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Role of Women in Environment Conservation: Chipko Movement, Khejri Movement पर्यावरण संरक्षण में महिलाओं की भूमिका: चिपको आंदोलन, खेजड़ी आंदोलन

परिचय

पर्यावरण संरक्षण आज वैश्विक चिंता का एक प्रमुख विषय बन गया है, विशेष रूप से बढ़ते औद्योगीकरण, वनों की कटाई, जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिक असंतुलन के संदर्भ में। यद्यपि नीतियाँ और अंतर्राष्ट्रीय समझौते इस दिशा में योगदान देते हैं, लेकिन व्यक्तिगत और समुदाय स्तर पर किए गए प्रयासों की महत्ता को नकारा नहीं जा सकता—विशेषकर महिलाओं की भूमिका को। इतिहास गवाह है कि महिलाएँ न केवल पर्यावरणीय परिवर्तनों से प्रभावित होती हैं, बल्कि वे स्वयं पर्यावरण की रक्षक और संरक्षक भी रही हैं। भारत में दो प्रमुख घटनाएँ—चिपको आंदोलन (हिमालय क्षेत्र में) और खेजड़ी आंदोलन (राजस्थान के विश्नोई समुदाय द्वारा)—महिलाओं की पर्यावरण के प्रति प्रतिबद्धता का प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। ये आंदोलन नारी शक्ति, पर्यावरणीय चेतना और सतत जीवन शैली के प्रतीक हैं। इनसे यह स्पष्ट होता है कि पर्यावरण संरक्षण, लैंगिक समानता और सामाजिक न्याय के बीच गहरा संबंध है।

महिलाएँ और पर्यावरण: एक प्राकृतिक संबंध

ग्रामीण और जनजातीय क्षेत्रों की महिलाएँ प्रतिदिन प्रकृति के साथ गहरा जुड़ाव रखती हैं—चाहे वह जल, लकड़ी, चारा, औषधीय पौधों या अन्य संसाधनों का संग्रह हो। यह सतत संपर्क उन्हें पर्यावरण के प्रति न केवल व्यावहारिक अनुभव देता है, बल्कि भावनात्मक और सांस्कृतिक जुड़ाव भी प्रदान करता है। पुरुषप्रधान औद्योगिक दृष्टिकोण जहाँ प्रकृति को दोहन योग्य संसाधन मानता है, वहीं महिलाएँ उसे एक जीवंत प्रणाली के रूप में देखती हैं, जिसकी रक्षा और संतुलन आवश्यक है। यह जागरूकता पीढ़ी दर पीढ़ी महिलाओं के माध्यम से आगे बढ़ती है, जिससे एक सामाजिक और पारिस्थितिक उत्तरदायित्व का निर्माण होता है। यही कारण है कि जब पर्यावरण संकट आता है, तो महिलाएँ सबसे पहले प्रतिक्रिया देती हैं और संरक्षण की अगुवाई करती हैं। उनकी यह भूमिका केवल सहायक नहीं, बल्कि नेतृत्वकारी और प्रेरणादायक होती है।

चिपको आंदोलन: प्रकृति को गले लगाने का साहस

उत्पत्ति और पृष्ठभूमि

1970 के दशक की शुरुआत में उत्तराखंड (तत्कालीन उत्तर प्रदेश) के गढ़वाल क्षेत्र में चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई। यह आंदोलन वन विभाग द्वारा बड़े पैमाने पर व्यावसायिक वृक्ष कटाई के विरोध में स्थानीय समुदायों द्वारा शुरू किया गया। इन जंगलों की कटाई न केवल पारिस्थितिक असंतुलन ला सकती थी, बल्कि इससे भूस्खलन, जलस्रोतों का सूखना और कृषि उत्पादन में गिरावट जैसी समस्याएँ भी उत्पन्न हो सकती थीं। स्थानीय महिलाओं ने महसूस किया कि यह केवल पेड़ों का नुकसान नहीं है, बल्कि उनके जीवन और भविष्य का संकट है। “चिपको” शब्द का अर्थ है “गले लगाना”, और इस आंदोलन में महिलाओं ने पेड़ों को गले लगाकर उनकी कटाई रोकने का साहसिक निर्णय लिया। यह केवल एक विरोध नहीं था, बल्कि एक भावनात्मक, नैतिक और पारिस्थितिक संघर्ष था।

महिलाओं की भूमिका

इस आंदोलन की सफलता में महिलाओं की भूमिका निर्णायक रही। गौरा देवी और उनकी साथियों ने जब लकड़हारों को जंगल काटने से रोका, तब गाँव के पुरुष बाहर थे। गौरा देवी के नेतृत्व में महिलाओं ने नारा दिया, “यह जंगल हमारी माँ का घर है, इसे हम नष्ट नहीं होने देंगे।” उन्होंने निहत्थे होते हुए भी सशस्त्र ठेकेदारों का विरोध किया और पेड़ों के चारों ओर मानवीय दीवार बनाकर उन्हें कटने से रोका। इस घटना ने यह सिद्ध कर दिया कि महिलाएँ न केवल पर्यावरण के प्रति संवेदनशील हैं, बल्कि आवश्यक होने पर संघर्ष और नेतृत्व भी कर सकती हैं। चिपको आंदोलन में महिलाओं ने यह दिखाया कि पर्यावरणीय चेतना केवल शहरी बौद्धिक विमर्श नहीं, बल्कि एक जमीनी संघर्ष भी है।

प्रभाव और विरासत

चिपको आंदोलन का प्रभाव न केवल उत्तर भारत तक सीमित रहा, बल्कि इसने पूरे देश में पर्यावरणीय चेतना की लहर पैदा की। इसके परिणामस्वरूप सरकार को 15 वर्षों के लिए हिमालयी क्षेत्रों में वृक्ष कटाई पर प्रतिबंध लगाना पड़ा। इस आंदोलन ने नीति-निर्माताओं, पर्यावरणविदों और समाज को यह संदेश दिया कि समुदाय-आधारित संरक्षण कितना प्रभावशाली हो सकता है। इस आंदोलन ने ‘ईको-फेमिनिज्म’ (पारिस्थितिक नारीवाद) को भी प्रेरित किया, जहाँ महिलाओं को पर्यावरण संरक्षण की अग्रणी शक्तियों के रूप में पहचाना गया। आज भी चिपको आंदोलन एक वैश्विक प्रतीक है जो बताता है कि साधारण महिलाएँ भी असाधारण परिवर्तन ला सकती हैं।

खेजड़ी आंदोलन: विश्नोई समाज का बलिदान

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

चिपको आंदोलन से लगभग 250 वर्ष पूर्व, राजस्थान के जोधपुर के पास स्थित खेजड़ली गाँव में विश्नोई समुदाय द्वारा एक अत्यंत प्रेरणादायक पर्यावरणीय आंदोलन हुआ। यह आंदोलन खेजड़ी वृक्ष (Prosopis cineraria) की रक्षा के लिए लड़ा गया, जो मरुस्थलीय क्षेत्र में पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने के लिए अत्यंत आवश्यक था। विश्नोई समुदाय के संस्थापक गुरु जंभेश्वर ने 29 नियमों को जीवन का आधार बनाया, जिनमें पेड़-पौधों और जीवों की रक्षा प्रमुख थी। जब जोधपुर के राजा ने अपने महल के निर्माण हेतु लकड़ी कटवाने का आदेश दिया, तो उसके सैनिक खेजड़ली गाँव पहुँचे। लेकिन वहाँ उन्हें महिलाओं और गाँव वालों के सशक्त विरोध का सामना करना पड़ा।

अमृता देवी और अन्य महिलाओं का बलिदान

अमृता देवी, एक विश्नोई महिला, ने राजा के सैनिकों से कहा—“एक पेड़ बचाने के लिए अगर सिर भी कट जाए तो सस्ता सौदा है।” यह कहकर उन्होंने पेड़ को गले लगाया और अपने प्राणों की आहुति दे दी। उनकी तीन बेटियाँ और लगभग 363 अन्य ग्रामीणों ने भी यही राह अपनाई और पेड़ों की रक्षा के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। यह घटना विश्व इतिहास में पर्यावरण संरक्षण के लिए दी गई सबसे बड़ी सामूहिक शहादतों में से एक है। यह आंदोलन केवल धार्मिक आस्था पर आधारित नहीं था, बल्कि पर्यावरण के प्रति उस गहरी समझ और संवेदना का परिणाम था, जो समुदाय के जीवन दर्शन में रची-बसी थी।

महत्त्व और प्रेरणा

खेजड़ी आंदोलन ने यह सिद्ध किया कि पर्यावरण संरक्षण केवल कानूनों का विषय नहीं है, बल्कि यह सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्य प्रणाली का हिस्सा भी हो सकता है। इस बलिदान की स्मृति में भारत सरकार ने "अमृता देवी बिश्नोई वन्यजीव संरक्षण पुरस्कार" की स्थापना की है। यह आंदोलन पर्यावरण इतिहास का एक अमिट अध्याय बन चुका है और यह हमें यह सिखाता है कि साधारण लोग, विशेषकर महिलाएँ, अपनी आस्था, साहस और प्रतिबद्धता के बल पर प्रकृति की रक्षा कर सकते हैं—even at the cost of their lives.

दोनों आंदोलनों में समानता

चिपको और खेजड़ी आंदोलन भले ही भौगोलिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टि से अलग हों, परंतु उनमें अनेक समानताएँ हैं। दोनों में महिलाओं ने नेतृत्वकारी भूमिका निभाई और अपनी जान जोखिम में डालकर प्रकृति की रक्षा की। दोनों आंदोलनों में हिंसा का मार्ग नहीं अपनाया गया, बल्कि शांतिपूर्ण विरोध, नैतिक साहस और मानवीय मूल्य प्रमुख थे। ये आंदोलन समुदाय-आधारित थे, जिनमें स्थानीय लोगों की सहभागिता और आत्मनिर्भरता स्पष्ट दिखती है। साथ ही, इन आंदोलनों की प्रेरणा धर्म, संस्कृति और पर्यावरणीय चेतना से प्राप्त हुई थी। ये आंदोलन यह सिद्ध करते हैं कि महिलाएँ केवल घर और परिवार तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे पर्यावरण और समाज की दिशा बदलने की शक्ति रखती हैं।

उपसंहार

पर्यावरण संरक्षण में महिलाओं की भूमिका केवल सहायक नहीं, बल्कि केंद्रीय और निर्णायक रही है। चिपको और खेजड़ी जैसे ऐतिहासिक आंदोलनों ने यह सिद्ध कर दिया कि महिलाएँ पर्यावरणीय संकटों के प्रति अधिक संवेदनशील और सक्रिय होती हैं। उन्होंने यह दिखाया कि स्थानीय ज्ञान, नैतिक बल और जनसहभागिता के माध्यम से भी बड़े स्तर पर पर्यावरण संरक्षण संभव है। आज, जब दुनिया जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक आपदाओं और संसाधन संकटों से जूझ रही है, तब इन आंदोलनों की विरासत और महिलाओं की भूमिका और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। यह आवश्यक है कि आज की पर्यावरण नीतियों और योजनाओं में महिलाओं की भागीदारी को प्राथमिकता दी जाए और उन्हें पारिस्थितिक नेतृत्व के लिए सशक्त किया जाए। क्योंकि जब महिलाएँ आगे बढ़ती हैं, तो केवल समाज नहीं, बल्कि प्रकृति भी संरक्षित होती है।

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