Gender and Education in Indian Context: Socialization Theory and Structural Theory जेंडर और शिक्षा (भारतीय संदर्भ): समाजीकरण सिद्धांत और संरचनात्मक सिद्धांत
भूमिका (Introduction):
लिंग (जेंडर) और शिक्षा ऐसे दो परस्पर संबंधित विषय हैं जो व्यक्ति और समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में, शैक्षिक अवसरों को ऐतिहासिक रूप से लिंग आधारित मान्यताओं और अपेक्षाओं के अनुसार ढाला गया है। संविधान भले ही शिक्षा के समान अधिकारों की गारंटी देता हो, लेकिन भारतीय समाज में बहुत-सी लड़कियों और महिलाओं के लिए यह समानता अब भी अधूरी है। विद्यालयों में शिक्षा का अनुभव प्रायः लिंग आधारित होता है और इसमें असमानता प्रवेश, गुणवत्ता, भागीदारी और परिणामों के स्तर पर स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। इस असमानता को समझने के लिए समाजीकरण सिद्धांत और संरचनात्मक सिद्धांत दो प्रमुख वैचारिक ढांचे हैं, जो यह विश्लेषण करने में सहायक होते हैं कि कैसे लिंग पहचान और भूमिकाएं निर्मित होती हैं और समाज व शिक्षा प्रणाली में बनी रहती हैं।
समाजीकरण सिद्धांत: अनुकरण और सीखने के माध्यम से लिंग की समझ (Socialization Theory: Understanding Gender through Learning and Imitation):
1. समाजीकरण की अवधारणा (Concept of Socialization):
समाजीकरण एक ऐसा जीवनभर चलने वाला प्रक्रिया है जिसके माध्यम से व्यक्ति समाज में प्रचलित मूल्यों, मानदंडों और व्यवहारों को सीखता है। यह प्रक्रिया जन्म से ही प्रारंभ हो जाती है और परिवार, सहपाठी, मीडिया, और विशेष रूप से विद्यालय जैसे सामाजिक संस्थानों के माध्यम से निरंतर चलती रहती है। इस सिद्धांत के अनुसार, लिंग एक जैविक नहीं बल्कि एक सामाजिक पहचान है, जिसे व्यक्ति अनुभवों और परंपराओं के माध्यम से सीखता है। उदाहरण के लिए, लड़कों को आत्मविश्वासी और प्रतिस्पर्धी बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, जबकि लड़कियों को कोमल, सहनशील और विनम्र बनाए रखने की सीख दी जाती है। ये व्यवहार धीरे-धीरे उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाते हैं।
2. भारतीय संदर्भ में लिंग आधारित समाजीकरण (Gender Socialization in the Indian Context):
भारत में लिंग आधारित समाजीकरण परंपरागत सांस्कृतिक मूल्यों और पितृसत्तात्मक व्यवस्था से प्रभावित होता है। जन्म से ही लड़के और लड़कियों के साथ अलग-अलग व्यवहार किया जाता है। लड़कों के जन्म पर जहां उत्सव मनाया जाता है, वहीं लड़कियों के जन्म को लेकर समाज में अक्सर उपेक्षा देखने को मिलती है। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं, लड़कों को स्वतंत्रता, संसाधनों और शिक्षा के लिए अधिक समर्थन मिलता है, जबकि लड़कियों से घर के कार्यों में सहायता की अपेक्षा की जाती है। इस व्यवहार को कई माध्यमों से बल मिलता है:
परिवार का व्यवहार, जहाँ लड़कियों से घरेलू कामकाज की अपेक्षा की जाती है।
पाठ्यपुस्तकें, जो प्रायः महिलाओं को पारंपरिक भूमिकाओं में और पुरुषों को शक्तिशाली भूमिकाओं में दर्शाती हैं।
मीडिया, जो विज्ञापनों और सिनेमा के माध्यम से लिंग आधारित रूढ़ियों को और मज़बूत करता है।
इस प्रकार, लड़कियों और लड़कों में बचपन से ही सामाजिक रूप से अलग-अलग भूमिकाएं विकसित की जाती हैं।
3. शिक्षा में लिंग आधारित समाजीकरण की भूमिका (Role of Education in Gender Socialization):
विद्यालय केवल ज्ञान प्राप्त करने का स्थान नहीं होते, बल्कि वे सामाजिक मान्यताओं को पुनरुत्पादित करने वाले संस्थान भी बन जाते हैं। विद्यालयों में यह प्रक्रिया कई स्तरों पर होती है:
गुप्त पाठ्यक्रम (Hidden Curriculum):
यह वह शिक्षा है जो औपचारिक पाठ्यक्रम के बाहर शिक्षक-छात्र संबंधों, कार्यवितरण, अनुशासन आदि के माध्यम से मिलती है, और यह अक्सर पारंपरिक लिंग भूमिकाओं को मज़बूत करती है।
शिक्षक की अपेक्षाएँ: अक्सर शिक्षक लड़कों को विज्ञान और गणित में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, जबकि लड़कियों से भाषा और कला विषयों में अच्छा प्रदर्शन अपेक्षित होता है।
अनुशासन के तरीके: लड़के और लड़कियों को एक ही व्यवहार के लिए अलग-अलग तरीके से दंडित किया जाता है, जिससे यह संकेत जाता है कि उनके लिए अलग-अलग सामाजिक मानदंड हैं।
इस प्रकार शिक्षा प्रणाली, जो समानता की वाहक होनी चाहिए, अक्सर पारंपरिक लिंग भेदों को ही दोहराती है।
संरचनात्मक सिद्धांत: संस्थागत और शक्ति संरचनाओं के माध्यम से लिंग की समझ (Structural Theory: Understanding Gender through Power and Institutions):
1. संरचनात्मक सिद्धांत की अवधारणा (Concept of Structural Theory):
संरचनात्मक सिद्धांत सामाजिक ढांचे, संस्थानों और नीतिगत व्यवस्थाओं पर केंद्रित होता है। इसके अनुसार, लिंग आधारित असमानता केवल व्यक्तिगत व्यवहार या सोच का परिणाम नहीं होती, बल्कि यह समाज की व्यापक आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षिक संरचनाओं में अंतर्निहित होती है। इन ढांचों के माध्यम से संसाधनों का वितरण, निर्णय लेने की शक्ति और अवसर तय किए जाते हैं। इस दृष्टिकोण से, समाज की संरचनाएं पुरुषों को प्राथमिकता देती हैं और महिलाओं तथा लिंग अल्पसंख्यकों को हाशिये पर रखती हैं।
2. भारत में शिक्षा प्रणाली और लिंग आधारित संरचनाएं (Gender and Educational Structures in India):
भारत में लिंग समानता की दिशा में कई संरचनात्मक बाधाएं हैं, जो शिक्षा में असमानता को जन्म देती हैं:
आर्थिक बाधाएं: गरीब परिवारों में अक्सर बेटों की शिक्षा को प्राथमिकता दी जाती है, क्योंकि उन्हें परिवार का भविष्य माना जाता है, जबकि लड़कियों की शिक्षा को शादी तक की अस्थायी व्यवस्था समझा जाता है।
सुविधाओं की कमी: विद्यालयों में अलग शौचालय, सुरक्षित परिवहन और महिला शिक्षकों की अनुपलब्धता से लड़कियों की उपस्थिति और सुरक्षा प्रभावित होती है।
सामाजिक सुरक्षा की चिंताएँ: परिवार अक्सर लड़कियों की सुरक्षा को लेकर चिंतित रहते हैं, जिससे उन्हें विद्यालय भेजने से रोका जाता है।
नीतियों का कमजोर क्रियान्वयन: यद्यपि सरकार ने बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसी योजनाएं शुरू की हैं, लेकिन इनका ज़मीनी असर सीमित रहा है, क्योंकि नीति कार्यान्वयन में पारदर्शिता और निगरानी की कमी है।
ये सभी कारक मिलकर ऐसी संरचना बनाते हैं जो लड़कियों को शिक्षा से वंचित रखती है।
3. विद्यालयों में संरचनात्मक भेदभाव (Structural Discrimination in Schools):
विद्यालयों में भी कई बार लिंग आधारित संरचनात्मक भेदभाव देखने को मिलता है:
नामांकन और उपस्थिति: खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों का विद्यालय में प्रवेश और नियमित उपस्थिति लड़कों की तुलना में कम होती है।
ड्रॉपआउट दर: किशोरावस्था में लड़कियों के विद्यालय छोड़ने की दर अधिक होती है, जिसका कारण मासिक धर्म, बाल विवाह या घरेलू जिम्मेदारियाँ हो सकती हैं।
पाठ्यक्रम और कैरियर मार्गदर्शन: लड़कियों को पारंपरिक करियर विकल्पों की ओर मोड़ा जाता है, जैसे शिक्षिका या नर्स बनना, जबकि विज्ञान या राजनीति जैसे क्षेत्रों में उन्हें हतोत्साहित किया जाता है।
नेतृत्व में भागीदारी की कमी: शैक्षिक संस्थानों के प्रशासनिक और नीति-निर्माण पदों पर महिलाओं की संख्या कम होती है, जिससे लिंग संवेदनशीलता का अभाव रहता है।
संरचनात्मक सिद्धांत हमें दिखाता है कि संस्थागत व्यवस्थाएं कैसे लिंग आधारित असमानता को जन्म देती हैं और बनाए रखती हैं।
दोनों सिद्धांतों का समन्वय: समग्र दृष्टिकोण (Integrating Both Theories: A Holistic Understanding):
शिक्षा में लिंग असमानता को पूरी तरह समझने के लिए समाजीकरण और संरचनात्मक दोनों सिद्धांतों को एक साथ देखना ज़रूरी है। जहां समाजीकरण सिद्धांत यह बताता है कि व्यक्ति कैसे सामाजिक रूप से लिंग भूमिका सीखता है, वहीं संरचनात्मक सिद्धांत यह उजागर करता है कि संस्थागत ढांचे इन भूमिकाओं को कैसे बनाए रखते हैं। उदाहरण के लिए, एक लड़की को परिवार यह सिखाता है कि उसकी भूमिका घर संभालने की है (समाजीकरण), और जब विद्यालय में उसे पर्याप्त अवसर या प्रोत्साहन नहीं मिलता, तो यह विचार और मजबूत हो जाता है (संरचना)। इसलिए, यदि हमें शिक्षा को लिंग समानता का माध्यम बनाना है तो हमें सोच, व्यवहार और संस्थाओं — तीनों स्तरों पर बदलाव लाना होगा।
निष्कर्ष (Conclusion):
भारतीय संदर्भ में शिक्षा और लिंग की परस्पर क्रिया अनेक सामाजिक और संरचनात्मक चुनौतियों को जन्म देती है। हालांकि पिछली कुछ दशकों में लड़कियों की साक्षरता और नामांकन दर में सुधार हुआ है, लेकिन गहरी जड़ें जमाए हुए सामाजिक सोच और संस्थागत बाधाएं अब भी कायम हैं। शिक्षा को वास्तव में समावेशी और सशक्तिकारी बनाने के लिए ज़रूरी है कि हम:
पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों में लिंग-संवेदनशील बदलाव करें।
शिक्षकों को प्रशिक्षण दें जिससे वे लिंग आधारित पूर्वाग्रह को पहचानकर दूर कर सकें।
विद्यालयों में आधारभूत सुविधाएँ विशेष रूप से लड़कियों के लिए सुलभ और सुरक्षित बनाएं।
सरकारी योजनाओं और नीतियों के प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित करें।
जब हम समाजीकरण और संरचनात्मक दोनों दृष्टिकोणों को साथ लेकर चलेंगे, तभी हम शिक्षा को लिंग न्याय और सामाजिक परिवर्तन का वास्तविक माध्यम बना पाएंगे।
Read more....
Post a Comment