Meaning, Concept and Impact on Education of Governmentization सरकारीकरण का अर्थ, अवधारणा और शिक्षा पर प्रभाव
1. प्रस्तावना (Introduction)
वर्तमान समय में शिक्षा न केवल व्यक्ति के बौद्धिक और सामाजिक विकास का माध्यम है, बल्कि यह राष्ट्र की प्रगति और सामाजिक न्याय की स्थापना का भी प्रमुख आधार बन चुकी है। इसी कारण से शिक्षा को एक सार्वभौमिक अधिकार तथा सरकार की प्रमुख जिम्मेदारी के रूप में स्वीकार किया गया है। आधुनिक शैक्षिक व्यवस्था में सरकार की भूमिका दिन-प्रतिदिन व्यापक और प्रभावशाली होती जा रही है। पहले जहां शिक्षा का संचालन समाज, समुदाय, धार्मिक संस्थाएं या निजी पहल पर आधारित था, वहीं अब यह धीरे-धीरे एक संगठित और नीति-निर्धारित प्रक्रिया बन चुकी है, जिसमें सरकार केंद्र में आ गई है। सामाजिक असमानता, आर्थिक विषमता, जातीय भेदभाव और क्षेत्रीय विकास की असंतुलित स्थिति ने यह स्पष्ट किया कि अगर शिक्षा को सभी तक समान रूप से पहुँचाना है, तो इसके संचालन में राज्य को सक्रिय भूमिका निभानी ही होगी। इसी क्रम में शिक्षा में सरकार की बढ़ती दखलंदाजी और नियंत्रण को 'सरकारीकरण' (Governmentization) कहा जाता है। यह केवल शैक्षिक संस्थानों की स्थापना तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके अंतर्गत पाठ्यक्रम निर्धारण, शैक्षिक बजट आवंटन, शिक्षक नियुक्ति, निरीक्षण, मूल्यांकन प्रणाली तथा नीति निर्माण जैसे कई स्तरों पर सरकार का सीधा हस्तक्षेप शामिल है। सरकारीकरण की इस प्रक्रिया ने शिक्षा को एक निजी सेवा से बदलकर सार्वजनिक सेवा बना दिया है। इस लेख में हम विस्तारपूर्वक यह समझने का प्रयास करेंगे कि सरकारीकरण क्या है, इसकी अवधारणा किस सिद्धांत पर आधारित है, और यह शिक्षा प्रणाली पर किस प्रकार के सकारात्मक व नकारात्मक प्रभाव छोड़ता है।
2. सरकारीकरण का अर्थ (Meaning of Governmentization)
सरकारीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके अंतर्गत शिक्षा के समस्त घटकों जैसे – योजना निर्माण, शैक्षिक संस्थानों का प्रबंधन, वित्तीय व्यवस्था, शैक्षणिक ढांचे का संचालन, पाठ्यक्रम निर्धारण और मूल्यांकन प्रणाली – में सरकार की भूमिका निरंतर विस्तृत होती जाती है। यह केवल शिक्षा की निगरानी या सहायता तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके माध्यम से राज्य शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर नीतिगत और क्रियान्वयन स्तर पर नियंत्रण स्थापित करता है। इसमें सरकारी विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की स्थापना के साथ-साथ निजी शैक्षणिक संस्थाओं के पंजीकरण, मान्यता, शुल्क संरचना, पाठ्यचर्या और शिक्षण गुणवत्ता का नियमन भी शामिल होता है। सरल शब्दों में कहें तो, सरकारीकरण उस प्रक्रिया को कहा जाता है, जिसके अंतर्गत शिक्षा को केवल निजी या पारिवारिक प्रयासों पर आधारित न मानकर राज्य की एक मौलिक जिम्मेदारी के रूप में स्वीकार किया जाता है। यह अवधारणा इस विचार पर आधारित है कि शिक्षा एक सार्वजनिक भलाई (public good) है, जिसे प्रत्येक नागरिक को समान रूप से प्राप्त करने का अधिकार है, और इसके लिए सरकार को बाध्य किया जाना चाहिए कि वह संसाधन मुहैया कराए, संस्थान स्थापित करे और उपयुक्त नीतियाँ बनाए। विशेष रूप से विकासशील और पिछड़े देशों में, जहां जातीय, सामाजिक और आर्थिक असमानताएँ गहरी होती हैं, वहाँ शिक्षा के सरकारीकरण को एक प्रभावशाली उपाय के रूप में देखा गया है ताकि शिक्षा की पहुँच को व्यापक, समावेशी और न्यायसंगत बनाया जा सके। यह केवल शैक्षिक समानता ही नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता, राष्ट्रीय एकता और मानव संसाधन विकास की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण कदम माना जाता है।
3. शिक्षा में सरकारीकरण की अवधारणा (Concept of Governmentization in Education)
शिक्षा में सरकारीकरण की अवधारणा इस मूल विश्वास पर आधारित है कि शिक्षा न केवल एक व्यक्तिगत आवश्यकता है, बल्कि यह प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार भी है। शिक्षा व्यक्ति के सामाजिक, मानसिक, आर्थिक और नैतिक विकास की नींव रखती है। साथ ही, यह सामाजिक असमानताओं को दूर करने, अवसरों की समानता सुनिश्चित करने और सामाजिक न्याय की स्थापना का प्रमुख माध्यम भी बनती है। इसलिए जब शिक्षा को एक परिवर्तनकारी शक्ति के रूप में देखा जाता है, तो यह स्पष्ट होता है कि समाज में शिक्षा की सार्वभौमिक पहुँच केवल राज्य के हस्तक्षेप से ही संभव हो सकती है। राज्य को संविधान द्वारा यह उत्तरदायित्व सौंपा गया है कि वह नागरिकों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिए आवश्यक संसाधनों और व्यवस्थाओं को सुनिश्चित करे। इस दायित्व के अंतर्गत, शिक्षा का सार्वजनिकीकरण और गुणवत्तापूर्ण वितरण सरकार की अनिवार्य भूमिका बन जाता है। सरकारीकरण की अवधारणा यह सुनिश्चित करती है कि सामाजिक, आर्थिक, जातीय या भौगोलिक परिस्थितियाँ किसी भी व्यक्ति को शिक्षा से वंचित न करें।
शिक्षा में सरकारीकरण के अंतर्गत राज्य की भूमिका अनेक रूपों में सामने आती है, जो इस प्रकार विस्तारित की जा सकती हैं:
सेवाप्रदाता के रूप में (As a Provider): सरकार शिक्षा के क्षेत्र में एक सक्रिय सेवाप्रदाता के रूप में कार्य करती है। वह ग्रामीण, जनजातीय, पिछड़े तथा शहरी क्षेत्रों में विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की स्थापना करती है, जिससे शिक्षा का भौगोलिक प्रसार हो सके। यह प्रयास सुनिश्चित करता है कि देश के किसी भी कोने में रहने वाला बच्चा शिक्षा से वंचित न रहे। बालिका शिक्षा, विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों की शिक्षा तथा अल्पसंख्यक समुदायों की शिक्षा के लिए भी सरकार विशेष योजनाएं संचालित करती है।
नियामक के रूप में (As a Regulator): शिक्षा की गुणवत्ता को बनाए रखने और उसके मानकों को सुनिश्चित करने के लिए सरकार एक नियामक की भूमिका निभाती है। इसके लिए विभिन्न केंद्रीय और राज्य स्तरीय संस्थाओं जैसे – विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC), राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT), राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (NCTE), तकनीकी शिक्षा परिषद (AICTE) आदि की स्थापना की गई है। ये संस्थाएं पाठ्यक्रम निर्माण, शिक्षक प्रशिक्षण, मूल्यांकन प्रणाली और संस्थागत मान्यता जैसे कार्यों में मानक स्थापित करती हैं, ताकि शिक्षा प्रणाली पारदर्शी और गुणवत्तापूर्ण बनी रहे।
वित्तपोषक के रूप में (As a Financier): शिक्षा का विस्तार और संचालन बिना पर्याप्त आर्थिक सहायता के संभव नहीं है। इस कारण सरकार शिक्षा के लिए वार्षिक बजट में पर्याप्त निधि का प्रावधान करती है। इसके अंतर्गत विद्यालयों की इमारतों का निर्माण, शिक्षकों व कर्मचारियों का वेतन, छात्रवृत्तियों का वितरण, मध्यान्ह भोजन योजना, मुफ्त पाठ्यपुस्तकें, साइकिल वितरण योजनाएं और छात्रावास सुविधाएं आदि शामिल होती हैं। विशेष रूप से समाज के आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए वित्तीय सहायता शिक्षा प्राप्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
नीति-निर्माता के रूप में (As a Policy-Maker): शिक्षा की दिशा और दशा निर्धारित करने में सरकार की नीति-निर्माण प्रक्रिया अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP), राज्य स्तरीय नीतियां, शैक्षिक दृष्टिकोण, पाठ्यचर्या निर्माण तथा मूल्यांकन पद्धति – यह सभी शिक्षा के उद्देश्य और लक्ष्यों को परिभाषित करते हैं। सरकार समय-समय पर सामाजिक आवश्यकताओं और वैश्विक बदलावों को ध्यान में रखते हुए नई नीतियाँ बनाती है ताकि शिक्षा समसामयिक और प्रासंगिक बनी रहे।
अंततः, सरकारीकरण की यह अवधारणा यह सुनिश्चित करने का प्रयास करती है कि शिक्षा केवल कुछ विशेष वर्गों तक सीमित न रहे, बल्कि समाज के सभी वर्गों, विशेषकर वंचित और उपेक्षित समुदायों तक इसकी पहुँच हो। यह एक ऐसा दृष्टिकोण है जो समावेशिता, समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को मूर्त रूप देता है और देश के समग्र विकास की नींव को मजबूत करता है।
4. शिक्षा पर सरकारीकरण का प्रभाव (Impact of Governmentization on Education)
शिक्षा पर सरकारीकरण का प्रभाव बहुआयामी है, जिसे सकारात्मक और नकारात्मक दोनों दृष्टिकोणों से समझा जा सकता है:
A. सकारात्मक प्रभाव (Positive Impacts)
i. सार्वभौमिक पहुंच और सामाजिक समावेशन (Ensuring Universal Access and Social Inclusion)
सरकारीकरण की प्रक्रिया का सबसे प्रमुख सकारात्मक पक्ष यह है कि इसके माध्यम से शिक्षा को समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचाने का प्रयास किया गया है। ग्रामीण, दूरवर्ती और सीमावर्ती क्षेत्रों में स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना से वहाँ के बच्चों को भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अवसर मिला है, जो पहले केवल शहरी क्षेत्रों तक सीमित थी। इसके अतिरिक्त सरकार ने बालिकाओं, अनुसूचित जातियों, जनजातियों, विकलांगजनों और अल्पसंख्यक समुदायों के लिए विशेष योजनाएं चलाई हैं, जिनमें छात्रवृत्तियां, निःशुल्क पुस्तकें, ड्रेस वितरण और भोजन योजना जैसी सुविधाएं शामिल हैं। इससे शिक्षा समावेशी बन सकी है और समाज के वंचित वर्गों को मुख्यधारा से जोड़ा जा सका है।
ii. पाठ्यक्रम की एकरूपता और मानकीकरण (Standardization and Uniform Curriculum)
शिक्षा के क्षेत्र में सरकारीकरण ने पाठ्यक्रम और मूल्यांकन प्रणाली को एकरूप और मानकीकृत करने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। राष्ट्रीय शैक्षिक निकाय जैसे एनसीईआरटी और राज्य शिक्षा बोर्डों के माध्यम से एक समान पाठ्यक्रम लागू किए गए हैं, जिससे देश के विभिन्न क्षेत्रों के छात्रों को समान शैक्षिक अवसर प्राप्त होते हैं। यह समानता केवल शैक्षिक उपलब्धि तक सीमित नहीं रहती, बल्कि यह राष्ट्रीय एकता, साझा सांस्कृतिक विरासत और राष्ट्रनिर्माण की भावना को भी सुदृढ़ करती है। इस प्रक्रिया से ग्रामीण और शहरी विद्यार्थियों के बीच का ज्ञान अंतर कम हुआ है।
iii. समानता और सामाजिक न्याय का विस्तार (Promotion of Equity and Social Justice)
सरकारीकरण के माध्यम से शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन और समानता का माध्यम बनाया गया है। आरक्षण नीति के अंतर्गत पिछड़े वर्गों को उच्च शिक्षा में अवसर प्रदान किए गए हैं। इसके साथ ही मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा, छात्रवृत्ति योजनाएं, साइकिल वितरण, कन्या सुमंगला जैसी योजनाओं के माध्यम से समाज के वंचित वर्गों को मुख्यधारा में लाने के प्रयास किए गए हैं। इन पहलों से शिक्षा सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को साकार करती है, जिससे समाज में समान अवसरों की स्थापना संभव हुई है।
iv. नियमन और गुणवत्ता नियंत्रण (Regulation and Quality Control)
शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने कई नियामक संस्थाओं और नियमों की स्थापना की है। यूजीसी, एनसीईआरटी, एनसीटीई, एनएएसी जैसी संस्थाएं विभिन्न शैक्षिक संस्थानों के मानकों की निगरानी करती हैं और उन्हें आवश्यकतानुसार सुधारने के दिशा-निर्देश देती हैं। यह व्यवस्था विशेष रूप से निजी शिक्षा संस्थानों पर नियंत्रण के लिए प्रभावी रही है, जो कभी-कभी लाभ कमाने की होड़ में शिक्षा की गुणवत्ता से समझौता करते हैं। इन संस्थानों पर अंकुश लगाकर सरकार ने छात्रों के हितों की रक्षा की है।
v. रोजगार के अवसर और सरकारी सेवाएं (Job Creation and Public Employment)
सरकारीकरण के माध्यम से शिक्षा क्षेत्र में लाखों लोगों को रोजगार मिला है। शिक्षक, प्राचार्य, प्रशासक, क्लर्क, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी, पुस्तकालयाध्यक्ष, प्रयोगशाला सहायकों आदि के रूप में रोजगार के अवसर सृजित हुए हैं। इसके अलावा शिक्षा से संबंधित विभागों, प्रशिक्षण संस्थानों और अनुसंधान केंद्रों में भी विशेषज्ञों और प्रशिक्षकों की आवश्यकता होती है, जो योग्य युवाओं को सरकारी सेवा में अवसर प्रदान करती है। यह सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से भी अत्यंत लाभकारी सिद्ध हुआ है।
B. नकारात्मक प्रभाव (Negative Impacts)
i. नौकरशाहीकरण और प्रशासनिक जड़ता (Bureaucratization and Administrative Inefficiency)
सरकारीकरण के कारण शिक्षा व्यवस्था में अत्यधिक नौकरशाही प्रवेश कर चुकी है, जिससे योजनाओं का निर्माण और क्रियान्वयन एक धीमी और जटिल प्रक्रिया बन गई है। स्कूलों और कॉलेजों के स्तर पर निर्णय लेने की स्वतंत्रता कम हो जाती है, क्योंकि हर छोटे-बड़े निर्णय के लिए उच्च अधिकारियों की स्वीकृति आवश्यक होती है। इससे नवाचार और त्वरित सुधार बाधित होते हैं, और अकसर योजनाएं समय पर लागू नहीं हो पातीं। नौकरशाही की यह जड़ता व्यवस्था को अकुशल बना देती है।
ii. राजनीतिक हस्तक्षेप और पक्षपात (Political Interference and Nepotism)
शिक्षा का राजनीतिकरण एक गंभीर समस्या के रूप में उभरकर सामने आया है। शिक्षकों की नियुक्ति, स्थानांतरण, प्रमोशन और बजट आवंटन जैसी प्रक्रियाएं कई बार राजनीतिक प्रभाव और सिफारिशों पर आधारित होती हैं, जिससे योग्यता और पारदर्शिता पर आघात होता है। कई बार शिक्षण संस्थानों में प्रशासनिक पदों पर ऐसे लोग नियुक्त किए जाते हैं, जो योग्यता की अपेक्षा राजनीतिक निकटता के आधार पर चुने जाते हैं। इससे न केवल संस्थान की गरिमा प्रभावित होती है, बल्कि छात्रों की गुणवत्ता और अनुशासन भी प्रभावित होता है।
iii. संस्थागत स्वतंत्रता में कमी (Lack of Institutional Autonomy)
सरकारीकरण के तहत शैक्षणिक संस्थानों को अपनी नीतियों, पाठ्यक्रम और शोध दिशा तय करने में स्वतंत्रता कम मिलती है। अनेक बार संस्थान अपनी आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन या नवाचार करना चाहते हैं, लेकिन सरकारी दिशा-निर्देश और प्रक्रियाएं इतनी जटिल होती हैं कि वे ऐसा कर नहीं पाते। इससे शिक्षण प्रक्रिया में नवीनता और लचीलापन समाप्त हो जाता है और संस्थान केवल निर्देशों का पालन करने वाली इकाइयाँ बनकर रह जाते हैं।
iv. गुणवत्ता की कमी (Quality Concerns in Government Schools and Colleges)
हालाँकि सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक निवेश किया है, फिर भी कई सरकारी विद्यालयों और कॉलेजों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की कमी देखी जाती है। इसमें भवनों की कमी, शौचालयों का अभाव, पुस्तकालयों व प्रयोगशालाओं की अनुपलब्धता, प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी और छात्रों की उपस्थिति कम होना जैसी समस्याएं शामिल हैं। इसके अलावा, कई बार शिक्षकों की अनुपस्थिति और प्रशासनिक उदासीनता के कारण शिक्षा का स्तर गिर जाता है, जिससे छात्र सरकारी विद्यालयों से निजी स्कूलों की ओर पलायन करने लगते हैं।
v. नवाचार और परिवर्तन का अभाव (Resistance to Change and Reform)
सरकारी शिक्षा संस्थानों में काम करने वाले कर्मचारियों को स्थायी रोजगार और निश्चित वेतन तो मिलता है, लेकिन उन पर कार्यदक्षता या परिणाम आधारित मूल्यांकन का पर्याप्त दबाव नहीं होता। इससे उनमें नवाचार, तकनीकी उन्नयन या शिक्षण पद्धतियों में परिवर्तन के प्रति रुचि कम होती है। धीरे-धीरे यह व्यवस्था निष्क्रियता और जड़ता की स्थिति पैदा कर देती है, जहाँ सुधार या आधुनिक तकनीकों को अपनाने की गति अत्यंत धीमी हो जाती है।
5. सरकारीकरण और स्वायत्तता में संतुलन (Balancing Government Control and Institutional Autonomy)
जहाँ एक ओर शिक्षा का सरकारीकरण देश के प्रत्येक नागरिक तक शिक्षा पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, वहीं दूसरी ओर यह भी उतना ही आवश्यक है कि शैक्षणिक संस्थानों को अपनी आवश्यकताओं और क्षेत्रीय विशेषताओं के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता भी मिले। अत्यधिक नियंत्रण की स्थिति में निर्णय लेने की प्रक्रिया जटिल हो जाती है, जिससे नवाचार और प्रभावी क्रियान्वयन में बाधा उत्पन्न होती है। इसलिए एक ऐसा संतुलन स्थापित करना जरूरी है जहाँ सरकार नीतिगत दिशा तो प्रदान करे, लेकिन संस्थानों को निर्णय लेने, कार्यान्वयन और सुधार की प्रक्रिया में लचीलापन भी मिले। शिक्षा की गुणवत्ता और समावेशिता तभी संभव है जब सरकारी मार्गदर्शन को संस्थागत स्वायत्तता के साथ संतुलित किया जाए।
संतुलन के उपाय (Strategies for Balance)
i. जन-सहभागिता और सार्वजनिक-निजी भागीदारी (Promoting Public-Private Partnerships - PPPs)
सरकारी और निजी क्षेत्र के बीच सहयोग को बढ़ावा देकर शिक्षा व्यवस्था को अधिक उत्तरदायी और नवाचारी बनाया जा सकता है। निजी क्षेत्र अपनी पूंजी, तकनीक और विशेषज्ञता के माध्यम से संसाधनों की गुणवत्ता में सुधार कर सकता है, जबकि सरकार यह सुनिश्चित कर सकती है कि यह सहयोग समावेशी और न्यायसंगत बना रहे। एनजीओ, सामाजिक संगठनों और स्थानीय समुदायों की भागीदारी से शिक्षा प्रणाली अधिक प्रासंगिक और ज़मीनी हकीकत से जुड़ी हो सकती है।
ii. विकेन्द्रीकृत निर्णय-प्रक्रिया (Decentralized Decision-Making)
केंद्र से लेकर ज़िला और विद्यालय स्तर तक निर्णय लेने की शक्ति का विकेंद्रीकरण करना समय की मांग है। विद्यालय प्रबंधन समितियाँ, शिक्षक समूह और स्थानीय प्रशासन जब निर्णय प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी निभाते हैं, तब नीतियों का क्रियान्वयन ज़मीनी स्तर पर अधिक प्रभावी होता है। यह प्रणाली न केवल संस्थानों को अधिक उत्तरदायी बनाती है, बल्कि स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार योजनाओं को ढालने की सुविधा भी देती है।
iii. उत्तरदायित्व के साथ स्वायत्तता (Institutional Autonomy with Accountability)
शैक्षणिक संस्थानों को प्रशासनिक, शैक्षणिक और वित्तीय मामलों में स्वतंत्रता प्रदान की जानी चाहिए ताकि वे अपनी क्षमता के अनुसार नवाचार कर सकें। लेकिन साथ ही, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इन संस्थानों की जवाबदेही तय हो – चाहे वह विद्यार्थियों के प्रदर्शन की हो, संसाधनों के उपयोग की हो या शैक्षणिक गुणवत्ता की। नियमित मूल्यांकन, पारदर्शी प्रक्रिया और प्रदर्शन आधारित मानक इस संतुलन को बनाए रखने में सहायक हो सकते हैं।
iv. डिजिटल तकनीक का समावेश (Technology Integration and Digital Education)
डिजिटल शिक्षा आज के समय की आवश्यकता बन चुकी है, लेकिन इसे थोपने के बजाय संस्थानों को यह अधिकार दिया जाना चाहिए कि वे अपनी ज़रूरतों और संसाधनों के अनुसार उपयुक्त तकनीक का चयन करें। सरकार को तकनीकी अवसंरचना, प्रशिक्षण और डिजिटल सामग्री उपलब्ध कराने की भूमिका निभानी चाहिए, जबकि शिक्षण संस्थान अपने संदर्भ के अनुसार इन तकनीकों का उपयोग कर सकें – जिससे डिजिटल डिवाइड को भी कम किया जा सके।
v. शिक्षकों और नेतृत्व की क्षमता वृद्धि (Capacity Building and Continuous Training)
शिक्षकों और शैक्षणिक नेताओं की भूमिका किसी भी शैक्षिक सुधार की नींव होती है। नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम, कार्यशालाएं, नेतृत्व विकास सत्र, और मूल्यांकन आधारित उन्नयन न केवल उनकी दक्षता बढ़ाते हैं बल्कि उन्हें प्रेरित भी करते हैं। एक सशक्त शिक्षक ही एक सशक्त शिक्षा प्रणाली की पहचान है, इसलिए सरकार को इस क्षेत्र में निरंतर निवेश करना चाहिए।
6. निष्कर्ष (Conclusion)
शिक्षा का सरकारीकरण एक शक्तिशाली उपकरण है जो शिक्षा को जन-जन तक पहुँचाने, सामाजिक समानता को बढ़ावा देने और राष्ट्रीय विकास में योगदान देने में सहायक है। यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी नागरिक शिक्षा से वंचित न रह जाए, विशेष रूप से वे जो समाज के वंचित वर्गों से आते हैं। लेकिन इसी प्रक्रिया में यदि अत्यधिक केंद्रीकरण और नियंत्रण हावी हो जाता है, तो यह शिक्षा संस्थानों की कार्यक्षमता, नवाचार और प्रतिस्पर्धात्मकता को प्रभावित करता है। इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि सरकार एक सहायक की भूमिका में रहे – जो दिशा दे, संसाधन दे, परंतु नियंत्रण की बजाय विश्वास और स्वायत्तता को प्रोत्साहित करे। जब सरकारीकरण को पारदर्शिता, उत्तरदायित्व, संस्थागत स्वतंत्रता और जन-सहभागिता के साथ संतुलित किया जाएगा, तभी भारत एक समावेशी, आधुनिक और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व्यवस्था की ओर अग्रसर हो सकेगा, जो वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम हो।
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