयोजन
इन दिशानिर्देशों को तब तक बाध्यकारी माना गया जब तक कि संसद ने इस विषय पर विधि नहीं बनाई।
4. यौन उत्पीड़न (रोकथाम, प्रतिषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 (Enactment of the POSH Act, 2013)
साल 2013 में संसद ने कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, प्रतिषेध और निवारण) अधिनियम पारित किया जिसे POSH अधिनियम भी कहा जाता है। यह अधिनियम विशाखा दिशानिर्देशों को विधिक रूप प्रदान करता है और कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न की रोकथाम के लिए एक संरचित प्रक्रिया सुनिश्चित करता है।
POSH अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ (Key Features of the POSH Act)
- यौन उत्पीड़न की विस्तृत परिभाषा (शारीरिक, मौखिक, संकेतात्मक)
- 10 से अधिक कर्मचारियों वाले संस्थानों में आंतरिक शिकायत समिति (ICC) का गठन अनिवार्य
- शिकायत की जांच और समाधान के लिए समयबद्ध प्रक्रिया
- पीड़िता की सुरक्षा और प्रतिशोध से संरक्षण
- कर्मचारियों के लिए जागरूकता और प्रशिक्षण कार्यक्रम
- यह अधिनियम संविधान में प्रदत्त अधिकारों को व्यवहारिक रूप में लागू करता है।
5. राज्य के नीति निदेशक तत्व और मौलिक कर्तव्य (Directive Principles and Fundamental Duties)
मूल अधिकारों के अतिरिक्त, संविधान में राज्य के नीति निदेशक तत्व (DPSP) और मौलिक कर्तव्य भी यौन उत्पीड़न की रोकथाम में सहायक हैं।
a. अनुच्छेद 39(d): समान वेतन और कार्य की गरिमा (Article 39(d): Equal Pay and Working Conditions)
यह अनुच्छेद राज्य को निर्देश देता है कि पुरुषों और महिलाओं को समान कार्य के लिए समान वेतन मिले और कार्यस्थल पर गरिमा और सुरक्षा का वातावरण हो। कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न इस उद्देश्य को बाधित करता है।
b. अनुच्छेद 51A(e): महिलाओं की गरिमा के प्रतिकूल प्रथाओं का त्याग (Article 51A(e): Fundamental Duty to Renounce Degrading Practices)
यह नागरिकों पर यह कर्तव्य निर्धारित करता है कि वे उन प्रथाओं का विरोध करें जो महिलाओं की गरिमा को ठेस पहुँचाती हैं। यह एक सामाजिक और नैतिक दायित्व है कि हम सभी ऐसे व्यवहार और संस्कृति का विरोध करें जो उत्पीड़न को बढ़ावा देते हैं।
6. न्यायपालिका की भूमिका (Role of the Judiciary in Upholding Constitutional Safeguards)
भारतीय न्यायपालिका ने महिलाओं की गरिमा की रक्षा हेतु यौन उत्पीड़न के मामलों में सक्रिय भूमिका निभाई है। विशाखा मामला इसके लिए एक मिसाल है, लेकिन अन्य मामलों जैसे मेधा कोटवाल लेले बनाम भारत संघ (2012) में भी न्यायालय ने कार्यस्थलों में दिशानिर्देशों के सख्त पालन पर जोर दिया। न्यायालयों ने यह भी सुनिश्चित किया है कि शिकायत की गोपनीयता बनी रहे, जांच निष्पक्ष हो और शिकायतकर्ता को किसी प्रकार की प्रताड़ना न झेलनी पड़े। इन न्यायिक निर्णयों ने संविधान में प्रदत्त अधिकारों को मजबूत आधार प्रदान किया है।
7. निष्कर्ष (Conclusion)
यौन उत्पीड़न केवल सामाजिक बुराई नहीं है, बल्कि यह एक संवैधानिक उल्लंघन भी है जो समानता, स्वतंत्रता और गरिमा जैसे मूलभूत अधिकारों को ठेस पहुँचाता है। भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार, नीति निदेशक तत्व, न्यायिक निर्णय और POSH जैसे कानून मिलकर एक प्रभावी सुरक्षा कवच बनाते हैं। किंतु केवल कानून पर्याप्त नहीं हैं। समाज में सम्मान, जागरूकता और उत्तरदायित्व की भावना भी उतनी ही आवश्यक है। जब तक प्रत्येक व्यक्ति—चाहे वह किसी भी लिंग का हो—बिना भय और भेदभाव के जीने और कार्य करने के लिए स्वतंत्र नहीं होगा, तब तक संविधान के उद्देश्य अधूरे रहेंगे।
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