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Reconceptualist Perspectives of Curriculum पुनःसंकल्पनावादी पाठ्यचर्या दृष्टिकोण

परिचय (Introduction)

पुनःसंकल्पनावादी पाठ्यचर्या दृष्टिकोण शिक्षा के क्षेत्र में एक गहन बौद्धिक और दार्शनिक क्रांति का प्रतीक है, जिसने शैक्षिक सिद्धांतों और उनके व्यावहारिक अनुप्रयोग को समझने की पारंपरिक धारणाओं को चुनौती दी है। यह दृष्टिकोण 1970 के दशक में तब उभरा, जब दुनिया भर में सामाजिक न्याय, मानवाधिकार, नारीवाद, और उत्तर-आधुनिकता जैसे आंदोलनों ने शिक्षा के स्वरूप पर सवाल उठाने शुरू किए। इस विचारधारा के अनुसार पाठ्यचर्या केवल पूर्व-निर्धारित उद्देश्यों और विषयवस्तु पर आधारित एक तकनीकी दस्तावेज़ नहीं है, जिसे शिक्षक मात्र कार्यान्वयन के लिए प्रयोग करें, बल्कि यह एक जीवंत, परिवर्तनशील और अनुभव-आधारित प्रक्रिया है, जो सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भों से गहराई से जुड़ी होती है। इस दृष्टिकोण में पाठ्यचर्या को न केवल शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है, बल्कि यह मानव अस्तित्व, व्यक्तिगत पहचान, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, और सामाजिक न्याय जैसे व्यापक विषयों के साथ गहरे संबंध में होता है। इसमें शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों को सह-निर्माता (co-constructors) की भूमिका में रखा गया है, जहाँ शिक्षा केवल ज्ञान संचरण नहीं बल्कि आत्मचिंतन, आलोचनात्मक सोच, और वैयक्तिक अर्थ निर्माण की प्रक्रिया बन जाती है। पुनःसंकल्पनावादी दृष्टिकोण शिक्षा को केवल जानकारी देने का माध्यम नहीं, बल्कि व्यक्ति और समाज के परस्पर संबंधों को समझने और उन्हें संवेदनशील रूप से पुनःपरिभाषित करने का उपकरण मानता है।

पृष्ठभूमि और उद्भव (Background and Emergence)

पुनःसंकल्पनावादी पाठ्यचर्या दृष्टिकोण का विकास एक ऐसे समय में हुआ जब वैश्विक स्तर पर सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना तीव्रता से बढ़ रही थी। 1960 और 1970 के दशकों में विश्व भर में नागरिक अधिकार आंदोलनों, नारीवादी विमर्शों, शांति आंदोलनों और उत्तर-आधुनिक दार्शनिक प्रवृत्तियों ने पारंपरिक ज्ञान और सत्ता संरचनाओं को चुनौती दी। शिक्षा के क्षेत्र में भी इन आंदोलनों का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा, जहाँ विद्यार्थियों की विविधता, अनुभव और पहचान को महत्व देने की माँग तेज़ हुई। इस पृष्ठभूमि में, पारंपरिक टायलर मॉडल, जो कि पाठ्यचर्या को एक तर्कसंगत योजना की तरह देखता था – जिसमें स्पष्ट उद्देश्य निर्धारित किए जाते थे, विषयवस्तु का चयन होता था, शिक्षण-संगठन और मूल्यांकन की प्रक्रियाएँ तय की जाती थीं – अब सीमित और यांत्रिक प्रतीत होने लगा। यह मॉडल विद्यार्थियों की सामाजिक-भावनात्मक जटिलताओं, सांस्कृतिक भिन्नताओं और जीवनानुभवों को अनदेखा करता था, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि ज्ञान को केवल तथ्यों और सूचनाओं के रूप में नहीं बल्कि एक जीवंत, बहुआयामी और अनुभवसिद्ध प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए। विलियम पाइनार, मेडेलीन ग्रिन, हर्बर्ट कोन्ट्ज़ और अन्य विचारकों ने यह प्रस्तावित किया कि पाठ्यचर्या को एक सामाजिक-ऐतिहासिक रूपरेखा में देखा जाना चाहिए, जिसमें व्यक्तिगत स्मृतियाँ, सांस्कृतिक पहचान, और सामाजिक संदर्भों की सक्रिय भागीदारी हो। उनके अनुसार पाठ्यचर्या एक रचनात्मक, आत्मचिंतनशील और व्यक्तिगत विकास की यात्रा होनी चाहिए, न कि मात्र एक औपचारिक शैक्षिक ढाँचा। इस दृष्टिकोण का मूल उद्देश्य शिक्षा को अधिक मानवीय, लोकतांत्रिक और समावेशी बनाना था, ताकि यह हर शिक्षार्थी की आवाज़ को स्थान दे सके और समाज के हाशिए पर खड़े लोगों को भी शिक्षा के माध्यम से सशक्त किया जा सके। यह आंदोलन शिक्षकों को एक सक्रिय बौद्धिक और सामाजिक भूमिका में लाना चाहता था, जहाँ वे न केवल पाठ पढ़ाएँ, बल्कि अपने विद्यार्थियों के जीवन अनुभवों के साथ जुड़कर एक नई शैक्षिक दिशा निर्धारित करें।

पुनःसंकल्पनावादी दृष्टिकोण की मुख्य विशेषताएँ (Key Features of the Reconceptualist Perspective)

1. पाठ्यचर्या एक जीवंत अनुभव के रूप में (Curriculum as Lived Experience)

पुनःसंकल्पनावादी दृष्टिकोण के अनुसार, पाठ्यचर्या केवल एक नियोजित पाठ्य सामग्री या दस्तावेज़ नहीं है, जिसे शिक्षक कक्षा में प्रस्तुत करें और विद्यार्थी उसे ग्रहण करें, बल्कि यह एक निरंतर चलने वाला जीवंत अनुभव है। इस दृष्टिकोण में मान्यता दी जाती है कि विद्यार्थी और शिक्षक दोनों की व्यक्तिगत पृष्ठभूमि, भावनात्मक प्रतिक्रियाएँ, सांस्कृतिक पहचानें, सामाजिक स्थितियाँ और जीवन के अनुभव पाठ्यचर्या को प्रभावित करते हैं और उसे अर्थ प्रदान करते हैं। पाठ्यचर्या को इस रूप में देखने से यह स्पष्ट होता है कि सीखना केवल ज्ञान अर्जन की प्रक्रिया नहीं, बल्कि आत्म-संवाद, सांस्कृतिक सहभागिता और अनुभवों की व्याख्या से भी जुड़ा है। यहाँ शिक्षा को मानवीय संबंधों और अनुभवों के भीतर देखा जाता है, न कि केवल सूचना हस्तांतरण के एक माध्यम के रूप में।

2. आत्मकथात्मक और प्रपत्तिवादी दृष्टिकोण (Autobiographical and Phenomenological Approach)

इस दृष्टिकोण की जड़ें अस्तित्ववाद और प्रपत्तिवाद (Phenomenology) जैसी दार्शनिक धाराओं में निहित हैं, जो व्यक्ति की चेतना, अनुभव और आत्म-अवलोकन को केंद्र में रखती हैं। विलियम पाइनार द्वारा प्रस्तुत की गई “Currere” की अवधारणा पुनःसंकल्पनावाद की आत्मा मानी जाती है। "Currere" का उद्देश्य यह है कि व्यक्ति अपने जीवन की यात्रा – अतीत, वर्तमान और भविष्य – को आत्मकथात्मक दृष्टि से देखें और उसका विश्लेषण करें। यह प्रक्रिया शिक्षार्थियों को न केवल आत्म-विश्लेषण की क्षमता प्रदान करती है, बल्कि उन्हें अपनी पहचान, मूल्य और भविष्य की दिशा को लेकर एक स्पष्ट दृष्टिकोण विकसित करने में भी सहायता करती है। यह दृष्टिकोण पाठ्यचर्या को एक अत्यंत निजी और आत्मिक प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत करता है, जिसमें ज्ञान से अधिक आत्म-बोध और व्यक्तिगत विकास पर बल होता है।

3. सामाजिक न्याय और आलोचनात्मक शिक्षाशास्त्र पर बल (Critical Pedagogy and Social Justice)

पुनःसंकल्पनावादी विचारधारा शिक्षा को एक सामाजिक क्रांति के उपकरण के रूप में देखती है। इसके अंतर्गत पाठ्यचर्या को ऐसी प्रक्रिया माना जाता है, जो सामाजिक असमानताओं को चुनौती देने और छात्रों को सामाजिक न्याय की दिशा में सोचने के लिए प्रेरित करती है। यह दृष्टिकोण वर्गभेद, जातिवाद, लिंगभेद, नस्लीय असमानता और अन्य प्रकार के भेदभाव की जड़ों को उजागर करता है और शिक्षकों को ऐसे पाठ्यक्रम विकसित करने के लिए प्रेरित करता है जो सभी आवाज़ों को स्थान दें। इस प्रक्रिया में शिक्षक और छात्र दोनों ही परिवर्तन के संवाहक बन जाते हैं, जहाँ शिक्षा केवल औपचारिक ज्ञान नहीं देती, बल्कि सोचने, सवाल उठाने और सामाजिक व्यवस्था को बेहतर बनाने की शक्ति भी देती है।

4. बहुविषयक और समावेशी दृष्टिकोण (Interdisciplinary and Inclusive)

पुनःसंकल्पनावादी पाठ्यचर्या दृष्टिकोण एक संकीर्ण अकादमिक ढांचे तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह विभिन्न विषय क्षेत्रों से अंतर्दृष्टियाँ प्राप्त करता है। इसमें मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, दर्शन, राजनीति विज्ञान, साहित्य, इतिहास, संस्कृति और कला जैसे अनेक अनुशासनों का समावेश होता है, जिससे पाठ्यचर्या अधिक व्यापक और संवेदनशील बनती है। यह दृष्टिकोण विविध सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों, जीवन अनुभवों और पहचान को सम्मान देने की आवश्यकता को स्वीकार करता है, जिससे शिक्षा अधिक समावेशी और हर विद्यार्थी के लिए प्रासंगिक बनती है। इस बहुआयामी दृष्टिकोण से शिक्षा की प्रक्रिया अधिक रचनात्मक, विविधतापूर्ण और मानवीय बन जाती है।

5. पाठ्यचर्या एक राजनीतिक पाठ के रूप में (Curriculum as a Political Text)

पुनःसंकल्पनावादी विचारधारा इस बात को रेखांकित करती है कि पाठ्यचर्या कभी भी वैचारिक रूप से तटस्थ नहीं होती। इसमें यह मान्यता होती है कि पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय यह निर्णय कि कौन-सा ज्ञान पढ़ाया जाएगा, किसके दृष्टिकोण को शामिल किया जाएगा और किन विषयों को नजरअंदाज किया जाएगा – ये सभी निर्णय सामाजिक शक्ति, राजनीतिक विचारधाराओं और सांस्कृतिक वर्चस्व से प्रभावित होते हैं। इसलिए पाठ्यचर्या का विश्लेषण करते समय यह आवश्यक होता है कि हम यह समझें कि इसमें किन सामाजिक समूहों की आवाज़ को महत्व दिया गया है और किन्हें उपेक्षित किया गया है। इस विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से हम शिक्षा को एक सामाजिक और राजनीतिक प्रक्रिया के रूप में देख सकते हैं, जो केवल ज्ञान का संग्रह नहीं बल्कि सत्ता और पहचान का भी प्रतिबिंब है।

प्रमुख विचारक और उनका योगदान (Major Thinkers and Contributions)

विलियम पाइनार (William Pinar)

पाइनार ने “Currere” की संकल्पना देकर पाठ्यचर्या अध्ययन को आत्मकथात्मक और चिंतनशील बनाया। उन्होंने यह सिद्ध किया कि व्यक्ति का व्यक्तिगत अनुभव, स्मृति और पहचान शिक्षा को गहराई प्रदान करते हैं। उन्होंने पाठ्यचर्या को एक जीवंत और सतत प्रक्रिया के रूप में पुनः परिभाषित किया।

माइकल एप्पल (Michael Apple)

माइकल एप्पल ने यह स्पष्ट किया कि पाठ्यचर्या पर आर्थिक, राजनीतिक और वैचारिक ताकतों का गहरा प्रभाव होता है। उन्होंने यह चेताया कि पाठ्यचर्या अक्सर प्रभुत्वशाली वर्गों के हितों को पोषित करती है और समानता की बजाय असमानता को बनाए रखती है। उन्होंने शिक्षा को लोकतांत्रिक और सशक्त बनाने की वकालत की।

हेनरी गिरॉक्स (Henry Giroux)

गिरॉक्स ने आलोचनात्मक शिक्षाशास्त्र को बढ़ावा दिया और शिक्षा को एक सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया माना। उन्होंने शिक्षकों और छात्रों को “सांस्कृतिक कार्यकर्ता” के रूप में परिभाषित किया, जो समाज को समझने और बदलने की क्षमता रखते हैं।

मैक्सीन ग्रीन (Maxine Greene)

ग्रीन ने कल्पना, सौंदर्यबोध और नैतिकता को पाठ्यचर्या का केंद्र माना। उन्होंने शिक्षा में कला, साहित्य और कल्पनाशीलता के महत्व को रेखांकित किया, जिससे शिक्षार्थियों में सहानुभूति, कल्पनाशक्ति और सामाजिक चेतना का विकास होता है।

शिक्षा पर प्रभाव (Implications for Education)

1. व्यक्तिक और चिंतनशील अधिगम को बढ़ावा (Personalized and Reflective Learning)

पुनःसंकल्पनावादी दृष्टिकोण शिक्षा को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में देखता है, जो प्रत्येक विद्यार्थी की व्यक्तिगत पृष्ठभूमि, अनुभवों, रुचियों और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर निर्मित होनी चाहिए। यह मान्यता देता है कि हर विद्यार्थी की सीखने की शैली अलग होती है, इसलिए एकरूप पाठ्यक्रम सभी के लिए उपयुक्त नहीं हो सकता। जब पाठ्यचर्या को इस दृष्टि से विकसित किया जाता है, तो विद्यार्थी उसमें अपने जीवन से जुड़ाव महसूस करते हैं, जिससे अधिगम अधिक गहरा, प्रभावशाली और आत्मीय बनता है। साथ ही, यह दृष्टिकोण विद्यार्थियों को आत्म-निरीक्षण और अनुभवों की व्याख्या करने की क्षमता विकसित करने में सहायता करता है, जो दीर्घकालीन अधिगम को बढ़ावा देता है।

2. आलोचनात्मक चिंतन पर बल (Emphasis on Critical Thinking and Awareness)

इस दृष्टिकोण की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह विद्यार्थियों को स्थापित ज्ञान, परंपरागत मान्यताओं और सामाजिक संरचनाओं पर प्रश्न उठाने के लिए प्रेरित करता है। यह केवल तथ्यात्मक जानकारी को रटने की बजाय, उस ज्ञान के निर्माण की प्रक्रियाओं को समझने और उसकी प्रामाणिकता को जांचने पर बल देता है। जब विद्यार्थी पाठ्यचर्या में निहित विचारधाराओं, पूर्वग्रहों और प्रतिनिधित्व की सीमाओं को समझना शुरू करते हैं, तो वे अधिक जागरूक, उत्तरदायी और समाज के प्रति संवेदनशील नागरिक बनते हैं। यह उन्हें ज्ञान के निष्क्रिय उपभोक्ता से सक्रिय सृजनकर्ता में परिवर्तित करता है।

3. शिक्षक पाठ्यचर्या निर्माता के रूप में (Teacher as a Curriculum Developer)

पुनःसंकल्पनावादी दृष्टिकोण के अंतर्गत शिक्षक की भूमिका केवल एक निर्देश देने वाले या तयशुदा पाठ्य सामग्री को लागू करने वाले की नहीं होती, बल्कि वे एक रचनात्मक, विवेकी और विचारशील पाठ्यचर्या-निर्माता के रूप में देखे जाते हैं। शिक्षक अपने जीवन अनुभवों, सामाजिक समझ, सांस्कृतिक दृष्टिकोण और विद्यार्थियों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम की पुनर्रचना करते हैं। यह दृष्टिकोण शिक्षकों को शिक्षा के क्षेत्र में अधिक स्वतंत्रता और रचनात्मकता प्रदान करता है, जिससे वे शिक्षा को अधिक प्रासंगिक, समावेशी और प्रेरणादायक बना सकते हैं।

4. समावेशिता और समानता का समर्थन (Inclusion and Equity)

यह दृष्टिकोण शिक्षा में उन आवाज़ों को भी स्थान देने की बात करता है जो अक्सर पारंपरिक पाठ्यचर्या में अनदेखी की जाती हैं – जैसे कि वंचित वर्ग, जातीय और लैंगिक अल्पसंख्यक, आदिवासी समुदाय, और अन्य हाशिये पर स्थित समूह। पुनःसंकल्पनावादी विचारधारा एक ऐसी शिक्षा की पैरवी करती है जो सामाजिक न्याय को प्राथमिकता देती है और सभी विद्यार्थियों को एक समान अवसर प्रदान करती है। समावेशी पाठ्यचर्या न केवल विविध संस्कृतियों और दृष्टिकोणों को मान्यता देती है, बल्कि विद्यार्थियों को सहिष्णुता, समानता और परस्पर सम्मान के मूल्यों को आत्मसात करने की प्रेरणा भी देती है।

5. कला, साहित्य और मानवीय विषयों का समावेश (Integration of Arts, Stories, and Humanities)

इस दृष्टिकोण के अंतर्गत शिक्षा को केवल तार्किक और वैज्ञानिक विचारों तक सीमित न रखते हुए, उसमें कला, साहित्य, संगीत, नाटक, और जीवन कथाओं को भी शामिल करने की वकालत की जाती है। इसका उद्देश्य शिक्षा को अधिक संवेदनशील, भावनात्मक और नैतिक रूप से समृद्ध बनाना है। कला और मानवीय विषय विद्यार्थियों की कल्पनाशक्ति, रचनात्मकता, सहानुभूति और भावनात्मक समझ को विकसित करते हैं, जिससे वे न केवल बेहतर शिक्षार्थी बनते हैं, बल्कि समाज के प्रति भी अधिक जागरूक और उत्तरदायी बनते हैं। ऐसी शिक्षा विद्यार्थियों को स्वयं से और अपने समाज से गहरे स्तर पर जोड़ती है।

आलोचनाएँ (Criticisms of the Reconceptualist Perspective)

पुनःसंकल्पनावादी दृष्टिकोण शिक्षा को अधिक मानवीय, अनुभवाधारित और सामाजिक रूप से संवेदनशील बनाने का प्रयास करता है, फिर भी इसके विरोध में कई महत्वपूर्ण आलोचनाएँ सामने आई हैं। सबसे पहली आलोचना यह है कि यह दृष्टिकोण अत्यधिक सैद्धांतिक और दार्शनिक विमर्श पर आधारित होता है, जिससे शिक्षकों और पाठ्यचर्या निर्माताओं के लिए व्यावहारिक रूप से इसे लागू करना जटिल हो जाता है। इसमें स्पष्ट दिशानिर्देशों और संरचित ढांचे की कमी होने के कारण शिक्षण प्रक्रिया में असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। इसके अतिरिक्त, यह दृष्टिकोण मानकीकृत परीक्षणों और पारंपरिक मूल्यांकन प्रणालियों को कठोरता से चुनौती देता है, जो वर्तमान शैक्षिक व्यवस्था की मूल संरचना का हिस्सा हैं। इससे पाठ्यचर्या के निष्पादन और शिक्षण की गुणवत्ता के आकलन में बाधा आ सकती है। कई शिक्षाविदों का यह भी मानना है कि व्यक्तिगत अनुभवों और आत्मकथात्मक दृष्टिकोण पर अत्यधिक ज़ोर देने से शिक्षा की सार्वभौमिकता और वस्तुनिष्ठता पर असर पड़ सकता है। इसके अलावा, पुनःसंकल्पनावाद की गूढ़ भाषा और जटिल विचारधारात्मक ढांचा सामान्य शिक्षकों और नीति निर्माताओं के लिए कठिन और कभी-कभी अप्रासंगिक प्रतीत हो सकता है। व्यावसायिक विकास की सीमाओं, संसाधनों की कमी, और व्यवस्थागत बाधाओं के चलते इसे व्यापक स्तर पर लागू करना एक बड़ी चुनौती बना रहता है। इन कारणों से कई आलोचक यह तर्क देते हैं कि जब तक इस दृष्टिकोण को अधिक सुसंगत, व्यावहारिक और नीति-संगत बनाया नहीं जाता, तब तक इसकी उपयोगिता सीमित ही रहेगी।

निष्कर्ष (Conclusion)

पुनःसंकल्पनावादी पाठ्यचर्या दृष्टिकोण ने पारंपरिक शिक्षा संबंधी धारणाओं को पुनर्परिभाषित करते हुए पाठ्यचर्या की अवधारणा को एक नई दिशा प्रदान की है। इस दृष्टिकोण ने यह स्पष्ट किया है कि शिक्षा केवल तथ्यों और सूचनाओं का संप्रेषण नहीं है, बल्कि यह एक जीवंत, वैयक्तिक और सामाजिक प्रक्रिया है, जिसमें आत्मचिंतन, अनुभव, संस्कृति और पहचान की गहन भूमिका होती है। यह विचारधारा शिक्षा को एक ऐसे उपकरण के रूप में प्रस्तुत करती है, जो न केवल आत्मबोध और सृजनात्मकता को बढ़ावा देती है, बल्कि सामाजिक असमानताओं, भेदभाव और अन्याय के खिलाफ भी विद्यार्थियों और शिक्षकों को जागरूक और सक्रिय बनाती है। इसके क्रियान्वयन में अनेक चुनौतियाँ हैं—जैसे स्पष्ट ढांचे की कमी, मानकीकरण के विरोध, और संसाधनों की आवश्यकता—फिर भी यह दृष्टिकोण शिक्षा को मानवीयता, समावेशिता और सामाजिक न्याय की ओर उन्मुख करने में अत्यंत प्रभावशाली है। यह उन आवाज़ों को स्थान देने की कोशिश करता है जो अक्सर पारंपरिक पाठ्यचर्या में अनसुनी रह जाती हैं, और एक ऐसे शिक्षण वातावरण की कल्पना करता है जो संवेदनशीलता, संवाद और विविधता को महत्व देता है। अंततः, पुनःसंकल्पनावाद न केवल पाठ्यचर्या को फिर से समझने की प्रक्रिया है, बल्कि यह शिक्षकों और शिक्षार्थियों दोनों के लिए एक सतत वैचारिक यात्रा है, जो उन्हें अपने अनुभवों, पहचान और सामाजिक परिवेश के साथ गहरे स्तर पर जोड़ती है। यह दृष्टिकोण शिक्षा को एक परिवर्तनकारी शक्ति के रूप में स्थापित करता है, जो व्यक्तियों और समाज दोनों के विकास में सहायक बन सकती है।

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