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Prenatal Diagnostic Techniques (Regulation and Prevention of Misuse) Act, 1994 गर्भ पूर्व निदान तकनीक (विनियमन और दुरुपयोग की रोकथाम) अधिनियम, 1994

परिचय (Introduction)

गर्भ पूर्व निदान तकनीक (विनियमन और दुरुपयोग की रोकथाम) अधिनियम, 1994, जिसे संक्षेप में पीसी-पीएनडीटी अधिनियम कहा जाता है, भारत सरकार द्वारा पारित एक अत्यंत महत्वपूर्ण और संवेदनशील कानून है, जिसका मूल उद्देश्य आधुनिक चिकित्सीय तकनीकों के माध्यम से गर्भ में लिंग की पहचान कर कन्या भ्रूण हत्या जैसी अमानवीय प्रवृत्तियों को रोकना है। यह अधिनियम भारत में लिंग आधारित भेदभाव की बढ़ती घटनाओं और बालिका लिंगानुपात में निरंतर गिरावट की गंभीर सामाजिक समस्या के समाधान के लिए लाया गया था। समाज में लंबे समय से व्याप्त पितृसत्तात्मक सोच और बेटियों के प्रति भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण ने तकनीक के दुरुपयोग को बढ़ावा दिया, जिससे जन्म से पूर्व ही कन्याओं की हत्या की प्रवृत्ति खतरनाक रूप से बढ़ी। इसी चिंताजनक पृष्ठभूमि में इस कानून की आवश्यकता महसूस की गई। यह अधिनियम 1 जनवरी 1996 से प्रभाव में आया और वर्ष 2003 में इसमें एक महत्वपूर्ण संशोधन किया गया, जिसके अंतर्गत अल्ट्रासाउंड तकनीक को भी अधिनियम की परिधि में लाया गया, जिससे इसके प्रावधान और अधिक सख्त तथा व्यापक हो गए। इस अधिनियम का मूल उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि गर्भावस्था के दौरान की जाने वाली चिकित्सीय जांचों का उपयोग केवल और केवल चिकित्सकीय कारणों से ही किया जाए, न कि भ्रूण के लिंग की पहचान या चयन के लिए। यह कानून न केवल तकनीकी उपकरणों के नियमन का कार्य करता है, बल्कि इसमें दोषियों के लिए कठोर दंड का भी प्रावधान किया गया है, ताकि ऐसे अनैतिक कृत्यों को पूरी तरह से रोका जा सके। इसके अंतर्गत चिकित्सकों, लैब संचालकों और तकनीशियनों की जिम्मेदारियों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है, साथ ही ऐसे केंद्रों का पंजीकरण अनिवार्य किया गया है, जो गर्भावस्था से संबंधित निदान सेवाएं प्रदान करते हैं। यह अधिनियम सामाजिक जागरूकता को बढ़ावा देने, महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने और लैंगिक समानता सुनिश्चित करने की दिशा में एक अहम कदम है। इसके प्रभावी क्रियान्वयन के माध्यम से सरकार का लक्ष्य एक ऐसे समाज का निर्माण करना है जहाँ बेटा और बेटी में कोई भेद न किया जाए, और प्रत्येक जन्म को समान गरिमा व अधिकार प्राप्त हो।

पृष्ठभूमि (Background)

बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में भारत ने चिकित्सा विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की। विशेष रूप से प्रसूति एवं स्त्री रोग विज्ञान के क्षेत्र में कई उन्नत तकनीकों का विकास हुआ, जिनमें अल्ट्रासाउंड स्कैनिंग, एम्नियोसेंटेसिस (Amniocentesis) और कोरियोनिक विलस सैम्पलिंग (Chorionic Villus Sampling) जैसी तकनीकें शामिल थीं। इन तकनीकों का मूल उद्देश्य गर्भस्थ शिशु में जन्म से पूर्व संभावित आनुवंशिक विकारों, क्रोमोसोम संबंधी असामान्यताओं और अन्य चिकित्सकीय जटिलताओं की पहचान करना था, ताकि समय रहते उचित उपचार और परामर्श प्रदान किया जा सके। इनकी मदद से चिकित्सक गर्भावस्था को सुरक्षित रूप से संचालित कर सकते थे और नवजात की स्वास्थ्य सुरक्षा को सुनिश्चित कर सकते थे। भारतीय समाज में लंबे समय से व्याप्त पितृसत्तात्मक संरचना, पुत्र-संतान की सामाजिक और सांस्कृतिक प्राथमिकता तथा बेटी को आर्थिक बोझ मानने की मानसिकता के कारण इन उन्नत तकनीकों का दुरुपयोग होने लगा। भ्रूण परीक्षण के नाम पर लिंग निर्धारण का चलन बढ़ा और गर्भ में यदि भ्रूण स्त्री लिंग का पाया गया, तो उसे समाप्त करने के मामले तेजी से सामने आने लगे। इस प्रकार आधुनिक विज्ञान की उपलब्धियों को सामाजिक कुरीतियों ने एक विकृत दिशा में मोड़ दिया, जिसके परिणामस्वरूप देश के कई राज्यों—विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली जैसे क्षेत्रों में—बालिका जन्म दर में चिंताजनक गिरावट दर्ज की गई। इस गंभीर समस्या ने न केवल सामाजिक असंतुलन को जन्म दिया, बल्कि भविष्य में महिलाओं की घटती संख्या के कारण उत्पन्न होने वाले सामाजिक संकटों की आशंका को भी बढ़ा दिया। विभिन्न सामाजिक कार्यकर्ताओं, महिला संगठनों, और मानवाधिकार समूहों ने इस मुद्दे को गंभीरता से उठाया और सरकार पर इस दिशा में ठोस कदम उठाने का दबाव बनाया। जन जागरूकता अभियानों, आंदोलनों और याचिकाओं के माध्यम से भ्रूण लिंग परीक्षण पर रोक लगाने की माँग तेज हो गई। इन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने “गर्भ पूर्व निदान तकनीक (विनियमन और दुरुपयोग की रोकथाम) अधिनियम, 1994” को संसद में पारित किया। इस अधिनियम के माध्यम से न केवल भ्रूण परीक्षण की तकनीकों के प्रयोग को विनियमित करने की व्यवस्था की गई, बल्कि इसके दुरुपयोग को अपराध की श्रेणी में लाकर कठोर दंडात्मक प्रावधान भी किए गए। इस प्रकार यह कानून चिकित्सा विज्ञान की गरिमा बनाए रखने, महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने और समाज में लैंगिक संतुलन स्थापित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास बनकर सामने आया।

अधिनियम के उद्देश्य (Objectives of the Act)

इस अधिनियम के प्रमुख उद्देश्य हैं —
गर्भधारण से पहले और बाद में लिंग चयन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना।
गर्भपूर्व जांच तकनीकों के प्रयोग को विनियमित करना, ताकि इन्हें केवल चिकित्सकीय आवश्यकताओं जैसे कि आनुवंशिक विकार, जन्मजात दोष, या अन्य गंभीर रोगों के लिए ही प्रयोग किया जाए।
लिंग परीक्षण के दुरुपयोग पर रोक लगाना और दोषियों को कठोर दंड देना।
समाज में नारी और पुरुष के प्रति समान दृष्टिकोण को बढ़ावा देना तथा तकनीकी प्रगति को मानव अधिकारों की रक्षा के रूप में उपयोग करना।

अधिनियम के प्रमुख प्रावधान (Key Provisions of the Act)

1. लिंग चयन पर पूर्ण प्रतिबंध (Prohibition of Sex Selection)

अधिनियम की एक अत्यंत महत्वपूर्ण धारा है — गर्भाधान से पहले और बाद में लिंग चयन पर पूर्ण रोक। धारा 3A के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति — चिकित्सक, तकनीशियन या सामान्य नागरिक — को लिंग चयन या लिंग निर्धारण की अनुमति नहीं है। इसमें शुक्राणु, अंडाणु या भ्रूण का लिंग आधारित चयन भी प्रतिबंधित है। यह प्रावधान लिंग आधारित भ्रूण हत्या की जड़ पर प्रहार करता है और जन्म से पहले ही लिंग भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में एक बड़ा कदम है।

2. जांच तकनीकों का विनियमन (Regulation of Diagnostic Techniques)

यह अधिनियम जांच तकनीकों पर पूर्ण रोक नहीं लगाता, बल्कि उनके नैतिक और चिकित्सकीय उपयोग को नियमित करता है। अल्ट्रासाउंड, एम्नियोसेंटेसिस आदि तकनीकों का उपयोग केवल तब किया जा सकता है जब शिशु में किसी गंभीर बीमारी या विकृति की संभावना हो। डॉक्टरों को स्पष्ट दिशानिर्देशों के अनुसार और उचित दस्तावेजीकरण के साथ ही इन परीक्षणों को करने की अनुमति है।

3. केंद्रों का पंजीकरण अनिवार्य (Mandatory Registration of Centers)

इस अधिनियम के तहत सभी जैविक परामर्श केंद्र, जैविक प्रयोगशालाएं, और डायग्नोस्टिक क्लीनिकों का सरकारी पंजीकरण अनिवार्य है। बिना पंजीकरण के जांच करना कानूनी अपराध है। यह व्यवस्था सुनिश्चित करती है कि केवल अधिकृत और उत्तरदायी संस्थान ही इन तकनीकों का प्रयोग करें।

4. पूर्व-सहमति और लिंग न बताने की बाध्यता (Informed Consent and Prohibition of Sex Disclosure)

कोई भी जांच गर्भवती महिला की लिखित सहमति के बिना नहीं की जा सकती। महिला को जांच से संबंधित सभी पहलुओं की जानकारी दी जानी चाहिए। इसके अलावा, भ्रूण के लिंग की जानकारी देना पूर्ण रूप से निषिद्ध है। यदि कोई डॉक्टर या संस्थान यह जानकारी देता है या देने का प्रयास करता है, तो यह दंडनीय अपराध माना जाएगा।

5. रिकॉर्ड का रख-रखाव (Proper Maintenance of Records)

इस अधिनियम के अंतर्गत सभी केंद्रों को प्रत्येक जांच की पूर्ण जानकारी — जैसे कि सहमति फॉर्म, रेफरल स्लिप, रिपोर्ट आदि — सुरक्षित रूप से संचित करनी होती है। इन अभिलेखों की सरकारी जांच हो सकती है, और यदि रिकॉर्ड अपूर्ण पाए जाते हैं तो उसे अधिनियम का उल्लंघन माना जाता है।

6. निगरानी तंत्र की स्थापना (Establishment of Monitoring Authorities)

अधिनियम के कार्यान्वयन के लिए विभिन्न निगरानी निकायों की स्थापना की गई है। केंद्रीय पर्यवेक्षण बोर्ड राष्ट्रीय स्तर पर नीतियां बनाता है, जबकि राज्य पर्यवेक्षण बोर्ड और उपयुक्त प्राधिकारी राज्य और जिला स्तर पर पंजीकरण, निरीक्षण और कार्रवाई की जिम्मेदारी निभाते हैं। इनके सहयोग के लिए सलाहकार समितियाँ भी बनाई गई हैं जिनमें चिकित्सक, कानूनविद् और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल होते हैं।

दंड और सजा (Penalties and Punishments)

अधिनियम के तहत लिंग निर्धारण या चयन में संलिप्त पाए जाने पर पहली बार दोषी को तीन वर्ष की जेल और ₹10,000 तक जुर्माना हो सकता है। दोहराए गए अपराध पर पांच वर्ष की जेल और ₹50,000 या उससे अधिक जुर्माना लगाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, कोई भी व्यक्ति जो लिंग निर्धारण से संबंधित विज्ञापन देता है, वह भी दंडनीय है। चिकित्सकों की प्रैक्टिस लाइसेंस रद्द की जा सकती है। यह प्रावधान कानून को एक मजबूत निवारक शक्ति प्रदान करता है।

2003 का संशोधन (Amendment of 2003)

गर्भ पूर्व निदान तकनीक (विनियमन और दुरुपयोग की रोकथाम) अधिनियम, 1994 में वर्ष 2003 में एक अत्यंत आवश्यक और निर्णायक संशोधन किया गया, जिससे यह कानून और अधिक सख्त तथा व्यावहारिक हो सका। प्रारंभ में यह अधिनियम केवल उन्हीं तकनीकों तक सीमित था जो भ्रूण के लिंग की पहचान में सीधे प्रयुक्त होती थीं, जैसे कि एम्नियोसेंटेसिस और कोरियोनिक विलस सैम्पलिंग। किंतु जैसे-जैसे अल्ट्रासाउंड तकनीक का प्रसार हुआ और उसका दुरुपयोग भी बढ़ने लगा, यह आवश्यक हो गया कि इस तकनीक को भी स्पष्ट रूप से अधिनियम की परिधि में लाया जाए। 2003 के संशोधन में अल्ट्रासाउंड क्लीनिकों और निदान केंद्रों को अधिनियम के अंतर्गत पंजीकरण कराना अनिवार्य कर दिया गया। इसके अलावा, संबंधित प्राधिकरणों को यह अधिकार प्रदान किए गए कि वे इन केंद्रों की निगरानी करें, आवश्यक दस्तावेजों और अभिलेखों की जांच करें, अनियमितताओं की स्थिति में रिकॉर्ड जब्त करें और मशीनों को सील करने की कार्यवाही करें। यह संशोधन उन केंद्रों के लिए एक स्पष्ट संदेश था जो भ्रूण लिंग परीक्षण जैसे अवैध कार्यों में संलिप्त थे। साथ ही, इन केंद्रों को यह अनिवार्य कर दिया गया कि वे अपने परिसर में स्पष्ट रूप से यह सूचना प्रदर्शित करें कि वे लिंग निर्धारण नहीं करते हैं। इस प्रावधान का उद्देश्य जनता को जागरूक करना और यह सुनिश्चित करना था कि कोई भी व्यक्ति या संस्था इस तकनीक का दुरुपयोग न कर सके। यह संशोधन इस अधिनियम को न केवल अधिक प्रभावी, बल्कि व्यावहारिक रूप से क्रियान्वयन योग्य भी बनाता है, और इसे देशभर में लागू करने के लिए प्रशासन को स्पष्ट दिशा और शक्ति प्रदान करता है।

अधिनियम का प्रभाव (Impact of the Act)

गर्भ पूर्व निदान तकनीक अधिनियम, 1994 और उसके 2003 के संशोधन के लागू होने के पश्चात् देश में भ्रूण लिंग परीक्षण को लेकर कानूनी रूप से स्पष्ट और सख्त रुख अपनाया गया। इस अधिनियम के प्रभावस्वरूप अनेक गैर-पंजीकृत और अवैध रूप से संचालित निदान केंद्रों पर कार्यवाही की गई, कई डॉक्टरों और क्लीनिक संचालकों के खिलाफ मामले दर्ज किए गए, और लिंग निर्धारण करने वाली मशीनों को जब्त कर सील किया गया। इसके साथ ही, इस कानून के माध्यम से समाज में एक सकारात्मक बदलाव लाने की दिशा में भी प्रयास शुरू हुए। सरकार और विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों द्वारा चलाए गए जन-जागरूकता अभियानों, जैसे “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ”, ने लोगों को इस समस्या की गंभीरता से अवगत कराया। शहरी क्षेत्रों में इस विषय पर जागरूकता बढ़ी और लिंगानुपात में कुछ क्षेत्रों में सुधार भी देखने को मिला। यह भी सत्य है कि आज भी देश के अनेक हिस्सों, विशेषकर उत्तर-पश्चिमी राज्यों जैसे हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में बालिका लिंगानुपात चिंताजनक रूप से कम बना हुआ है। यह स्पष्ट संकेत है कि केवल कानून बनाना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि समाज की सोच में भी गहरा बदलाव लाना अनिवार्य है। जब तक माता-पिता बेटियों को समान अधिकार और सम्मान नहीं देंगे, तब तक इस अधिनियम का पूर्ण प्रभाव स्थापित नहीं हो पाएगा।

कार्यान्वयन की चुनौतियाँ (Challenges in Implementation)

पीसी-पीएनडीटी अधिनियम एक सशक्त और स्पष्ट कानूनी दस्तावेज है, इसके सफल कार्यान्वयन की राह में अनेक व्यवहारिक और प्रशासनिक चुनौतियाँ सामने आती हैं। सबसे बड़ी समस्या ग्रामीण और दूर-दराज के इलाकों में जागरूकता की कमी है, जहाँ भ्रूण लिंग परीक्षण को अब भी सामाजिक रूप से स्वीकार्य माना जाता है। यहाँ तकनीकी ज्ञान की कमी, शिक्षा का अभाव और परंपरागत सोच अधिनियम के प्रभाव को सीमित कर देती है। इसके अतिरिक्त, चिकित्सा क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, और कुछ डॉक्टरों द्वारा पैसे के लालच में कानून का उल्लंघन करने जैसी समस्याएं इस अधिनियम की भावना को आहत करती हैं। कई बार स्थानीय प्रशासनिक निकायों की उदासीनता और निरीक्षण में लापरवाही के कारण भी ऐसे अवैध कार्य चलते रहते हैं। न्यायिक प्रणाली की धीमी प्रक्रिया, मामलों में वर्षों तक फैसला न आना, और दोषियों को कम सजा या छूट मिल जाना भी इस अधिनियम की प्रभावशीलता को कमजोर बनाते हैं। इसलिए इस अधिनियम के सफल क्रियान्वयन हेतु बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है—जिसमें कानून की सख्त निगरानी, समयबद्ध न्याय प्रक्रिया, चिकित्सा क्षेत्र में नैतिक शिक्षा का समावेश, और समाज के हर स्तर पर लिंग समानता को लेकर गहरी समझ और सम्मान की भावना उत्पन्न करना शामिल है। केवल कानून से नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना और नैतिक मूल्यों के समवेत प्रयास से ही इस समस्या का स्थायी समाधान संभव है।

निष्कर्ष (Conclusion)

गर्भ पूर्व निदान तकनीक (विनियमन और दुरुपयोग की रोकथाम) अधिनियम, 1994 भारत सरकार द्वारा पारित एक ऐसा प्रभावशाली और दूरदर्शी कानून है, जो देश में लिंग आधारित भेदभाव और कन्या भ्रूण हत्या जैसी अमानवीय प्रवृत्तियों पर रोक लगाने के लिए बनाया गया है। यह अधिनियम केवल एक कानूनी प्रावधान नहीं है, बल्कि यह सामाजिक न्याय, मानवाधिकारों और लैंगिक समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है। इस कानून के माध्यम से यह सुनिश्चित किया गया है कि विज्ञान और तकनीक का उपयोग समाज के हित में हो—ऐसे उद्देश्यों के लिए जो जीवन की रक्षा करें, लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करें, और महिलाओं को उनके जन्म से ही गरिमा और अधिकार दिलाएं। यह अधिनियम आधुनिक चिकित्सा प्रणाली को एक नैतिक दिशा प्रदान करता है, जिससे यह तय होता है कि कोई भी तकनीक केवल लाभ के लिए नहीं, बल्कि मानवीय मूल्यों को संरक्षित करने के लिए प्रयोग में लाई जाए। यह कानून एक मजबूत ढांचा प्रदान करता है, इसकी वास्तविक सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि समाज कितना जागरूक, संवेदनशील और उत्तरदायी बनता है। यदि समाज में बेटियों को समान अवसर, सम्मान और प्रेम नहीं मिलेगा, तो केवल कानून से बदलाव संभव नहीं होगा। इसलिए, यह आवश्यक है कि हर नागरिक—चाहे वह डॉक्टर हो, माता-पिता हो, शिक्षक हो या प्रशासक—इस अधिनियम की भावना को समझे और अपने-अपने स्तर पर इसे लागू करने में सहयोग करे। जब तक समाज में प्रत्येक बच्चे के जन्म को समान अधिकारों और गरिमा के साथ स्वीकार नहीं किया जाता, तब तक यह लड़ाई अधूरी रहेगी। एक समतामूलक और संवेदनशील समाज की स्थापना के लिए यह अधिनियम एक दिशा-संकेतक के रूप में कार्य करता है, जो हमें यह सिखाता है कि तकनीक का सही उपयोग वही है जो जीवन की रक्षा करे, न कि उसे समाप्त करे।

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